Book Title: Jain_Satyaprakash 1942 12
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 27
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ ] અમરસર કહાં હૈ सूरिजी की चरण पादुकाओं के लेख भी इस लेख में छपे हैं एवं खाता गच्छीय मुनि कनकमोमजोने सं. १६४४ के श्रावण में 'आर्द्रकुमार धमाल' भी अमृतसर में बनाई। उनको भी चरणपादुकाओं का लेख प्रस्तुत लेख में छपा है। यद्यपि ये दोनों लेख बहुत अशुद्ध छपे हैं फिर भी महत्व के होने के कारण यहां उद्धृत किए जाते हैं। [१] “सम्बत् १६५३ वषे वैशाखाद्य ५ दिने श्री जिनकुशलसूरीश्वराणां पादुके कारिते अमरसर वास्तव्य श्री संघेन ज्ञाता । मूलस्वूत ? प्रारेत कमा मंत्री कर्मः चंद्र श्री बोम्लः मेचः पंडि श्रांनियांश्च मोण सानं महद्य चेष्टितम युगे अक्षेः" [२] “ सम्बत् १६६२ वर्षे व ३ वदि ५ दिने सोमवारे श्री खरतर गधाचनाचार्य श्री. श्री. कनकमोमगणीनां पादुका प्रतिष्ठिते य भया माम श्री जिनचंद्रसूरिः सिः" अमरसर सतरहवीं शताब्दी में खरतर गच्छ का एक विशिष्ट स्थान था। यहां की रचित निम्नात कृतियां उपलब्ध हैं: १ सं. १६३८ शीतलजिन स्तवन, कर्ता साधुकीर्ति । २ सं. १६४४ श्रावण आद्र कुमार धमाल-कर्ता-कनकसोम । ३ सं. १६६५ चै. शु. १०, चातुर्मासिक व्याख्यान-कर्ता समयसुंदर । ४ शीतल जिन स्तवन-कर्ता समयसुंदर। ५ सं. १६६५ आश्विन शुक्ल १०, यशोधर रास-कर्ता-विमलकीति । ६ स. १६६९ आश्विन शुक्ल १५ बु. जैनत-त्वसार कर्ता-सूरचद्र । ७ सं. १६८० का. शु. १३, लघुसंघयणी बालावबोध-कर्ता-शिवनिधान । कल्पसूत्र बालावबोध . सं. १६६१ में श्री जिनसिंहसरिजी यहां पधारे थे और माघ शुक्ल ७ को श्री जिनसागरसूरिजी को उनके बड़े भाई विक्रम और माता मृगादेवो के साथ ही दीक्षा दी गई थी। दीक्षामहोत्सव श्रीमाल थानसिंह ने किया था जिसका उल्लेश श्री जिनसागरसरिरास आदि में पाया जाता है। सं. १६८० के पश्चात् अमरसर का कोई उल्लेख देखने में नहीं आया, संभव है इसके थोड़े अरसे के बाद ही राजविप्लव के कारण जैनों को यहांसे हट जाना पडा हो । 'चाँद' में प्रकाशित लेख के अनुसार अभी यहां अपरसर खाश, नवलापुरी (नायण) तथा पठानों का वास तोनों को मिलाकर जिसे कस्बा अमरसर कहते हैं, केवल ५००० की आबादी है। एवं यह अमरसर पहले जाट (गुर्जर) अमराकी ढाणो थी। शेखावत वंश के स्थापक राव शेखाजी. वि. सं. १४५५ के लगभग यहां गढ बनवा कर रहने लगे थे। उपर्युक्त जैन कृतियों के अनुसार यहां पर श्री शीतलनाथजी का जैन मन्दिर था। परन्तु इस लेख में उसका कोई उल्लेख नहीं किया गया है, केवल उपर्युक्त दो लेखोंवाली छतरियों का दादा पोते की छतरी नामसे प्रसिद्ध होने का उल्लेख किया है। अतः उक्त स्थान से निकट वर्ती एवं जयपुर निवासी भाईयों का कर्तव्य है कि उक्त मंदिर व दादावाड़ी आदि जैन स्मारकों की खोजका समुचित ज्ञातव्य प्रकाशित करें। For Private And Personal Use Only

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