Book Title: Jain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 12
________________ 6 भावसंग्रह में भी भद्रबाहु के दक्षिण देश जाने का कोई उल्लेख नहीं है। बृहत्कथाकोश आदि में उनके शिष्य विशाखाचार्य के दक्षिण देश में जाने का उल्लेख है, “किन्तु स्वयं उनका नहीं। उनके स्वयं दक्षिण देश में जाने के जो उल्लेख मिलते हैं, वे रामचंद्र मुमुक्षु के पुण्यास्त्रवकथाकोश" (12वीं शती), रइधू के भद्रबाहुकथानक " ( 15वीं शती) और रत्ननंदी के भद्रबाहुचरित्र " ( 16वीं शती) के हैं। इनमें भी जहाँ पुण्यास्त्रवकथाकोश में उनके मगध से दक्षिण जाने का उल्लेख है, वही रत्ननंदी के भद्रबाहुचरित्र में अवंतिका से दक्षिण जाने का उल्लेख है। इन विप्रतिपत्तियों को देखते हुए ऐसा लगता है कि कथानक 10वीं से 16वीं शती के मध्य रचित होने से पर्याप्त रूप से परवर्ती हैं और अनुश्रुतियों या लेखक की निजी कल्पना पर आधारित होने से काल्पनिक ही अधिक लगते हैं । यद्यपि डॉ. राजरामजी ने इसका समाधान करते हुए यह लिखा है कि ‘यह बहुत संभव है कि आचार्य भद्रबाहु अपने विहार में मगध से दुष्काल प्रारंभ होने के कुछ दिन पूर्व चले हों और उच्छकल्प ( वर्त्तमान- उचेहरा, जो उच्चैर्नागर शाखा का उत्पत्ति स्थल भी है) होते हुए उज्जयिनी और फिर वहाँ से दक्षिण की ओर स्वयं गये हों, या स्वयं वहाँ रुककर अपने साधु-संतों को दक्षिण की ओर जाने 18 का आदेश दिया हो, " किन्तु मेरी दृष्टि में जब मगध से पूर्वी समुद्रीतट से ताम्रलिप्ति होते हुए दक्षिण जाने का सीधा मार्ग था, तो फिर दुष्कालयुक्त मध्य देश में उज्जयिनी होकर दक्षिण जाने का क्या औचित्य था ? यह समझ में नहीं आता । मेरी दृष्टि में इन कथानकों में संभावित सत्य यही है कि चाहे दुष्काल क परिस्थिति में भद्रबाहु ने अपने मुनि संघ को दक्षिण में भेजा हो, किन्तु वे स्वयं तो मगध में या नेपाल की तराई में ही स्थित रहे, क्योंकि वहाँ उनकी ध्यान साधना के जो निर्देश 19 20 हैं, वे तित्थोगाली " (लगभग 5वीं शती) और चूर्णि साहित्य " (लगभग 7वीं शती) होने से इन कथानकों की अपेक्षा न केवल प्राचीन हैं, अपितु प्रामाणिक भी लगते हैं। पुनः, ध्यान साधना का यह उल्लेख बारह वर्षीय दुष्काल के पश्चात् पाटलिपुत्र की स्थूलभद्र की वाचना के समय का है, अतः श्रुतकेवली भद्रबाहु के दक्षिण जाने के उल्लेख प्रामाणिक नहीं हैं। इसमें सत्यांश केवल इतना ही प्रतीत होता है कि भद्रबाहु तो अपनी वृद्धावस्था के कारण उत्तर भारत के मगध एवं तराई प्रदेश में स्थित रहे, किन्तु उन्होंने अपने शिष्य परिवार को अवश्य दक्षिण में भेजा था । निर्ग्रन्थ मुनिसंघ की लंका एवं तमिल प्रदेश में ई. पू. में उपस्थिति के

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