Book Title: Jain_Satyaprakash 1943 07
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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नाम और मूर्ति दोनों मंजूर होने चाहिए लेखकः-पूज्य मुनिमहाराज श्री विक्रमविजयजी
(गतांकसे समाप्त ) निक्षेप भेदसे,दूसरे सदृश नामकी अस्मरणीयता बताई है,यह कोई सूरिनीके कथनसे नई बात नहीं है। पूजनीय तो मुख्यतः भाव ही है, ‘मात्र भाव ही है' यह बात गलत है। 'आत्माका परिचायक नाम ही स्मरणीय है' यह लेख भी गलत है, क्योंकि भाव भगवानका परिचायक शास्त्र भी स्मरणीय होता है, पुगलमय तदाकार शून्य नाममें जिस प्रकार भावाहतका अभेद है, उसी प्रकार मूर्ति में भी तदाकार भी है, तो क्यों अभेद नहीं हो सकता है ? और जिस प्रकार नामका और भावाहितका वाच्य-वाचक भाव संबंध है उसी प्रकार मूर्ति (स्थापना)के साथ भी स्थाप्य-स्थापकभाव संबंध है, इसलिये कल्पित आकृतिके अलावा अन्य काई संबंध नहीं है, ऐसा कहना भी न्यायानभिज्ञताका सूचक है। और आपने मूर्तिमें आकृतिका संबंध मान लिया, किन्तु किसकी आकृतिका संबन्ध माना है ? यह लिखना चाहिए। जिसकी मूर्ति है उसकी आकृतिका संबन्ध है ? कि जिस किसोकी आकृतिका? वाच्य-वाचकभाव संबन्ध ही मान्य नहीं है, अपर संबन्ध मान्य है, इसमें कोई नियामक नहीं है, भगवद् आदिकी स्थापना अनुपकारिणी है, ऐसा कहोगे तो नामस्मरण भी अनुपकारी ही होगा, नाम पुद्गलमय है, वह आत्माका उपकारी कैसे हो सकता है ? जिस प्रकार नामके स्मरणसे, नामस्मरण द्वारा, तद्गुणसमापत्ति होती है, उसी प्रकार भगवत्प्रतिमाके दर्शन-पूजनसे भी सकलातिशायी भगवंतके गुणका ध्यान होता ही है, देखा भी गया है-बहुतोंको प्रतिमाके दर्शनसे बोधिका उदय भी-इत्यादि सूरिजीके पक्षमें प्रमाण रहते हुए, एकदेशीय युक्तियां किस तरह खडी हो सकती हैं ? यदि स्थापना वंद्य न हो तो नाम भी इसी तरहसे सफल नहीं हो सकता है। इन चार निक्षेपोंमें भावोल्लासकत्व गुण होनेसे वे ग्राह्य हैं। यही इसका मतलब है कि जिसका भाव वंद्य है उसका ही नाम ग्राह्य है अर्थात् भावोल्लासक जो होता है वो ग्राह्य होता है, अन्यका जो नाम है वह भावका उल्लासक न होनेसे ग्राह्य नहीं होता है। श्राद्धविधिकारका जो लेख है वह भी उपर्युक्त तात्पर्यका ही अवलंबन रखता है इससे तुम्हारी कुछ भी इष्टसिद्धि न हुई, बल्कि सरिजीके न्यायको ही पुष्टि हुई। ‘मूर्तिको मूर्ति मानने और आवश्यकतानुसार उचित उपयोग करने में हमारा विरोध नहीं, हमारा विरोध अनुचित उपयोग अर्थात् मूर्तिपूजासे है, हमने मूर्तिपूजा निरर्थक होनेसे उसका विरोध किया हे' यह कथन भी असंगत है। जब मूर्तिपूजा मानते ही नहीं तो मूर्तिपूजकोंसे किये नानेवाले उपचारोंको हम मूर्तिपूजा नहीं कहते' यह बात कैसे
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