Book Title: Jain_Satyaprakash 1941 07
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
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(૧૮) ઇગવીસ સ્થાન પ્રકરણ ૫. ૯, આ ગ્રંથ મારા સંગ્રહમાં છે.
संवत १७६७ वर्ष मार्गशीर्ष बलेतरे पले चतुर्दशी, कर्मवाप्यां लिखितेयं पुस्तिका पं. खेतसीगणिना श्रीफलवद्धिनगरीमध्ये ॥
(૧૯) વૈરાગ્યશતક બો પત્ર ૨૬, આ સંથે નાગપુરના જ્ઞાનકાંડારમાં છે.
संवत १७८८ वर्ष शाके १६५३ प्रवर्तमाने आषाढ मासे कृष्णनवम्यां मेदपाटदेशे पाहूनानगरे चातुर्मासीस्थितां पंडितप्रवर श्रीदुर्गादासजी तत् शिष्य जगरूपमुनिना लिपीकृता स्वज्ञानवृध्ध्यर्थ ॥
(૨૦) તિહુઅણ બો પત્ર ૧૧, આ ગ્રંથ નાગપુર જ્ઞાન લાંડારમાં છે.
संवत १७९१ कार्ति सुदि. ६ रात्री श्री वीकपुर (बीकानेर) मध्ये लि. पं. रुघनाथ ॥
(૧) વિપાકસુત્ર બો પત્ર ૭૩, આ ગ્રંથ નાગપુર જ્ઞાનભંડારમાં છે.
संघत १७९९ वर्ष शाके १६६४ प्रवर्तमाने मिति मिगसिर सुद २ दिने गुरुवासरे श्रीविकानेरनगरमध्ये पं. जसवंत लिपीकृतं श्रीरस्तु ।
પંડિત જસવંત નાગપુરના અનેક પુસ્તકોના લેખકોમાંના એક છે. આ રીતે અહીં ૨૧ ટબાઓની પુપિકાઓ આપવામાં આવી છે. આ ઉપરાંત બીજી પુપિકાઓ મળી આવશે તે હવે પછી યથાવકાશ આપવામાં આવશે.
ऐतिहासिक दृष्टीसे प्राचीन जैन वाङ्मयका महत्त्व
और
उसके संशोधनको आवश्यकता लेखक-श्रीयुत भा. रं. कुलकर्णी बी. ए., शिरपुर, (प. खानदेश)
जैनधर्म के प्राचीन साहित्यकी ओर जैनेतर विद्वानोंका ध्यान बहुत धीरे धीरे खींचा जा रहा है । पौर्वात्य और पाश्चात्य विद्वानोंने जितने परिश्रम पूर्वक बौद्ध धर्मका अभ्यास और आलोचन किया है उससे कई गुना कमती अभ्यास जैन साहित्य का किया है। कालानुक्रमसे जैनधर्मका बौद्धधर्मसे ज्येष्टत्व विद्वानों में संमत हो चुका है, फिर भी भारतीय पाटशालाओं में पढाये जानेवाले अनेक पाठ्य पुस्तकों में इस विषय में विपरीत विधान पाये जाते हैं । जैनधर्म यह सनातन धर्म है ऐमा भी दावा किया जाता है, किन्तु श्रद्धाके एक मात्र सहारे पर इस प्रकार का दावा अन्य धर्मीयों के मुकाबलेमें कैसे हो ता है ? आज कल के भौतिक विज्ञानमय और बुद्धिप्रधान जगतमें सना व्यवहार्य अर्थ प्राचीनतम ही हो सकता है इस लिये जैन पंडितोंकों जैनधर्म यह बौद्धधर्मसे अर्वाचीन है और महावीर स्वामी ने जैनम किया ऐसे विधान अनेक पाठ्यपुस्तकों में पाये जाते है।
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