Book Title: Jain_Satyaprakash 1941 07
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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२५११] तिहासिक समाधान
महत्व [४१४] चाहिये कि वे कुछ खोज भाळ करके ऐसे प्रमाण विद्वानोंके सामने प्रकट करें जिनसे जैनधर्मकी प्राचीनता सर्व सामान्य तर्क प्रणालीसे प्रस्थापित हो। और उसके द्वारा भारतीय आर्य संस्कृतिका प्राचीनत्व सुदृढ हो।।
भारतीय संस्कृतिकी और पानात्य विद्वान बहुत साशंकतासे देखते थे और देखते हैं। किन्तु संस्कृत साहित्य और विशेषतः वैदिक वाङमय के प्रकाशन, परीक्षण और तुरुनात्मक अभ्यास से बंद साशंकता बहुत कुछ कमती होती जा रही है । और भारतीय संस्कृतिको स्वयंपूर्ण मौलिकता तथा प्राचीमता प्रस्थापित हो रही है। इस छोटेसे लेन द्वारा यही बताना चाहता हूं को जैन पंडित इस कार्य में पूर्ण सहकार कर के यशके अधिकारी हो सकते हैं।
_ 'वेदाङ्ग ज्योतिष' नामका एक छोटासा ज्योतिष ग्रंथ विद्यमान संस्कृत ज्योतिष ग्रंथों में प्राचीनतम समझा जाता है। उसकी भाषा प्राचीन संकेतमय
और समझनेको इतनी फ्लिष्ट है की इ. स. १८७७ से आजतक इस ३५-४० श्लोकवाले छोटेसे ग्रंथका, डॉक्टर थीबो, महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी, ज्यो. श. बा. दीक्षित, लो. टिलक इत्यादि विद्वानों के अनेकानेक प्रयत्नों पर भी संपूर्णतः अर्थ नहीं लग सका। किंतु आजतक अशक्यप्राय: समझा गया यह चमत्कारस्वरूप कार्य महामहोपाध्याय डॉ. शाम शास्त्री (मैसोर) ने सरलतासे कर डाला और धो भी जैन ज्योतिष ग्रंथों की सहायतासे । सूर्यप्रज्ञप्ति ज्योतिषकरंडक और काललोकप्रकाश यह वे तीन जैन ग्रंथ हैं। डॉ. महाशयके ध्यानभै यह आया की वेदांग ज्योतिषकी पद्धति और उपर्युक्त जैन ज्योतिषग्रंथोंकी पद्धतिमें स्पष्ट साम्य है और वेदांग ज्योतिषके. जो जो श्लोक आज तक दुर्बोध समझकर भूतपूर्व विद्वानोने छोड दिये थे वे इन जैन ग्रंथोंकी सहायतासे सुगम और सुसंगत ही नहीं किंतु अर्थपूर्ण प्रतीत होते हैं। इस तरह से अगम्य वेदाङ्ग ज्योतिषको संपूर्ण तथा सुगम वारनेवाले प्रथम संशोधक, ऐसा डॉ. शामशास्त्रीका सुविख्यात नाम जैन ग्रंथोंकी सहायतासे ही हुआ है।
इस उपयुक्त वेदाङ्ग ज्योतिषके संपादन कार्य में एक छोटीसी विसंगतता ज्योतिष करंडकके श्लोक २८८ के विषय में हो गई है।
“ उक्तं चैतत ज्योतिष करंडे ( प. १९६ पद्य २८८)लग्गं च दक्षिणायनविसुवेसु वि अस्स उत्तरं अयणे ।
लग्ग साई विसुवेसु पञ्चसुवि दक्षिण अयणे ॥ २२८ ॥ छाया-लग्नं च दक्षिणायन विषुवेषु अपि अश्वे उत्तरमयणे ।
लग्नं स्वाति विएवेषु पञ्चस्वपि दक्षिणायने ।।
दक्षिणायनगतेषु पञ्चस्वपि विपुवेषु अश्वे अश्विनी नक्षत्रे लक्षं भवति ।" इत्यादि । वेदाङ्ग ज्योतिष पृष्ठ ५०
इस श्लोककी छाया और टीका मलयगिरिकृत है और उसका अंग्रजी अनुवाद डॉ. शामशास्त्रीने ऐसा किया है ।
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