Book Title: Jain Mantra Shastro-ki Parampara aur Swarup
Author(s): Sohanlal G Daiwot
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 10
________________ जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप ३८३ ................................................................ ... . .... नन्दि मुनीद्र द्वारा विरचित है। इसका मूलमन्त्र “ॐ ह्रां हि ह ह ह ह ह्रीं ह्रः अ सि आ उ सा सम्यग्-दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो ह्रीं नम: ।" उपर्युक्त मन्त्र की साधना से आधि-व्याधि, दुःख, दारिद्रय, शोक-सन्ताप आदि का नाश होता है तथा हर प्रकार की सुख सामग्री का प्रादुर्भाव होता है जैसे : रणे राजकुले वह्नौ जले दुर्गे गजै हरौ । श्मशाने विपिने घोरे स्मृतो रक्षति मानवं ॥५६॥ राज्यभ्रष्टानिजं राज्यं पदभ्रष्टा निजपदां लक्ष्मीभ्रष्टा निजा लक्ष्मी प्राप्नुवंति न संशय ॥६०॥ भार्यार्थी लभते भायां पुत्रार्थी लभते सुतं । धनार्थी लभते वित्त नरः स्मरणमात्रतः ॥६१॥ स्वर्णे रूप्येऽथवा कांस्येलिखित्वा यस्तु पूजयेते । तस्यै वेष्ट महासिद्धिाहे वसति शाश्वती ॥२॥ ब्र० श्रीलाल जैन ने इसका सम्पादन कर प्रकाशित करवाया है। अनुभवसिद्ध मन्त्र द्वात्रिशिका : इस कृति की रचना भद्रगुप्ताचार्य ने की है। इसमें पांच अधिकार हैं। पहले अधिकार में (१) सर्वज्ञाभमन्त्र: "ॐ श्री ह्रीं अहं नमः" २) सर्वकर्मकरयन्त्र "ॐ ह्रीं श्रीं अहं नम: ।" उपर्युक्त दोनों मन्त्रों के ध्यान विषय में बताया है कि : पीतस्तम्भेऽरुणंवश्ये क्षोभणे विद्रुम प्रभम् । कृष्णं विद्वषणे ध्यायेत् कर्मघाते शशि प्रभम् ।। द्वादश सहस्रजापो दशांश होमेन सिद्धिमुपयाति । मन्त्री गुरुप्रसादाद्ज्ञातव्यस्त्रिभुवने सारः ।। द्वितीय अधिकार में वशीकरण एवं आकर्षण मन्त्रों का वर्णन किया है। तृतीय अधिकार में स्तम्भन, स्तोत्र आदि मन्त्रों का वर्णन है। "ॐ ह्रीं देवी " कुरु कुल्ले अमुकं कुरु स्वाहा।" इस मन्त्र का हर प्रकार की बीमारी, विष आदि पर प्रयोग होता है। चौथे अधिकार में शुभ-अशुभसूचक सुन्दर और तुरन्त अनुभव करवाने वाले आठ मन्त्रों का समावेश किया गया है। पाँचवें अधिकार में गुरु-शिष्य के योग्यायोग्य का निरूपण किया गया है, जिससे दोनों का कल्याण हो सके। इसे पण्डित अम्बालाल प्रेमचन्द शाह ने सम्पादित कर प्रकाशित करवाया है। सूरिमन्त्र कल्प यह कृति अज्ञात सूरि द्वारा रचित है। इसमें निम्न प्रकरण हैं-प्रथम वाचना, द्वितीय वाचना, ध्यान विधि साधनविधि, तृतीय वाचना- (अक्षर स्थापना) सूरिमन्त्र गभित विद्या प्रस्थान पट विधिः, मन्त्रशुद्धि, तपोविधिः, अधिष्ठायकस्तुतिः एवं सूरिमन्न पद संख्या । सूरिमन्त्र संग्रह यह कृति अज्ञात कर्तृक है। इसमें निम्न पीठों का वर्णन किया है। प्रथम विद्यापीठ, द्वितीय महाविद्या पीठ, तृतीय उपविद्या पीठ, चतुर्य मन्त्रपीठ, पंचम मन्त्रराजप्रस्थान । चिन्तामणि पाठ इस कृति का रचनाकाल एवं कर्ता का परिचय अज्ञात है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ का स्तोत्र एवं पूजा, १. सं० मुनि जम्बूविजयजी, सूरिमन्त्र कल्पसमुच्चय, भाग २, पृ० १०६-१६५. २. वही, पृ० सं० २३१-२३५, ५८. ३. लेखक के संग्रहालय में सुरक्षित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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