Book Title: Jain_Satyaprakash 1943 11
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 27
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कविवर समयसुंदरजी रचित संघपति सोमजी-निर्वाणवेलि संपादक-श्रीयुत अगरवन्दजी नाहटा, बीकानेर. [ सतरहवीं शताब्दीके धर्मप्रेमी गुजरातके श्रावकोंमें संघपति सोमजी शाहका महत्त्वपूर्ण स्थान है। सं. १६५२ वैशाखशुदि ५ को आपने लिखाई हुई रायपसेणीसूत्र वृत्तिकी प्रति श्री. बाबू पूर्णचंद्रजी नाहरके संग्रहमें है, उसकी प्रशस्तिमें आपके सम्बन्धमें निमोक्त विशेषण दिये है-"कृतसकलश्रीशजयमहातीर्थयात्राकेन, कृतश्रीखरतरगच्छोयसर्वश्राद्धलंभानिकेन, समहामहं प्रतिष्ठापितातीतानागतवर्द्धमानाबनेकजिनप्रतिमाकेन, बहुशः कृतसाधर्मिकवात्सल्येन, कृतानेकजिनचैत्येन, विरचितानेकपुण्यकृत्येन, सदोचित्येन,सल्लोषितसकलदर्शनेन, संघपतिश्रीसोमजीकेन" __ आपके सम्बन्धमें हमने अपने 'युगप्रधान जिनचंद्रसूरि "प्रन्थके पृ.२४० से २४५ एवं संघपति सोमजीशाह पुस्तिकामें विशेष ज्ञातव्य प्रकाशित किया है । कविवर समयसुंदरजीने उनकी प्रशंसा अपनी कल्पलता वृत्तिकी प्रशस्तिमें भी की है। कुछ वर्ष पूर्व हमें बीकानेरके खरतर आचार्य शाखाके भंडारका अवलोकन करते हुए कविवरने रचित प्रस्तुत वेलि प्रप्त हुई अतः यहां प्रकाशित की जा रही है। इनके निकाले हुए शत्रुजय संघकी चैत्यपरिपाटी हमें अपूर्ण मिली है, किसीको पूरी मिले तो सूचित करें। सं. ] संघपति सोम तणउ जस सगलह, वरण अढारह करइ वखाण । मूधउ कहइ तिके नर मूरिख, जीवइ जगि जोगी सुत जामि ॥ सं. १ ॥ दीपक वंश मंडायउ देहरउ, अद्भुत करण धर्यउ अधिकार। नलनीगुल्म विमान निरखवा, सोम सिधायउ सरग मझार ॥ सं. २ ॥ मोटा सबल.प्रासाद मंडायउ, करिवा मांड्यउ सोम सुकाज। पृथिवीमांहि तिसउ नहिं परिकर, इंद्रपास लेण गयउ आज ॥ सं. ३ ॥ आख्यउ जुगप्रधान शाहि अकबर, जिवचंद्रसूरि गुरु वडउ जतीश । सोम गयउ पूछण सुरलोके, वासह कहस्यइ विसवा वीस ॥ सं. ४ ॥ मामउ अनइ करमचंद भाखड़, राजका जतणि सवि रीति । हरि तेड्यउं सोम तुं हिवणां, पूछण धर्मतणी परतीति ।। सं. ५ ।। नास्तिक मत थापइ गुरु नित नित, सभा मांहि पोषइ सिणगार । इंद्र धर्म धुरंधर आण्यउ, सत्यवादी साहां सिरदार ॥ सं.६॥ पुण्य क्रतूल किया अति परिघल, सुरपति सबल पडी मन संक । पहुंता सोम इंद्र परिचावा, वरस्युं मुगति नहीं तुम वांक ॥ सं. ७॥ For Private And Personal Use Only

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