Book Title: Jain_Satyaprakash 1945 12
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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जीवके कर्मबन्ध और मोक्षका अनादित्व (लेखक: -- पू. आचार्य महाराज श्री जिनहरिसागरसूरीश्वरजी )
[ तेरापंथी युवक संघ - लाडल - की पत्रिकामें श्रीयुत सोहनलालजी वैध लाडलू-का " जैनधर्म प्रतिपादित जीवके कर्मबन्ध तथा मोक्षके अनादित्व पर एक आलोचनात्म दृष्टि " - शीर्षक एक लेख प्रकाशित हुआ देखा गया । लेखमें आलोचना करते समय लेखक वादी, प्रतिवादी और न्यायाधीश स्वयं बनकर जैन मान्यता के विरोध में फैसला देता है । उसीको लक्ष्य में रख कर ही यह लेख लिखा गया है । ]
-: सोहनलालजीके मोटे २ मुद्दे
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१. जीव छोटा बड़ा क्षेत्र घेरता है अतः वह रबरके फीतेकी मिसाल बन जाता है जो पदार्थ सिकुड़ता फैलता है, वह संयोगी ही होता है, एक और अखंड नहीं हो सकता । इससे जीवकी परिभाषा टूटती है । अतः जीवको छोटेसे छोटा मानना चाहिए ।
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२. संयोग कभी अनादि नहीं होता । जीव पुद्गल जब भिन्न २ द्रव्य हैं, तो संयोगसे पूर्व कभी अपने असली रूपमें रहने ही चाहिए । अनादि संयोग कभी टूट नहीं सकता । ३. सारे मुक्त जीवोंकी आदि है, तो क्या उन सबके पहले मुक्तिमार्ग ही नहीं था ? अगर कितनेक मुक्तोंकी आदि भी नहीं, अंत भी नहीं तो जब वे मुक्त हुए, तब क्या कोई तिथि मिती नहीं थी ? कहा जाय कि थी, तब अनादित्व कैसा ? कहोगे तिथि मिती तो थी, पर हमें इसका पता नहीं तो अनादित्वकी केवल मौखिक प्रतिज्ञा ही होगी ।
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४. मुक्त होने से पहिले सांसारिक अवस्थाका होना अनिवार्य है । तो मुक्त होने की तिथि भी अवश्य ही होनी चाहिए ।
५. बंधको अनादि कहा जाता है । बंध टूटे बिना मुक्ति नहीं होती । इस हालत में बंध अनादि माना जाय, या मुक्ति !
६. अनादिको अंतवाला मानना, और सादिको अनंततावाला मानना यह एक सैद्धान्तिक भूल है ।
७.
जिस द्रव्यका प्रागभाव है उसका प्रध्वंसाभाव भी अनिवार्य है । जो बना है, वह बिगड़ेगा । आया है, वह जायगा । जो बना नहीं, वह बिगड़ेगा भी नहीं । जो आया नहीं वह जायगा भी नहीं । जिसकी आदि है, उसका अंत है। जिसकी आदि नहीं उसका अंत भी नहीं ।
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८. इस लिए समस्त मुक्ति जीवोंकी मुक्त होनकी अपेक्षासे आदि है । कोई भी मुक्त जीव मुक्तापेक्षया अनादि नहीं माना जा सकता ।