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શ્રી જન સત્ય પ્રકાશ
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३ श्री जिनभद्रसूरिजी देवलपुर के साह धीणिग के पुत्र थे, उनकी माता का नाम खेतल देवी था ।
४ उस समय मेवाडका राणा लाखा (राज्यकाल १४३९ से १४७५) राज्य करता था। ५ सुश्रावक साह नाल्हिग का भी कविने अच्छा वर्णन किया है।
रासकार कवि समयप्रभ गणि ने रास के अन्त में अपना नाम लिखने के अतिरिक्त अपना विशेष परिचय नहीं दिया है, इससे जब तक कोई दूसरा प्रमाण या कृति न मिल जाय, यह बतलाना कठिन है कि ये भी सूरीश्वर के पट्टाभिषेक के समय विद्यमान होंगे।
श्री जिनभद्रसरिजीने अपने जीवन में बहुत से महत्त्वपूर्ण कार्य, शासन प्रभावनाए की। बहुतसे जिनालयों और हजारों जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की, जिनमें सेंकडो प्रतिमाएं लेख सहित अब भी विद्यमान हैं। ज्ञानभंडार स्थापित करना तो इनके जीवन की मुक्य कृति है। उन ग्रन्थों की प्रशस्तियों से इनके विषय में बहुत कुछ लिखा जा सकता है। इनके सुश्रावस मण्डन और धनदराज जैसे विद्वान और समृद्धिशाली श्रावक थे।
आचार्यश्री की कृतियों में १ जिन सत्तरी प्रकरण (गा. २२०) २ द्वादशांगी प्रमाण कुलक (गा २१) और २-३ स्तवनादि उपलब्ध हैं।
पालणपुर के पुरातत्त्वरसिक शाह नाथालाल छगनलाल के पास श्रीजिनभद्रसूरिजी की एक कपडे की चद्दर थी जिसे उन्होंने लन्दन के म्यूजियम को प्रदान करदी थी उस पर भी एक लेख लिखा हुआ है।
मैं आगे यह लिख चुका हूं कि जिस प्रतिमें यह रास है वह संग्रह प्रति है। उस प्रति की पूर्ण पत्रसंख्या १२५ थी जिनमें इस समय ८१, ८८, ९४ और १११ से १२५ तक पूर्ण है । पत्रांक १११ से ३ पत्रों में यह रास है। प्रति सुन्दर अक्षरों में लिखी हुई है। प्रत्येक पत्र में ११ पंक्तियां
और प्रत्येक पंक्ति में लगभग ४० अक्षर हैं । कागज गल गए, दीमक ने धावा बोल दिया किन्तु फिर भी जितना अंश प्राप्त है प्रायः अक्षर विशेष नष्ट नहीं हुए । पुस्तक के अन्तिम पुष्पिका लेख से ज्ञात होता है कि यह प्रति खंभात की श्राविका अमरा देवी को स्वाध्याय-पुस्तिका थी पुष्पिका लेख :- " संवत् १५४९ वर्षे ॥ भाद्रपद शुदि ८ शुक्रे ॥ श्री खरतरगच्छे । श्री जिनभद्रसूरि श्री जिनचन्द्रसूरि । पट्टालंकार । श्री जिनसमुद्रसूरि विजय
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