Book Title: Jain_Satyaprakash 1942 11
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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२]
"परिहन्त - येत्य"
अर्थ
[१५]
पक्ष ही सूरिनोयत है, तुम्हारा अर्थ कपोलकल्पित ही है। अर्थापत्तिको पूर्व लेखमें दोषरूपसे तुमने कहा है । उस अर्थापत्तिके सिवा तुम्हारा मुख्य अर्थ उक्त शब्दोंसे किसी प्रकार नहीं निकल सकता, अतः तुम्हारा लेख मूल बिना की शाखा जैसा है और सूरिजीने अन्य यूथिकपरिगृहीतका अर्थ अन्य तीथि द्वारा पकडा जाना लिखा है वह बराबर है। अमोलख ऋषिने भी उपा० पृ० २५ में “अन्ध तीर्थियोंने (से) ग्रहण किये जैनके साधु" ही लिखा है, इसलिये पू० गुरुदेव का अर्थ, जैसा तुम्हारी समाज करती आई है ऐसा हो है, केवल “जैन साधु" इस अंशम भेद है। "जैनत्वसे भ्रष्ट होकर अजैन बन जाना" ऐसा मुख्य अर्थ करना बिलकुल व्याकरणकी अनभिज्ञताको बतलाता है। यहां पर 'परिगृहीत' शब्दको प्रयोग है इसलिये 'अन्य तीर्थिकों से ग्रहण किया गया यही अर्थ हो सकता है। अन्य तीथिंकपरिगृहीत अरिहंत चैत्यके वंदन और नमनके निषेधसे मिश्रित और सम्यग्दृष्टि परिगृहीत अरिहंत चैत्यके वंदनादिकी विधि स्पष्ट होती है। यहां चैत्य शब्दका अर्थ ज्ञान या साधु नहीं बन सकता है। यदि ज्ञान अर्थ हो तो अरिहंत चैत्य शब्दसे अहंदू ज्ञानका लाभ होता है, उसका वंदन और नमन असंभव है और उस ज्ञानका अन्य तीथिकोसे परिग्रहण नहीं हो सकता है। परिग्रहण मृत पदार्थ साध्य है अन्यथा जिस तरह अन्य तीथिकों का वंदन आदिका निषेध किया है ऐसे ही अन्य तीर्थिकज्ञानादिका निषेध भी करते । एवं साधु अर्थ भी चैत्य शब्दका नहीं बन सकता है ! ज्ञानकी मुआफिक वह भी अन्य तीथिकोसे परिगृहीत नहीं हो सकता है। यदि हो भी जाय तो जब तक अपनी साधुतामें स्थिर रहें तब तक स्वतीर्थिक ही है तो अवन्दनीय न होगा। यदि साधुतासे भ्रष्ट है तो अन्यतीर्थिक हो गया, इससे उनका संग्रह अन्यतीथिक पदसे हो जाता है । और साधुपर्यायमें चैत्य शब्दका कहीं पर भी आमतौरसे व्यवहार नहीं होनेसे चैत्य शब्दका अर्थ साधु नहीं हो सकता है, किन्तु प्रतिमा ही है। अन्य प्रतिमाओंका वारण करने के लिये अरिहन्त पद दिया गया है और चैत्यपदका अर्थ यदि साधु किया जाय तो केवल 'चैत्यानि' ही बोलना चाहिये और अरिहन्त पद निरर्थक हो जाता है। “अन्य तीर्थिक साधुका ग्रहण न हो इस लिये अरिहंत पद सार्थक है'' ऐसा कहना अनुचित है, क्योंकि शास्त्रदृष्टया वह चैत्य शब्दका वाच्य नहीं होगा। जहां कहीं शास्त्र में अन्यतीर्थिक साधुका ग्रहण करना पडा वहां पर शास्त्रकार श्रमण शब्दसे बोले है न कि चैत्यशब्द से। इससे भी चैत्य शब्दसे अन्य तीर्थिक साधुका बोध नहीं कर सकते है। तथा च अरिहंत पद निरर्थक ही रहेगा, किं च वह साधु आहत दृष्टिसे असाधु होनेसे अन्य तीर्थिक शब्दसे ही आ जाने पर तदव्यावृत्तिके लिये भो अर्हन्त पद नहीं हो सकता है। अतः अरिहंतचैत्यानि पद घटित चैत्य शब्दका किसी तरहसे साधु अर्थ नहीं हो सकता है, किन्तु प्रतिमा अथवा अईदायतन ही होगा ।
(क्रमशः)
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