Book Title: Jain Mantra Shastro-ki Parampara aur Swarup Author(s): Sohanlal G Daiwot Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 7
________________ ३८० कर्मयोगी भी केवल जी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड जाप विधि फलादिकं च पार्श्वनाथानीय केशि गणधर मन्त्रः कोट्शादिविचारः महत्वादिमन्त्र चतुष्क विचारः, सूरिमन्त्राभिधान कारणं तदधिकारी व मुद्रा विचार विद्या प्रस्थान पीठ स्वरूपम् '' आदि बीज वय प्रयोग विचारः, एकोनचत्वारित्पदात्मक मरिमन्त्रविचार:, तयोदशलब्धि पद-सप्तमेरु युत सूरिमन्त्रविचारः, द्वात्रिंशंल्लब्धि पद्या चतुर्विंशति लब्धि पद्या च युक्तस्य षट् प्रस्थानमयस्य सूरिमन्त्रस्य विचारः, षोडशस्तुतिपदयुक्तस्य षटप्रस्थानमयस्य सूरिमन्त्रस्यविचारः, योदश मेरुयुक्तस्य सूरिमन्त्र विचारः ह्रीं हारविवार मन्त्रराजमान विवारः, द्वादशदि त्रयोदशमेहयुक्तस्य सूरिमन्त्रस्य विचारः, षोडशस्तुतिपदषण्मेरुकूटाक्षर युक्तस्य सूरिमन्त्रस्य विचारः । ॐकारस्य ह्रींकारस्य ग्रहादिशान्तिकस्य च विचार, मायाबीज विचार, अहंकार रहस्यम्, देहस्वस्य आधार चक्रादिपीठ चतुष्कस्य विचारः, जापमाहात्म्यम् बनलेवन प्रकारः, षोडश लब्धिपद षण्मेरुयुक्तस्य सूरिमन्त्रस्य विवारः, द्वादशलब्धि पद युक्त पंच मे वाचनायां विशेष:, उपविद्यामेरुरहित सूरिमन्त्रविचार:, शान्तिक विचारस्तद्विधिश्च स्तम्भादिविचारः सूरिमन्त्र महिमादिविचारः सूरिमन्त्रनित्य पूजन विधिः, षोडशलब्धिपद, त्रयोदशमेरुसहित सूरिमन्त्रस्य वाचनान्तरम् अक्ष विचारः वासक्षेप मुद्रादि विचार: आशिर्वचन पूर्वं ग्रन्थकारकृताग्रन्थ समाप्तिः । विद्यानुवाद यह विविध मन्त्र एवं तन्त्र की संग्रहात्मक कृति है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति सरस्वती दि० जैन मन्दिर, इन्दौर में विद्यमान है। इस कृति में कहीं भी संग्रहकर्ता अथवा धन्यकर्ता का नाम नहीं दिया गया है। पं० श्री चन्द्रशेखर शास्त्री ने इसे मुनि कुमारसेन द्वारा संग्रहीत बताया है। इसमें निम्न २३ परिच्छेद १. मन्त्री २. विधिमन्त्र, ३. लक्ष्म, ४. सर्व परिभाष, ५. सामान्य मन्त्र साधन, ६. सामान्य यन्त्र, ७. गर्भोपत्ति विधान, ८. बाल चिकित्सा, ६. ग्रहोपसंग्रह १०. विषहरण ११. फणितन्त्र मण्डल्याच १२. पनयोजनं १३-१४-१५ कृते सम्बधोवधः १६. विधान उच्चाटन, १७. विद्वेष, १८. स्तम्भन १२. शान्ति २०. पुष्टि, २१. वयं २२. आकर्षण, २३. नम्मे आदि । प्रतिष्ठातिलक १८ परिच्छेद एवं अन्त में परिशिष्ट प्रकरण परिमाण यह कृति दिगम्बर जैनाचार्य श्री नेमीचन्द ने १३वीं सदी ईस्वी के लगभग रची है। दोनी मखाराम नेमवन्द सोनापुर से यह प्रकाशित है। यह एक तरह से मन्त्र-यन्त्रों का सागर है। इसमें निम्न यन्त्र अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं महाशान्तिजयन्त्र यांतिक यन्त्र जलयन्त्र महायान निर्वाणकल्याण यन्त्र, वश्ययन्त्र मण्डल यन्त्र, लघुज्ञान्तिक यन्त्र, मृत्युंजययन्त्र विचक्रपन्न, पीठयन्त्र सारस्वतयन्त्र शान्तियन्त्र स्तम्भनयन्त्र, आसनपदवास्तुयन्त्र जलाधिवासनयन्त्र, गन्धयन्त्र, अग्निश्य होमयन्त्र, अन्निजय द्वितीय , प्रकार यन्त्र, अग्नित्रय होम मण्डप यन्त्र, उपपीठपद वास्तु यन्त्र, परम सामायिक पद वास्तुयन्त्र, उग्रपीठ पद वास्तु यन्त्र, नवग्रह होम कुण्ड मण्डल, स्थंडिलपद वास्तु यन्त्र, मंडुकपद वास्तु यन्त्र आदि । श्रीसूरिमन्त्रबृहत् कल्प विवरण इस कृति को श्री जिनप्रभसूरि ने १३०८ ईसवी के आसपास रचा है। इसमें ये प्रमुख प्रकरण हैं(१) विद्यापीठ (२) विद्या (३) उपविद्या (४) मन्त्रपीठ (५) मम्वराज । (१) विद्यापीठ ( मानदेवी वाचनानुगता) द्वादशपदी (धर्मपोषान्नायानुगता) गयोदम पदी ( पट लेख्या) अष्टादशपदी, चतुर्विंशतिपदी, अष्टपदी (दिगम्बराम्नायानुगता ) षोडशपदी (जिन प्रभूसूरि पूर्व परम्परागता ) अष्टी विद्याः तासांजपविधिः फलं च, अशिकेपशमिनी द्वात्रिंशत्स्तुतिपदी, अप्रस्तुता अपि केचन मन्त्रा अत्यन्तयोप्यानि आनायान्तराणि लब्धि पद प्रभावश्च शल्योद्धारनिर्णय विद्या प्रथम पीठ विवरण समाप्तिश्च । Jain Education International १. भैरवपद्मावती कल्प, भूमिका, पृ० ७८ २. सं० मुनि जम्बूविजयजी, सूरिमन्त्र कल्प समुच्चय, भाग १, पृ० ७७-१०६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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