Book Title: Jain_Satyaprakash 1943 07
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 32
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२०] - શ્રી જન સત્ય પ્રકાશ [१५८ कह सकते हो? क्या तुम्हारे हिसाबसे कोई दूसरी मूर्तिपूजा है ? जिसको लक्ष्यमें रखकर उन उपयोगोंसे मूर्तिपूजा नहीं कहते, ऐसे लिखते हो। और 'मूर्तिपूजा निरर्थक होनेसे उसका विरोध किया है' यह भी बोलना मात्र ही है। अभीतक वह निरर्थक है यह सिद्ध किये बिना ही केवल निरर्थक है निरर्थक है ऐसा चिल्लानेसे निरर्थकता सिद्ध नहीं हो सकती। जब मूर्तिको मान ही लिया, तब तो मूर्तिका ही मंडन होता है और सूरिजीकी बात सिद्ध होती है। रही पूजाकी बात तो तो ऊपर कह चुके हैं, इस लिए तुम्हारे इन लेखोंसे सूरिजीका कोई भी वचन अवास्तविक नहीं होता है, किन्तु तुम्हारा चौदहवां प्रकरण ही खंडित हो जाता है, अतः किसी प्रकार तुम्हारा कथन सत्य नहीं रहा। 'चित्र लिखित सरोवरमें काई भी स्नान करनेका प्रयत्न नहीं करता, अर्थात् साक्षात् सरोवरका सा व्यवहार नहीं करता, उसी प्रकार आप भी मूर्तिको मत पूजीये' इतना ही दृष्टांत और दाष्ट्रान्तिकका मुख्य धर्म है, तो जिस तरह चित्रलिखित सरोवरमें स्नान करनेका प्रयत्न नहीं करता उसी प्रकार साक्षात् परमात्माके दर्शनसे जो अनुभव होता है, वह अनुभव नामसे भी नहीं होता है, इस लिये उसको भी मत जपो, तुम्हारा साधर्म्य इस नामके साथ भी बराबर है, तो नाम स्मरणीय नहीं रहा, जो स्मरण करता है उसको तुम्हारे हिसाबसे मूर्ख ही कहना होगा। और मूर्ति तो क्या पर साक्षात् प्रभुको देखकर भी ज्ञान या वैराग्य नहीं होता' ऐसा बोलकर बहुत ही अच्छा काम किया। जिस प्रकार साक्षात् प्रभुको देखकर ज्ञान या वैराग्य नहीं होता, उसी प्रकार तुम्हारे हिसाबसे नाम भी व्यर्थ ठहर गया, क्योंकि साक्षात् प्रभुको देखकर जब ज्ञान या वैराग्य पैदा नहीं होता है, तब उनके नामस्मरणसे ज्ञान वैराग्यादि शुभ भाव कैसे उत्पन्न हो सकते हैं? एवं च तुम्हारे हिसाबसे भाषके उत्पादक साक्षात् प्रभु भी नहीं रहे, तब नामादिककी बात तो दूर ही रही, फिर तुम्हारे लिये उनका उपदेश निरर्थक ही है। इस तरह तो साक्षात् महावीरका भी ज्ञानप्रदत्वका निषेध पाया जाता है ' इस सूरिजीके तात्पर्य को नहीं समझते हुए, 'ज्ञानप्रदत्वका निषेध किसने किया, ऐसा कहना अरण्यरुदन ही है। तुमने ही झानप्रदत्वका निषेध किया, जो कि ज्ञान वैराग्योत्पादादिके लिये साक्षात् भगवानके दर्शनको भी निरर्थक ठहराया। किसी एक पुरुषको प्रभुको देखने पर भी ज्ञान या वैराग्य न उत्पन्न हो तो क्या सर्वको नहीं होता है, ऐसा कहना मूर्खता नहीं है ? ' मेरा उदाहरण है, मात्र शरीरके दर्शनका' यह भी असत्य है, क्योंकि उनके शरीरदर्शनके सिवा उनका दर्शन ही असंभवित है। ऐसे तो सर्वथा किसीको भी साक्षात् प्रभुके रहते समयमें भी उनका दर्शन नहीं हुआ ही कहना होगा, तब भाव प्रभु ही अप्रसिद्ध हो गये, क्योंकि शरीरको ही तो देखते हैं, वह तो साक्षात् प्रभु है ही नहीं। मूर्तिसे मूर्तिमानकी कभी पूजा नहीं होती है, ऐसा सिद्धांत तुम्हारा हो तो समवसरणस्थ भगवानको For Private And Personal Use Only

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