Book Title: Jain Satyaprakash 1938 03 SrNo 32
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 37
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जिनभद्रसूरि रास-सार लेखकः-श्रीयुत अगरचदजी भंवरलालजी नाहटा बीकानेर जगत्प्रसिद्ध जैनाचार्य श्रीजिनभद्रसूरिजी विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी में एक प्रतिमाशाली विद्वान और जैन साहित्य के रक्षक अग्रगण्य आचार्य थे। उन्होंने जैसलमेर, जालौर, देवगिरि, नागौर पाटण, माण्डवगढ, आशापल्ली, कर्णावती, खंभात आदि स्थानोंमें हजारोंमें प्राचीन और नवीन ग्रन्थों के भण्डार स्थापन कर संसार को चिरकृतज्ञ बना लिया। उनका विशेष परिचय प्रात करने के लिए ' विज्ञप्तित्रिवेनी और खरतर गच्छ पट्टावली' आदि ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए । “ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह " का सम्पादन करते समय इन महापुरुष के गुणवर्णनात्मक एक भी काव्य का उपलब्ध न होना विशेषरूप से खटकता था, किन्तु वह अभिलाषा थोडे ही समय में कुछ अंशों में पूर्ण हुई । जयपुर के श्री पूज्यश्री श्री जिनधरणेद्रसूरिजी के संग्रह का अवलोकन करते हुए मुझे एक ऐसी संग्रह प्रति का कुछ अंश मिला जिसमें प्रस्तुत " श्री जिनभद्रसूरि पट्टाभिषेक रास " सुरक्षित मिला। दुर्भाग्यवश आदि की ३॥ गाथा से कुछ अधिक त्रुटक रह गया है, परन्तु उस प्राचीन पद्धति की सराहना करनी पडेगी कि जिसके कारण रास त्रुटक होने पर भी “वस्तु छंद” के कारण सम्बन्ध पूरा मिल गया क्योंकि" वस्तुछंद पूर्वकी ढाल में कही हुई बात को संक्षेप में दुहरात है। यह रास ४५ गाथाओं में हैं, जिनमें प्रारम्भ की ७ गाथाएं ढाल में ८ वीं वस्तु छंद, १२ तक ढाल, १३ वीं वस्तु छंद, १९ तक अढैया ढाल, २० वीं वस्तु छंद, २४ तक ढाल भास, २९ वीं वस्तु छंद, ३६ तक ढाल, ३७ वो वस्तु छंद, और अन्तमें ४५ गाथाओं तक भास में रास समाप्त होता है। यद्यपि यह ई पट्टाभिषेकरास होने से सूरीश्वर की महत्त्व पूर्ण जीवनी का इतिहास इसमें नहीं मिलता है, फिर भी पहले का वर्णन भी महत्त्व से खाली नहीं हैं । ढालें और भाषा प्राचीन सुन्दर वर्णन शैली और गुरुभक्ति से ओत प्रोत हैं । समकालीन होने के कारण प्रामाणिक और विश्वसनीय भी हैं। कुछ महत्त्व की वातें जो इस लघु रास से मालुम होती हैं, यहाँ लिखता हूं। १ उपाध्यायजी श्री क्षमाकल्याणजी आदि की पट्टावलियों में श्रीजीन भद्रसूरिजी का गोत्र भणसाली लिखा है किन्तु इससे छाजहड प्रमाणित है। - २ उपाध्यायजी ने मूल नाम भादो लिखा है, किन्तु इससे “रामण कुमार और दीक्षा के पश्चात् “कीर्तिसागर मुनि” नाम होना सिद्ध है। For Private And Personal Use Only

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