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जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप 0 श्री सोहनलाल गौ० देवोत [व्याख्याता-राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय लोहारिया, जिला बासंवाड़ा (राज.)]
शब्द की शक्ति पर विचार करने पर हमारा ध्यान भारतीय मन्त्रशास्त्र पर जाता है। हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थ मन्त्रों की महिमा से भरे पड़े हैं किन्तु हमारे यहाँ अनेक लोगों में यह भ्रम फैला हुआ है कि यह भाग अन्धविश्वास के अलावा कुछ नहीं है तथा बहुत से व्यक्ति इस साहित्य को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। जिस प्रकार पाश्चात्य वैज्ञानिक एवं विद्वान विज्ञान की सभी शाखाओं की खोज कर रहे हैं और वास्तविकता का पता लगाने के लिए तन, मन, धन सब कुछ अर्पण कर रहे हैं। उसी प्रकार हमारे यहाँ भी शब्द-विज्ञान और उसके अन्तर्गत मन्त्र-विज्ञान की अगर खोज की जाती तो सैकड़ों आश्चर्यजनक तथ्य प्रकाश में आते, जिससे हमारा व्यक्तिगत कल्याण तो होता ही, साथ ही भारतीय संस्कृति एवं साहित्य की एक धारा का स्वरूप भी प्रकाशित होता।
___ जब हम मन्त्र शब्द के अर्थ पर विचार करते हैं तो कुछ ऋषि-मुनियों एवं विद्वानों द्वारा बताये गये अर्थ को समझना पर्याप्त होगा। यास्क मुनि ने कहा है कि "मन्त्रो मननात्", मन्त्र शब्द का प्रयोग मनन के कारण हुआ है। अर्थात् जो पद या वाक्य बार-बार मनन करने योग्य होता है, उसे मन्त्र कहा जाता है। वेदवाक्य बार-वार मनन करने योग्य होने से वे पद एवं वाक्य मन्त्र कहलाये । जैन धर्म के पंचमंगल सूत्र ने इसी कारण महामन्त्र (णमोकार) का उच्च स्थान प्राप्त किया। बौद्ध धर्म की त्रिशरण पद-रचना भी इसी दृष्टि से उत्कृष्ट मन्त्र के रूप में जानी जाती है। अभयदेव सूरि ने पंचाशक नामक ग्रंथ की टीका में बताया है कि “मन्त्रो देवाधिष्ठितोऽसावक्षर रचना विशेषः ।" "देव से अधिष्ठित विशिष्ट अक्षरों की रचना मन्त्र कहलाता है।" पंचकल्पभाष्य नामक जैन ग्रन्थ में बताया है कि 'मतोपुण होई पठियसिद्धो-जो पाठ सिद्ध हो वह मन्त्र कहलाता है। दिगम्बर जैनाचार्य श्री समन्तभद्र ने मन्त्र व्याकरण में कहा है कि 'मन्त्रयन्ते गुप्तं भाष्यन्ते मन्त्रविद्भिरिति मन्त्राः।" जो मन्त्रविदों द्वारा गुप्त रूप से बोला जाय उसे मन्त्र जानना चाहिए।
मन्त्र-तन्त्र ग्रन्थों की विषयगत व्यापकता दर्शनीय है । इन ग्रन्थों का दार्शनिक दृष्टि से अनुशीलन करने पर तीन प्रकार के विमर्श प्रतीत होते हैं-१-द्वत-विमर्श, २-अद्वैत-विमर्श, ३-द्वैताद्वैत-विमर्श । 'देवता-भेद से भी उसके अनेक भेद हैं। जिनमें प्रमुख भेद (१) वैष्णव तन्त्र (२) शैव तन्त्र (३) शाक्त तन्त्र (४) गाणपत्य तन्त्र (५) बौद्धतन्त्र (६) जैन तन्त्र आदि हैं । भेदोपभेद की दृष्टि से उपरोक्त तन्त्रों की अनेक शाखाएँ हैं।
जैन मन्त्र-शास्त्रों की परम्परा-भारतीय मन्त्र-शास्त्र की इस विशाल परम्परा में अन्य सम्प्रदायों की तरह जैन सम्प्रदाय में भी मन्त्रों से सम्बन्धित शास्त्र प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। जैन मन्त्र-शास्त्र कीप रम्परा अनादि है। जैन धर्म का मूल मन्त्र णमोकार मन्त्र भी एक मन्त्र ही है जो अनादि काल से चला आ रहा है, इस महामन्त्र के सम्बन्ध में यह प्रलोक प्रसिद्ध है
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जैन मन्त्र-शास्त्रों को परम्परा भौर स्वरूप
अनादि मूलमन्त्रोऽयं, सर्वविघ्नविनाशनः ।
मंगलेषु च सर्वेषु, प्रथमं मंगलं मत: ॥' जिसकी प्राचीनता अनिर्वचनीय है । द्वादशांगवाणा के बारह अंग और चौदह पूर्वो में से विद्यानुवाद पूर्व यन्त्र, मंत्र तथा तन्त्रों का सबसे बड़ा संग्रह है। उसमें ५०० महाविद्याएँ एवं ७०० विद्याएँ परम्परानुसार मौखिक रूप से चली आ रही थीं। अवसर्पिणीकाल की दृष्टि से आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जैन तन्त्र के मूल प्रवर्तक माने जाते हैं। ऋषभदेव को नागराज ने आकाशगामिनी विद्या दी थी । इसी प्रकार गन्धर्व और पन्नगों को नागराज ने ४८ हजार विद्याएँ दी थीं। उसका वर्णन वसुदेव हिण्डी के चौथे लम्भक में प्राप्त होता है। किन्तु काल-प्रभाव, उत्तम संहनन एवं कठोर तपश्चर्या के अभाव में वे काल कवलित होती गई। दूसरी शताब्दी से आचार्यों ने उन्हें लेखनीबद्ध करना प्रारम्भ किया। उस साहित्य में से जो मन्त्र साहित्य हमें उपलब्ध होता है, उसका वर्णन निम्नानुसार है।
उबसग्गहर स्तोत्र पाँच श्लोक परिमाण यह कृति आचार्य भद्रबाहु ने ४५६ ईसवी पूर्व रची है। यह स्तोत्र पार्श्वनाथ की भक्ति से सम्बन्धित है । इसका प्रत्येक श्लोक मन्त्र-यन्त्र गभित है । इस पर कई विद्वानों ने यन्त्र-मन्त्र सहित टीकाएँ लिखी हैं । जैन मन्त्र साहित्य में यह रचना अपना विशिष्ट स्थान रखती है।
स्वयंभूस्तोत्र १४३ श्लोक परिमाण यह कृति दिगम्बर जैनाचार्य श्री समन्तभद्र ने २री शती ईसवी में रची है। इसमें चतुर्विशति तीर्थकरों की स्तुति है। स्तुति के प्रथम श्लोक में स्वयं पद आजाने से इस चतुर्विशति स्तोत्र को स्वयंभू स्तोत्र की संज्ञा दे दी गई है । स्तुतिकारों में सबसे पहले स्तुतिकार समन्तभद्र आचार्य हुए हैं। यह स्तोत्र मन्त्रपूत अथवा मान्त्रिक शक्ति से युक्त माना जाता है। अभी तक इस स्तोत्र पर ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र सहित कोई टीका देखने में नहीं आयी है।
प्रतिष्ठा पाठ ६२६ श्लोक परिमाण यह कृति दिगम्बर जैनाचार्य जयसेन आर नाम वसुबिन्दु ने २री शती ईसवी में रची है। इसमें मन्त्रों की सुन्दर संरचना की गई है।
भक्तामर स्तोत्र ४८ श्लोक परिमाण यह कृति श्री मानतुंगाचार्य ने ७वीं शती ईसवी में रची है। स्तुतिकार अपने स्तोत्र का प्रारम्भ भक्त शब्द से करते हैं-भक्तामर प्रणत मौलिमणिप्रभाणाम् । अतः इस स्तोत्र का नामकरण भक्तामर स्तोत्र हुआ। इस स्तोत्र ने अनेक साधकों को अनेक चमत्कार बताये हैं। इसका प्रत्येक श्लोक ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र से गभित है। इस स्तोत्र पर कई विद्वानों ने ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र सहित टीकाएँ लिखी हैं। मन्त्र-शास्त्र की दृष्टि से यह कृति जनसाधारण में सर्वाधिक प्रिय एवं प्रचलित रही है।
विषापहार स्त्रोत ४० श्लोक परिमाण यह कृति महाकवि धनंजय ने ७वीं शती ई० में रची है। इस स्तोत्र का प्रत्येक प्रलोक
१. डॉ० नेमीचन्द शास्त्री, मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन, पृष्ठ ६३ २. भमृतलाल कालिदास दोसी, उवसग्गहर स्तोत्र, स्वाध्याय, पृष्ठ २ ३. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, धर्मध्यान दीपक, पृष्ठ ५ ४. सेठ हीराचन्द नेमचन्द दोसी, सोलापुर द्वारा १९२६ ई० में प्रकाशित ५. सं० पण्डित कमलकुमार शास्त्री, श्री कुथुसागर स्वाध्याय सदन, खुरई, मध्य प्रदेश द्वारा १९५४ ई० में प्रकाशित ।
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिमन्धन प्रस्थ : पंचम खण्ड
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ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र से गभित है। विद्वानों ने इस पर ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र सहित कई टीकाएँ लिखी हैं । मन्त्र-शास्त्र की दृष्टि से यह रचना भी अपना विशिष्ट स्थान रखती है। ज्वालामालिनी कल्प
मुनिराज इन्द्रनन्दि द्वारा इस ग्रन्थ की रचना की परिसमाप्ति मान्यखेट में (वर्तमान मालखेड यह राष्ट्रकट राजाओं की राजधानी थी), शक संवत् ८६१ (ईसवी ६३६) में अक्षय तृतीया के दिन की गई।' यह मन्त्रशास्त्र का अपूर्व ग्रन्थ है । इसमें नौ परिच्छेद है।
प्रथम परिच्छेद में मन्त्री लक्षण । द्वितीय परिच्छेद में दिव्यादिव्यग्रह । तृतीया परिच्छेद में सकलीकरण, ग्रहनिग्रह विधान, बीजाक्षर ज्ञान का महत्त्व, पल्लवों का वर्णन, साधारण विधि। चतुर्थ परिच्छेद में सामान्य मण्डल, सर्वतोभद्रमण्डल, अष्ट दण्डकरी देवियां, सोलह प्रतिहार, समयमण्डल, सत्य मण्डल। पंचम परिच्छेद में भूताकंपन तेल । षष्ठ परिच्छेद में सर्वरक्षायन्त्र, ग्रहरक्षक, पुत्रदायक यन्त्र, वश्य यन्त्र, मोहन वश्य यन्त्र, स्त्रीआकर्षण यन्त्र, गतिसेना क्रोध स्तम्भन यन्त्र, स्तम्भन यन्त्र, पुरुषवश्य यन्त्र, शाकिनी भयहरण यन्त्र, सर्वविघ्नहरण मन्त्र, आकर्षण, वश्य हवन । सप्तम परिच्छेद में (तन्त्राधिकार) नाना प्रकार के वशीकरण तिलक, नाना प्रकार के सुखदायक अजन, वश्यनमक व तेल, सन्तानदायक औषधि । अष्टम परिच्छेद में वसुधारा स्नान, पूजन आदि की विधि । नवम परिच्छेद में नीरांजन विधि । दशम परिच्छेद में शिष्य को विद्या देने की विधि, ज्वालामालिनी साधन-विधि १-२, ज्वालामालिनी स्तोत्र, ब्राह्मी आदि अष्ट देवियों का पूजन, जप व हवन विधि, ज्वालामालिनी माला मन्त्र, ज्वालामालिनी वश्य मन्त्र
यन्त्र, चन्द्रप्रभु स्तवन, चन्द्रप्रभु यन्त्र विधि । एकीभाव स्तोत्र
२६ श्लोक परिमाण यह कृति श्री वादिराज ने सन् १०२५ ईसवी में रची है। इसका प्रत्येक श्लोक ऋद्धि, मन्त्र से गर्भित माना जाता है। किन्तु स्तोत्र पर ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र सहित टीका देखने में नहीं आती है । इस स्तोत्र को मन्त्रपूत अथवा मान्त्रिक शक्ति से युक्त माना जाता है। शिष्टसमुच्चय
.. यह कृति श्री दिगम्बराचार्य दुर्गदेव द्वारा कुम्भनगर में संवत् १०८६ (१०३२ ईसवी) श्रावण शुक्ला एकादशी मूल नक्षत्र में रची गई है। डॉ. नेमीचन्द शास्त्री ने इसका सम्पादन किया है तथा गोधा जैन ग्रन्थमाला
१. पं० चन्द्रशेखर शास्त्री, ज्वालामालिनीकल्प, प्रस्तावना, पृष्ठ १०
धर्मध्यान दीपक, पृ० ७६, सं० पं० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री संवच्छरइगसहस बोलीणे णवयसीइ संजुते।। सावण सुक्के यारसि दिअइम्मि (य) मूलरिक्खंमि ॥२६०।। सिरिकुंभनयरण (य) ए सिरिलच्छि निवास निवइरज्जमि । सिरिसतिनाह भवणे मुणि भविअ सम्मउमे (ल) रम्मे ॥२६॥ पृ० १७१
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इन्दौर से प्रकाशित है। इसमें मरणसूचक चिन्ह एवं भविष्य की जानकारी के लिये अम्बिका मन्त्र एवं अन्य मन्त्र भी दिये हैं।
महोदधि मन्त्र
इस कृति के प्रणेता भी दिगम्बर आचार्य दुर्गदेव हैं। ई० सन् १०३२ के आस-पास इसकी रचना हुई होगी । इस मन्त्रशास्त्र की भाषा प्राकृत है ।'
जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप
भैरव पद्मावती कल्प
४०० अनुष्टुप श्लोक परिमाण इस कृति की दिगम्बराचार्य श्री मल्लिषेण ने ईसा की ११वीं सदी में रचना की है।" इन्होंने मन्त्रशास्त्र सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इस कल्प को इन्होंने १० परिच्छेद में परिपूर्ण किया है ।
प्रथम परिच्छेद - इसमें मंगलाचरण (पार्श्वनाथ को प्रणाम कर ) पद्मावती के नाम, ग्रन्थ की अनुक्रमणिका, मन्त्री का लक्षण आदि विषय हैं ।
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द्वितीय परिषद (सकलीकरण क्रिया) इसमें सकलीकरण क्रिया अंशक परीक्षा आदि विषय है।
तृतीय परिदेव (देवी की आराधना विधि ) मन्त्रों के जप में गुथने के भेद, मन्त्रों की सामान्य साधनाविधि पद्मावती को सिद्ध करने का विधान, अनुष्ठान में पास रखने का यन्त्र पूजन के पाँचों उपचार, पद्मावती सिद्ध करने का मूल मरण, पद्मावती का पडसरी मन्त्र, पद्मावती का जबादारी मन्त्र, पद्मावती का एकाक्षर मन्त्र, होम विधि, पार्श्वनाथ भगवान् के यक्ष की साधना विधि तथा वशीकरण चिन्तामणि मन्त्र आदि विषय है ।
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चतुर्थ परिच्छेद ( द्वादश रंजिका यन्त्र विधान ) - इसमें मोहन में क्लीं रंजिका यन्त्र, इसके अनन्तर रंजिका मन्त्र के ह्रीं ह्र, य, य:, ह, पट् म, ई, क्षवषट् ल और श्री इन ग्यारह भेदों का वर्णन आता है । इन बारह यन्त्रों में से अनुक्रम से एक यन्त्र स्त्री को मोह-मुग्ध बनाने वाला, स्त्री को आकर्षित करने वाला, शत्रु का प्रतिषेध करने वाला, परस्पर विद्वेष करवाने वाला, शत्रु के कुल का उच्चाटन करने वाला, शत्रु को पृथ्वी पर कौवे की तरह गुमाने वाला, शत्रु का निग्रह करने वाला, स्त्री को वश में करने वाला, स्त्री को सौभाग्य प्रदान करने वाला, क्रोधादि का स्तम्भन करने वाला और ग्रह आदि से रक्षण करने वाला है। इसमें कौए के पंख, मृत प्राणी की हड्डी तथा गधे के रक्त के बारे में भी उल्लेख है ।
पंचम परिच्छेद - इसमें अग्नि, वाणी, जल, तुला, सर्प, पक्षी, क्रोध, गति, सेना, जीभ एवं शत्रु के स्तम्भन का निरूपण है । इसके अतिरिक्त वार्ताली यन्त्र का भी उल्लेख है ।
षष्ठ परिच्छेद - इसमें इष्ट स्त्री के आकर्षण के छः प्रकार से विविध उपाय बतलाये गये हैं ।
१.
सप्तम परिच्छेद इसमें दाह ज्वर का शांतिमन्त्र, विभिन्न प्रकार से किस प्रकार वशीकरण किया जाय,
उसके लिये छः प्रकार के वशीकरण यन्त्र, अरिष्टनिमि मन्त्र, दूसरों को असमय में किस प्रकार सुलाया जाय ऐसा मन्त्र, विधवाओं को क्षुब्ध करने का मन्त्र । इसमें होम की विधि भी बतलाई गई है और उससे भाई-भाई में वैरभाव और शत्रु का मरण किस प्रकार हो, इसकी रीति भी बतलाई गई है ।
२.
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रिष्टसमुच्चय, प्रस्तावना, पृष्ठ १२, सं० पं० नेमीचन्द शास्त्री
पं० चन्द्रशेखर शास्त्री कृत हिन्दी भाषाटीका ४६ यन्त्र एवं पद्मावती विषयक कई रचनाओं के साथ यह कृति श्री मूलचन्द किशनदास कापडिया ने वीर संवत् २४७९ में प्रकाशित की है।
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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अष्टम परिच्छेद-इसमें 'दर्पण निमित्त' मन्त्र तथा कर्णपिशाचिनी मन्त्र को सिद्ध करने की विधि आती है। इसके अलावा अंगुष्ठ निमित्त, दीपक निमित्त तथा सुन्दरी नाम की देवी को सिद्ध करने की विधि भी बतलाई है । धनदर्शक दीपक, गणित निमित्त, गर्भ में पुत्र है या पुत्री, स्त्री अथवा पुरुष किसकी मृत्यु होगी आदि के बारे में बताया गया है।
नवम् परिच्छेद–इसमें मनुष्यों को वश में करने के लिये किन-किन औषधियों का उपयोग करके तिलक कैसे तैयार करना, स्त्री को वश में करने का चूर्ण, उसे मोहित करने का उपाय, राजा को वश में करने के लिए काजल कैसे तैयार करना, कौन सी औषधि खिलाने से मनुष्य पिशाच की तरह व्यवहार करे, अदृश्य होने की विधि, वस्तु के क्रय-विक्रय के लिये क्या-क्या करना तथा रजस्वला एवं गर्भ मुक्ति के लिये कौनसी औषधि काम में लेनी आदि विविध तन्त्र बतलाये गये हैं।
दशम् परिच्छेद--इसमें गारुडाधिकार सम्बन्धी निम्नलिखित आठ बातों के वर्णन की प्रतिज्ञा की गई है और उसका निर्वाह भी किया गया है
१-संग्रह : साँप द्वारा काटे गये व्यक्ति को कैसे पहचानना । २-अंगन्यास : शरीर के ऊपर मन्त्र किस प्रकार लिखना। ३-~-रक्षाविधान : साँप द्वारा काटे गये व्यक्ति का कैसे रक्षण करना। ४-स्तम्भन विधान : दंश का आवेग कैसे रोकना। ५-स्तम्भन विधान : शरीर में चढ़ते हुए जहर को कैसे रोकना। ६-विषापहार : जहर कैसे उतारना। ७--सचोद्य : कपड़ा आदि आच्छादित करने का कौतुक । ८-खटिका सर्प कौतुक विधान : खड़िया मिट्टी से आलिखित सांप के दाँत से कटवाना ।
इस परिच्छेद में भेखण्डा विद्या तथा नागाकर्षण मन्त्र का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त आठ प्रकार के नागों के बारे में इस प्रकार जानकारी दी गई है।
नाम : अनन्त, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंखपाल, कुलिक । कुल : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण । वर्ण : स्फटिक, रक्त, पीत, श्याम, श्याम, पीत, रक्त, स्फटिक । विष : अग्नि, पृथ्वी, वायु, समुद्र, समुद्र, वायु, पृथ्वी, अग्नि ।
जय-विजय जाति के नागदेव कुल के आशुविषवाले तथा जमीन पर न रहने से उसके विषय में इतना ही उल्लेख किया गया है । इसके अतिरिक्त इसमें नाग के फन, गति एवं दृष्टि के स्तम्भन के बारे में तथा नाग को घड़े में कैसे उतारना इसके बारे में भी जानकारी दी है। सरस्वती मन्त्र कल्प'
यह ग्रन्थ भी आचार्य मल्लिषेण का बनाया हुआ है। इसमें ७५ पद्य और कुछ गद्य विधि दी गई है। काम चाण्डाली कल्प
इस कृति के रचयिता भी मल्लिषेण हैं। इस कृति की एक प्रति बम्बई के सरस्वती भवन में सुरक्षित है। ज्वालिनी कल्प
इसकी रचना भैरव पद्मावती कल्प आदि के प्रणेता श्री मल्लिषेण ने की है। यह ग्रन्य ज्वालामालिनी अन्य
१. यह कृति साराभाई नवाब द्वारा प्रकाशित भैरव पद्मावती कल परिशिष्ट, ११ पृ. ६१-६८ पर छपी है ।
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से अलग है । इस ज्वालिनी क्रुप की एक प्रति स्व० माणिवचन्द्र के ग्रन्थ संग्रह बम्बई में है, जिसमें १४ पत्र हैं और जो विक्रम संवत् १५६२ की लिखी हुई है।
- जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप
कल्याणमन्दिर स्तोत्र
४४ श्लोक परिमाण यह कृति दिगम्बराचार्य श्री कुमुदचन्द्र ने ११२५ ईसवी सन् के लगभग रची है । इसका प्रत्येक श्लोक ऋद्धि मन्त्र एवं यन्त्र से गर्मित है। इस स्तोष पर कई विद्वानों ने ऋद्धि मन्त्र-यन्त्र सहित टीकाएँ लिखी हैं । जैन मन्त्र साहित्य में यह कृति अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है । इस पर कल्याणमन्दिर स्तोत्र मूल, नूतन पद्यानुवाद, अर्थ मन्त्र-यन्त्र ऋद्धि, साधन विधि, गुण, फल तथा श्रीमद्देवेन्द्रकीति प्रणीत कल्याण मन्दिर स्तोत्र पूजा सहित पुस्तक श्री पं० कमलकुमार शास्त्री ने लिखी है।"
श्री वर्धमान विद्या कल्प
७७ श्लोक परिमाण यह कृति श्री सिंहतिलकसूरि ने ईस्वी सन् १२६६ में रची है। इसमें यन्त्र लेखन विधि के साथ वाचनाचार्य मन्त्र, उपाध्याय विद्या, आचार्य तुल्य यति योग्य विद्या आदि का वर्णन किया गया है।
श्री वर्धमान विद्याकल्प (द्वितीय) 3
१६ श्लोक परिमाण यह कृति भी श्री सिंहसिलकर ने संवत् १३२२ ( ईसवी सन् १९६६) में रची है। इसमें स्तुति के साथ चतुर्विंशति विद्याओं का वर्णन इस प्रकार किया है- श्री ऋषभविद्या, श्री अजितविद्या, श्री सम्भव विद्या, श्री अभिनन्दनविद्या, श्री सुमतिविद्या, श्री पद्मप्रभविद्या, श्री सुपार्श्वविद्या, श्री चन्द्रप्रभविद्या, श्री सुविधिविद्या, श्री शीतलविद्या, श्री श्रेयांसविद्या, श्री वासुपूज्यविद्या, श्री विमलविद्या, श्री अनन्तविद्या, श्री धर्मविद्या श्री शान्तिविद्या, श्री कुंभुविद्या, श्री अरविद्या, श्री मल्लिविद्या श्री मुनिसुव्रतविद्या, श्री नमिविया, श्री नेमिविया, श्री पार्श्वविद्या, श्री वर्धमानविद्या; अन्त तथा में साधन-विधि दी हुई है ।
६२६ श्लोक परिमाण यह कृति श्री सिंहतिलकसूरि ने संवत् १३२७ ( ई० स० ने इस कृति को निम्न शिर्षकों में विभक्त कर परिपूर्ण किया है। पंचासल्लब्धि पदानि अष्टचत्वारिंशत्स्तुतिपदी युक्त यन्त्रोल्लेख: जपभेद निरूपणं, सूरिमन्त्रस्य वाचना प्रकाराः
१.
श्री कुन्धुसागर स्वाध्याय, खुरई, म०प्र० से प्रकाशित वीर नि० सं० २४७८
२.
पं० अम्बालाल प्रेमचन्द्र शाह, सूरिमन्त्र कल्प सन्दोह, पृ० १-६ पर प्रकाशित । ३. वही, पृ० १०-२० ।
४. इत्यवचिन्त्य बहुश्रुतमुखाम्बुजेभ्यो मयाऽऽत्मने लिखितः ।
श्री वर्धमान विद्याकल्पस्त्रि-द्वि-त्रिकेन्दु (१३२३) मितेवर्षे ॥६५॥ श्रीविबुधचन्द्रगणभ्रत शिष्यः श्रीसिंहतिलकसूरिमम् ।
साह्लाद देवतोयविशदमना लिखितवान् कल्पम् ॥ १९ ॥
५.
सं० मुनि जम्बूविजयजी सूरिमन्त्र कल्पसमुच्चय भाग १, पृ० १-७४
६. संयत्तगुण-खोदन १२२० वर्षे दीपालिपर्वमदिवसे ।
साह्लाद देवतोज्ज्वलमनसा पूर्ति मयेदमानीतम् ॥ ६२६ ॥ (इति) श्रीयशोदेवसूरि शिष्य श्री विबुधचन्द्रसूरि शिष्य श्रीसिंह तिलक भिमंजराजरहस्यं रचितं ।
सर्वा ८०० ग्रन्थ श्लोक संख्या ।। श्रीरस्तु ।।
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मन्त्रराजरहस्यम् *
१२७० ) में रची है। आचार्य प्रत्येक तेसा कृत्यकारित्वं य मन्त्रजाप योग्यस्थानादि मन्त्र
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कर्मयोगी भी केवल जी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड
जाप विधि फलादिकं च पार्श्वनाथानीय केशि गणधर मन्त्रः कोट्शादिविचारः महत्वादिमन्त्र चतुष्क विचारः, सूरिमन्त्राभिधान कारणं तदधिकारी व मुद्रा विचार विद्या प्रस्थान पीठ स्वरूपम् '' आदि बीज वय प्रयोग विचारः, एकोनचत्वारित्पदात्मक मरिमन्त्रविचार:, तयोदशलब्धि पद-सप्तमेरु युत सूरिमन्त्रविचारः, द्वात्रिंशंल्लब्धि पद्या चतुर्विंशति लब्धि पद्या च युक्तस्य षट् प्रस्थानमयस्य सूरिमन्त्रस्य विचारः, षोडशस्तुतिपदयुक्तस्य षटप्रस्थानमयस्य सूरिमन्त्रस्यविचारः, योदश मेरुयुक्तस्य सूरिमन्त्र विचारः ह्रीं हारविवार मन्त्रराजमान विवारः, द्वादशदि त्रयोदशमेहयुक्तस्य सूरिमन्त्रस्य विचारः, षोडशस्तुतिपदषण्मेरुकूटाक्षर युक्तस्य सूरिमन्त्रस्य विचारः । ॐकारस्य ह्रींकारस्य ग्रहादिशान्तिकस्य च विचार, मायाबीज विचार, अहंकार रहस्यम्, देहस्वस्य आधार चक्रादिपीठ चतुष्कस्य विचारः, जापमाहात्म्यम् बनलेवन प्रकारः, षोडश लब्धिपद षण्मेरुयुक्तस्य सूरिमन्त्रस्य विवारः, द्वादशलब्धि पद युक्त पंच मे वाचनायां विशेष:, उपविद्यामेरुरहित सूरिमन्त्रविचार:, शान्तिक विचारस्तद्विधिश्च स्तम्भादिविचारः सूरिमन्त्र महिमादिविचारः सूरिमन्त्रनित्य पूजन विधिः, षोडशलब्धिपद, त्रयोदशमेरुसहित सूरिमन्त्रस्य वाचनान्तरम् अक्ष विचारः वासक्षेप मुद्रादि विचार: आशिर्वचन पूर्वं ग्रन्थकारकृताग्रन्थ समाप्तिः ।
विद्यानुवाद
यह विविध मन्त्र एवं तन्त्र की संग्रहात्मक कृति है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति सरस्वती दि० जैन मन्दिर, इन्दौर में विद्यमान है। इस कृति में कहीं भी संग्रहकर्ता अथवा धन्यकर्ता का नाम नहीं दिया गया है। पं० श्री चन्द्रशेखर शास्त्री ने इसे मुनि कुमारसेन द्वारा संग्रहीत बताया है। इसमें निम्न २३ परिच्छेद १. मन्त्री २. विधिमन्त्र,
३. लक्ष्म, ४. सर्व परिभाष, ५. सामान्य मन्त्र साधन, ६. सामान्य यन्त्र, ७. गर्भोपत्ति विधान, ८. बाल चिकित्सा, ६. ग्रहोपसंग्रह १०. विषहरण ११. फणितन्त्र मण्डल्याच १२. पनयोजनं १३-१४-१५ कृते सम्बधोवधः १६. विधान उच्चाटन, १७. विद्वेष, १८. स्तम्भन १२. शान्ति २०. पुष्टि, २१. वयं २२. आकर्षण, २३. नम्मे आदि ।
प्रतिष्ठातिलक
१८ परिच्छेद एवं अन्त में परिशिष्ट प्रकरण परिमाण यह कृति दिगम्बर जैनाचार्य श्री नेमीचन्द ने १३वीं सदी ईस्वी के लगभग रची है। दोनी मखाराम नेमवन्द सोनापुर से यह प्रकाशित है। यह एक तरह से मन्त्र-यन्त्रों का सागर है। इसमें निम्न यन्त्र अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं महाशान्तिजयन्त्र यांतिक यन्त्र जलयन्त्र महायान निर्वाणकल्याण यन्त्र, वश्ययन्त्र
मण्डल यन्त्र, लघुज्ञान्तिक यन्त्र, मृत्युंजययन्त्र विचक्रपन्न, पीठयन्त्र सारस्वतयन्त्र शान्तियन्त्र स्तम्भनयन्त्र, आसनपदवास्तुयन्त्र जलाधिवासनयन्त्र, गन्धयन्त्र, अग्निश्य होमयन्त्र, अन्निजय द्वितीय
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प्रकार यन्त्र, अग्नित्रय होम मण्डप यन्त्र, उपपीठपद वास्तु यन्त्र, परम सामायिक पद वास्तुयन्त्र, उग्रपीठ पद वास्तु यन्त्र, नवग्रह होम कुण्ड मण्डल, स्थंडिलपद वास्तु यन्त्र, मंडुकपद वास्तु यन्त्र आदि ।
श्रीसूरिमन्त्रबृहत् कल्प विवरण
इस कृति को श्री जिनप्रभसूरि ने १३०८ ईसवी के आसपास रचा है। इसमें ये प्रमुख प्रकरण हैं(१) विद्यापीठ (२) विद्या (३) उपविद्या (४) मन्त्रपीठ (५) मम्वराज ।
(१) विद्यापीठ ( मानदेवी वाचनानुगता) द्वादशपदी (धर्मपोषान्नायानुगता) गयोदम पदी ( पट लेख्या) अष्टादशपदी, चतुर्विंशतिपदी, अष्टपदी (दिगम्बराम्नायानुगता ) षोडशपदी (जिन प्रभूसूरि पूर्व परम्परागता ) अष्टी विद्याः तासांजपविधिः फलं च, अशिकेपशमिनी द्वात्रिंशत्स्तुतिपदी, अप्रस्तुता अपि केचन मन्त्रा अत्यन्तयोप्यानि आनायान्तराणि लब्धि पद प्रभावश्च शल्योद्धारनिर्णय विद्या प्रथम पीठ विवरण समाप्तिश्च ।
१. भैरवपद्मावती कल्प, भूमिका, पृ० ७८
२. सं० मुनि जम्बूविजयजी, सूरिमन्त्र कल्प समुच्चय, भाग १, पृ० ७७-१०६
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जैन मन्त्रशास्त्रों को परम्परा और स्वरूप
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२. द्वितीय पीठ : विद्या ३. तृतीय पीठ : उपविद्या ४. चतुर्थ पीठ : मन्त्रपीठ ५. पंचम पीठ : मन्त्रराज
अन्त में सुरिमन्त्र जाप्य फल, साधन विधि, तपविधि, स्वआम्नाय मन्त्रशुद्धि, सूरिमन्त्र अधिष्ठायक स्तुति एवं मुद्राओं का वर्णन किया गया है।
देवतासर विधि' इस कृति की श्री जिनप्रभसूरि ने १३०८ ईस्वी के आस-पास रचना की है। इसमें सूरिमन्त्र को साधन करने के लिये निम्न २० अधिकारों का वर्णन किया है
(१) भूमिशुद्धि, (२) अंगन्यास, (३) सकलीकरण, (४) दिग्पाल आह्वान, (५) हृदयशुद्धि (६) मन्त्र-स्नान, (७) कल्मषदहन (८) पंचपरमेष्ठि स्थापना (8) आह्वानन, (१०) स्थापना, (११) सन्निधानं, (१२) सन्निरोधः (१३) अवगुंठन, (१४) छोटिका, (१५) अमृतीकरण, (१६) जाप, (१७) क्षोभण, (१८) क्षमण, (१६) विसर्जन, (२०) स्तुति, सूरिमन्त्र माहात्म्य, जाप्य-ध्यान आदि से प्राप्त सिद्धियों का वर्णन ।
मायाबीज कल्प इस कृति की जिनप्रभसूरि ने १३०८ ईसवी के आसपास रचना की है। इसमें मायाबीज ह्रीं को सिद्ध करने की सम्पूर्ण विधि का वर्णन किया है। शुक्ल पक्ष, पूर्णा तिथि, नैवेद्य-पकवान, फल, स्नान, एक भुक्ति भोजन एवं ब्रह्मचर्य आदि शब्द लिखकर साधक को उन बातों पर विशेष ध्यान के लिये संकेत किया है। प्रथम मायाबीज मन्त्र ॐ ह्रीं नमः' मूलमन्त्र का एक लक्ष जाप करने, जप के साथ ध्यान विधि भी बतायी गई है। इस मूल मन्त्र के साथ अलग-अलग पल्लवों को लगाकर शान्ति, पुष्टि, वशीकरण, उच्चाटन, विद्वेषण आदि मान्त्रिक क्रियाओं को सिद्ध करने की विधि बताई गई है।
सूरिमन्त्र कल्प यह कृति श्री राजेशेखर सूरि ने १३५३ ईसवी के पासपास रची है। यह कल्प १० वक्तव्यों में लिखा गया है-(१) सप्तदश मुद्रावर्णन, (२) प्रथम पीठ वक्तव्यता, (३) द्वितीय पीठ वक्तव्यता, (४) तृतीय पीठ वक्तव्यता, (५) चतुर्थ पीठ वक्तव्यता, (६) पंचम पीठ वक्तव्यता, (७) पंचपीठमय सम्पूर्ण सूरिमन्त्र वक्तव्यता, (८) सविस्तार देवतावसरविधि वक्तव्यता, (९) संक्षिप्त देवतावसरविधि वक्तव्यता, (१०) मन्त्रमहिम वक्तव्यता।
सूरिमुख्य मन्त्र फल्प इस कृति को श्री मेरुतुगसूरि ने १३८३ ई० सं० के आसपास रची है। इसमें निम्न प्रकरणों का वर्णन है-पंचपीठ वर्णन उपाध्याय विद्या, प्रवर्तक मन्त्रः, स्थविर मन्त्रः, गणवच्छेदमन्त्रः, वाचनाचार्य-प्रवृत्तिन्योर्मन्त्र: पंडित मिश्र मंत्रः, ऋषभविद्या, सूरिमन्त्र साधन विधि (देवतावसर विधि सदृश्य:) आद्यपीठ साधन विधिः, द्वितीय पीठ साधन विधिः, तृतीय पीठ साधन विधिः, चतुर्थ पीठ साधन विधिः, पंचम पीठ साधन विधिः, सूरिमन्त्र स्मरणफलम्, सूरिमन्त्र पट लेखन विधिः, ध्यान विधिजपभेदादिक च, अष्टौविद्यास्तासांफलं च, सूरिमन्त्र स्मरण विधिः (संक्षिप्तः) सूरिमन्त्र
१. सं० मुनि जम्बूविजयजी, सूरिमन्त्र कल्प समुच्चय, भाग १, पृ०१०७-११२ २. लेखक के निजी संग्रह में विद्यमान है। ३. सं० मुनि जम्बूविजयजी, सूरिमन्त्र कल्प समुच्चय, भाग १, पृ. ११३-११ ४. वही, पृ० १३२-१७५ ।
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
Doorse.
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अधिष्ठायक स्तुतिः, अक्षा दि विचारः, स्तम्भनाद्यष्टकर्म विचारः, चतुर्धामन्त्रजातिमन्त्र स्मरणरीतिश्च, मुद्रावर्णनम्, पंचाशल्लब्धिवर्णनम्, विद्यामन्त्र लक्षणः । कोकशास्त्र
इस कृति' को तपागच्छ कमलकलश शाखा के नर्बुदाचार्य ने संवत् १६५६ (१५६६ ईसवी) के आसोज शुक्ला दशमी को सम्पूर्ण किया। इसके दसवे अधिकार में आचार्य ने मन्त्र एवं तन्त्र की संक्षिप्त में सुन्दर सामग्री का वर्णन किया है । पद्मिनी, चित्रिणी, हस्तिनी एवं शंखिनी स्त्रियों के प्रकार के आधार पर उनको अपने वश में करने के लिये उक्त अधिकार में आचार्य ने मन्त्र के साथ तन्त्र का समावेश किया है जिससे कार्य की त्वरित सिद्धि हो सके।
तन्त्र:- मोचाकंद रसेन जातिफलकं कुर्याद्वशंचित्रिणी।
पक्षीमाक्षिक संयुतौ च करिणी पारापत भ्रामरैः ॥ शंखिन्यावशवत्तिनी च तगरी मूलान्वितां श्रीफलं ।
ताम्बूलेन सह प्रदत्तमचिराद्वश्यं भवति पद्मिनी ॥१३१८॥२ मन्त्रः- ॐ पच पच विहंगम कामदेवाय स्वाहा ॥१३२०॥
मोचाकन्द का रस और जायफल पान में देने से चित्रिणी स्त्री वश में होती है। उपर्युक्त मन्त्र से भंवरे का पंख अभिमन्त्रित कर मधु में खिलाने से चित्रिणी स्त्री वशीभूत होती है।
इसी प्रकार पद्मिनी, हस्तिनी तथा शंखिनी स्त्रियों को वशीभूत करने के मन्त्र तन्त्र एवं अन्य कई प्रकार के तन्त्र दिये हुए हैं। महाचमत्कारी विशायन्त्र
यह कृति श्री मेघविजयजी ने १७वीं शती ईसवी में रची है। इसमें रावण पार्श्वनाथ स्तवन पाठ, श्री अर्जुन पताका के अन्तर्गत कई प्रकार के बिसे एवं अन्य यन्त्रों की आकृतियाँ दी हैं। साराभाई नवाब ने इसे सम्पादित कर प्रकाशित करवाया है। चर्चासागर
___ यह कृति श्री चम्पालालजी ने संवत् १८१० (१७५३ ईस बी) में बसन्त पंचमी को पूर्ण की। इसमें चर्चा संख्या १५७ से १६५ तक में निम्न मन्त्रों का स्वरूप एव विधि दी हुई है। सिद्धच क्रयन्त्र, शान्तिचक्र यन्त्र, कलिकुण्ड दण्ड स्वामी यन्त्र, ऋषिमण्डल यन्त्र, चिन्तामणि च क यन्त्र, गणधर वलय यन्त्र, षोडशकारण यन्त्र, दशलाक्षणिक यन्त्र, रत्नत्रय आदि का सुन्दर विवेचन हुआ है । यह ग्रन्थ भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता से प्रकाशित है। श्री ऋषिमण्डल का मन्त्र कल्प
यह कृति श्री विद्याभूषणसूरि द्वारा रचित है। साथ ही श्री ऋषिमण्डल मन्त्र, यन्त्र, स्तोत्र, पूजा श्री गुण
१. साराभाई नवाब ने इसको सम्पादित कर प्रकाशित करवाया है। २. वही, पृ० ११७ ३. वही, पृ० ११७ ४. संवत्सर विक्रम अर्क राज्य, समयेते दिगहरिचन्द्र छाज ।
माघ मास शशि पक्षशुद्ध, पंचम गुरुवार अनंग बूद्ध ।।१२।। तिस दिन शुभ बेला पूर्ण कीन, चर्चासिधू बहुकथन पीन । नंदो वृद्धो जयवन्त होउ, यावतरविशशिछिति वाद्धि लोउ ॥१३॥ -पृ० ५३७
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जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप
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नन्दि मुनीद्र द्वारा विरचित है। इसका मूलमन्त्र “ॐ ह्रां हि ह ह ह ह ह्रीं ह्रः अ सि आ उ सा सम्यग्-दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो ह्रीं नम: ।"
उपर्युक्त मन्त्र की साधना से आधि-व्याधि, दुःख, दारिद्रय, शोक-सन्ताप आदि का नाश होता है तथा हर प्रकार की सुख सामग्री का प्रादुर्भाव होता है जैसे :
रणे राजकुले वह्नौ जले दुर्गे गजै हरौ । श्मशाने विपिने घोरे स्मृतो रक्षति मानवं ॥५६॥ राज्यभ्रष्टानिजं राज्यं पदभ्रष्टा निजपदां लक्ष्मीभ्रष्टा निजा लक्ष्मी प्राप्नुवंति न संशय ॥६०॥ भार्यार्थी लभते भायां पुत्रार्थी लभते सुतं । धनार्थी लभते वित्त नरः स्मरणमात्रतः ॥६१॥ स्वर्णे रूप्येऽथवा कांस्येलिखित्वा यस्तु पूजयेते । तस्यै वेष्ट महासिद्धिाहे वसति शाश्वती ॥२॥ ब्र० श्रीलाल जैन ने इसका सम्पादन कर प्रकाशित करवाया है।
अनुभवसिद्ध मन्त्र द्वात्रिशिका : इस कृति की रचना भद्रगुप्ताचार्य ने की है। इसमें पांच अधिकार हैं। पहले अधिकार में (१) सर्वज्ञाभमन्त्र: "ॐ श्री ह्रीं अहं नमः" २) सर्वकर्मकरयन्त्र "ॐ ह्रीं श्रीं अहं नम: ।" उपर्युक्त दोनों मन्त्रों के ध्यान विषय में बताया है कि :
पीतस्तम्भेऽरुणंवश्ये क्षोभणे विद्रुम प्रभम् । कृष्णं विद्वषणे ध्यायेत् कर्मघाते शशि प्रभम् ।। द्वादश सहस्रजापो दशांश होमेन सिद्धिमुपयाति ।
मन्त्री गुरुप्रसादाद्ज्ञातव्यस्त्रिभुवने सारः ।। द्वितीय अधिकार में वशीकरण एवं आकर्षण मन्त्रों का वर्णन किया है। तृतीय अधिकार में स्तम्भन, स्तोत्र आदि मन्त्रों का वर्णन है।
"ॐ ह्रीं देवी " कुरु कुल्ले अमुकं कुरु स्वाहा।" इस मन्त्र का हर प्रकार की बीमारी, विष आदि पर प्रयोग होता है।
चौथे अधिकार में शुभ-अशुभसूचक सुन्दर और तुरन्त अनुभव करवाने वाले आठ मन्त्रों का समावेश किया गया है।
पाँचवें अधिकार में गुरु-शिष्य के योग्यायोग्य का निरूपण किया गया है, जिससे दोनों का कल्याण हो सके। इसे पण्डित अम्बालाल प्रेमचन्द शाह ने सम्पादित कर प्रकाशित करवाया है।
सूरिमन्त्र कल्प यह कृति अज्ञात सूरि द्वारा रचित है। इसमें निम्न प्रकरण हैं-प्रथम वाचना, द्वितीय वाचना, ध्यान विधि साधनविधि, तृतीय वाचना- (अक्षर स्थापना) सूरिमन्त्र गभित विद्या प्रस्थान पट विधिः, मन्त्रशुद्धि, तपोविधिः, अधिष्ठायकस्तुतिः एवं सूरिमन्न पद संख्या ।
सूरिमन्त्र संग्रह यह कृति अज्ञात कर्तृक है। इसमें निम्न पीठों का वर्णन किया है। प्रथम विद्यापीठ, द्वितीय महाविद्या पीठ, तृतीय उपविद्या पीठ, चतुर्य मन्त्रपीठ, पंचम मन्त्रराजप्रस्थान ।
चिन्तामणि पाठ इस कृति का रचनाकाल एवं कर्ता का परिचय अज्ञात है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ का स्तोत्र एवं पूजा,
१. सं० मुनि जम्बूविजयजी, सूरिमन्त्र कल्पसमुच्चय, भाग २, पृ० १०६-१६५. २. वही, पृ० सं० २३१-२३५, ५८. ३. लेखक के संग्रहालय में सुरक्षित है।
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कर्मयोगी श्री केसरीमसजी सुराणा अभिनन्दन अन्य : पंचम खण्ड
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मायाबीज ह्रींकार की पूजा में धरणेन्द्र-पद्मावती की पूजा, दश दिशाओं में पार्श्वनाथ की पूजा, चौबीस यक्ष-यक्षिणी पूजा, सोलह विद्यादेवी पूजा, नवग्रह पूजा आदि विषय हैं। यह रचना मन्त्रपूत अथवा यान्त्रिक शक्ति से युक्त होने पर शान्तिक एवं पौष्टिक अभिकर्म की पूर्ति करती है। चिन्तारणि (मन्त्र, यन्त्र तथा तन्त्र संग्रह) :
इस कृति' का संकलनकर्ता एवं समय अज्ञात है । अनुमान से १८वीं-१६वीं शती में सागवाड़ा (बागड़ प्रान्त) गद्दी के भट्टारक अथवा उनके किसी पण्डित ने संग्रह किया होगा। इस संग्रह में मन्त्र-यन्त्र एवं औषध प्रयोग विधि में बागड़ी बोली, मारवाड़ी तथा मालवी बोली के शब्दों का प्रयोग किया गया है। उसमें कहीं-कहीं शैव मन्त्रों, हनुमान मन्त्रों का भी समावेश किया गया है। इस संग्रह की पुष्पिका में निम्न पंक्तियां लिखी हुई हैं :--
वृषभादि चतुर्विशस्सुत्रयः त्रिशत् योज्या चतुर्विशतिभिर्भक्त शैसं शान्तिनात् षोडशात्कथितं व्याः इति तीर्थकर इति चिन्तारणि समाप्तम् ।
इस मन्त्र-मन्त्र-तन्त्र संग्रह का नामकरण उपरोक्त पंक्तियों के आधार पर चिन्तारणि रखा गया है। मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र संग्रह
अज्ञात व्यक्ति द्वारा संग्रहीत इस कृति का समय ज्ञात नहीं हुआ है। इसमें प्रथम पृष्ठ पर बारीक अक्षरों में णमोकार कल्प प्रारम्भ लिखते हुए लिखा हुआ है। इसको बागड़ी, मारवाड़ी बोली के शब्दों में लिखा गया है। इसमें ६ तक पत्र संख्या है। अनुमान से इसका संग्रह १८-१९वीं शती में सागवाड़ा (बागड़ प्रान्त) गद्दी के भट्टारक के किसी अनुयायी ने किया होगा। इसमें मुख्यतया वशीकरण, उच्चाटन, मारण, विद्वेषण आदि मन्त्र-यन्त्रों का ही संग्रह किया गया है। मन्त्र शास्त्र
___ इस कृति के रचनाकार एवं रचनाकाल के विषय में किसी प्रकार के साक्ष्य प्राप्त नहीं होते हैं । इसकी रचना अनुमान से सागवाड़ा (जिला डूंगरपुर) गद्दी के १८-१९वीं शती के भट्टारक के किसी अनुयायी भक्त ने की होगी। इसमें पत्र-संख्या २४ के बाद पत्र गायब हैं। इसको बागड़ी, मारवाड़ी, मालवी बोली के शब्दों में लिखा गया है यह मन्त्र, यन्त्र एवं तन्त्र का अनूठा संग्रह है। इसमें कहीं-कहीं मुसलिम, शाबर मन्त्रों एवं वैष्णव मन्त्रों का भी समावेश किया गया हैं। मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
यह कृति डॉ० नेमिचन्द शास्त्री द्वारा सन् १९५६ में प्रणीत है। इसमें लेखक ने णमोकार महामन्त्र का वैज्ञानिक दष्टि से परिशीलन किया है। इसके प्रत्येक अक्षर एवं पद का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। इसको साधने की विधि एवं इससे सम्बन्धित कई मन्त्रों का संग्रह भी साथ में दिया है। किसने कब इस महामन्त्र की साधना से अपना कल्याण किया, उनके बारे में १७ कथाएँ भी दी हैं ।।
१. लेखक के संग्रहालय में सुरक्षित है। २. 'ॐ नमो भगवतेरुद्राय ह्रीं ह्र हफट् स्वाहा अनेन मन्त्र सर्वभूताडाकिणीयोगिनीदमन मन्त्रः' पृ० १२ पर ३. लेखक के संग्रहालय में सुरक्षित है। ४. वही। ५. ॐनमौल्लाइल्ला इल्ल इल्लाईल्ली ईल महमद रसलिला: सलमान पैगम्बर सकरदिन ममहादिन हस्तावतारदिपा
वतारः पत्रावतार कजलावतार आगच्छ-आगच्छ सत्यं ब्रू हि-सत्यं ब्रूहि स्वाहा, पृ० १० ६. भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है।
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मैन मन्त्रशास्त्रों को परम्परा और स्वरूप
३८५.
घण्टाकर्णवीरजयपताका अज्ञातकर्तृक इस कृति' का संवत् २०२८ में सम्पादन श्री नरोत्तमदास नगीनदास शाह ने गुजराती भाषा में
किया है । इसमें विशेष रूप से निम्न मन्त्र-यन्त्रों का समावेश किया ।६ी 120 बली' ।
है। १-सर्व सिद्ध महायन्त्र की विधि, २-नवग्रह यन्त्र की विधि,
ह।१-सव सिख महाय ते । ।
३-दशदिग्पालयन्त्र की विधि, ४-षोडश विद्यादेवी यन्त्र की विधि,
५–अष्टबटुक भैरव यन्त्र विधि, ६-बावन वीर यन्त्र विधि, ७HEIR 12
चौंसठ योगिनी यन्त्र विधि, ८-वीणाकार यन्त्र की विधि, :
धनुषाकार यन्त्र की विधि, १०-स्वतिकाकार यन्त्र विधि, ११लक्ष्मीमाटे घण्टाकर्ण बीसा यन्त्र' सन्तानोत्पत्ति गर्भरक्षा यन्त्र विधि, १२-ध्वजाकार यन्त्र विधि, १३-षट्कोण महालक्ष्मी यन्त्र विधि, १४--लक्ष्मी माटे घंटाकर्ण बीसायन्त्र १५-भाग्योदय वृद्धिकारक सिंहासनाकार यन्त्रविधि आदि।
वेरनावमलमा इस गुजराती कृति का सम्पादन मुनिश्री गुणभद्रविजयजी ने सन् १९७२ में किया है। इसका प्रथम भाग मन्त्रशास्त्र का है तथा द्वितीय भाग ज्योतिषशास्त्र का है । इसमें मन्त्र-यन्त्रों का सुन्दर सम्पादन किया गया है । मन्त्र विभाग-नवकार महामन्त्र एवं तेना गूढ मन्त्रो, चौबीस तीर्थकर परमात्मा के अप्रसिद्ध प्राचीन महान सिद्ध प्रभावक विद्यामन्त्र, सर्वकार्य सिद्ध महाचमत्कारी अनुभव सिद्ध मन्त्र, (ॐ तारे तारे वीरे, ॐ तारे वीरे वीरे ह्रीं फट् स्वाहा) अपराजित महाविद्यामन्त्र, श्री चक्रेश्वरी देवी के मन्त्र (ॐ ह्रीं श्रीं चक्रेश्वरी चक्रवारुणी चक्रवेगेन मम उपद्रव हन हन शान्ति कुरु कुरु स्वाहा), श्री पद्मावती देवी के मन्त्र (ॐ नमो धरणेन्द्र पद्मावती सहिताय श्रीं क्लीं ऐं अहँ नमः), सरस्वती देवी के मन्त्र, व्याख्यान श्रेष्ठ आपवानो मन्त्र, श्री लक्ष्मी देवी के मन्त्र, घंटाकर्णदेव मन्त्र, कर्णपिशाचिनीनामन्त्रो, पंचागुली मन्त्र ।
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ऋद्धि सिद्धि यन्त्र
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अभाव अमन भाषा अमृतमम सर्व शश
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मर
मुर
रोग निवारण यन्त्र
व्यापारवर्धक यन्त्र
१. मेघराज जैन पुस्तक भण्डार बम्बई से प्रकाशित है। २. पृष्ठ २० पर ३. सेठ चिमनलाल काजी, बम्बई ५४ से प्रकाशित । ४. वेरनावमलमां, पु. ६३ ५. वही, पृ०१७ ६. वही, पृ० १०२
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कर्मयोगी श्री केसरीमल जी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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यन्त्र विभाग-चौबीस तीर्थकर परमात्मानु महान प्रभाविक चमत्कारी सिद्ध यन्त्र, श्री चौबीस तीर्थकर परमात्माना अधिष्ठित देव देवीओना निवास वारू कल्पवृक्ष यन्त्र, सर्वकार्य मनोकामना सिद्धयन्त्र, चौदपूर्वी सर्वतोभद्र यन्त्र, श्री लक्ष्मी प्राप्तिना चमत्कारी अद्भुत सिद्धि यन्त्रो, अदभुत सिद्व विद्या प्राप्ति तया ज्ञान प्राप्ति यन्त्रो, मनोकामना सिद्धयन्त्र, चिन्तेवेलु कार्य सिद्ध यन्त्र, घण्टाकर्णो यन्त्र, कोर्ट कचेरी मा विजय प्राप्ति विजयराज यन्त्र, व्यापार वर्धक यन्त्र, रोगनिवारण यन्त्र, एकाक्षी नालीयेर कल्प, व्यापारवर्धक ३२, ३४, ६५ का यन्त्र, शंख कल्प, सोनु बनावानु कल्प आदि । महावीरकोति स्मृति ग्रन्थ
__ इस कृति का सम्पादन डॉ० नेमैन्द्रचन्द्र जैन ने सन् १९७५ में किया है । इस ग्रन्थ के तृतीय खण्ड में स्व. आचार्य द्वारा समय-समय पर अपने भक्तों को दिये गये एवं बताये गये मन्त्रों एवं तन्त्रों का संग्रह कर सम्पादन किया गया है जिसमें निम्न मन्त्र एवं यन्त्र महत्वपूर्ण हैं :
णमोकार कल्प-मंगलमन्त्र णमोकार, अक्षर पंक्ति विद्यामन्त्र, अचिन्त्यफल प्रदायक मन्त्र, पापभक्षिणी विद्या रूप मन्त्र, रक्षा मन्त्र, अग्निनिवारक मन्त्र, लक्ष्मी प्राप्ति मन्त्र, सर्व सिद्धि मन्त्र, त्रिभुवनस्वामिनी विद्या मन्त्र, महामृत्युजय मन्त्र. रोग निवारक मन्त्र, विवेक प्राप्ति मन्त्र, प्रतिवादिकी शक्ति स्तम्भन करने का मन्त्र, विद्या व कवित्व प्राप्ति मन्त्र, सर्वकार्यसाधक मन्त्र-(ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ब्लू अहं नमः), सर्वशान्तिमन्त्र, व्यन्तर बाधाविनाशक मन्त्र, शिरोव्याधि विनाशक मन्त्र, बुखार तिजारी एकातरानिवारक मन्त्र, व्यन्तर और भूत-प्रेत विनाशक मन्त्र, केतु-मंगल-सूर्य ग्रह निवारक मन्त्र, चन्द्र-शुक्र ग्रह निवारक मन्त्र, बुध ग्रह निवारक मन्त्र, शान्ति के लिए मन्त्र, मनचिन्तित कार्यसिद्धि मन्त्र, द्रव्य प्राप्ति मन्त्र, वशीकरण मन्त्र, व्यापार में धन-प्राप्ति मन्त्र, लाभान्तराय मन्त्र, लक्ष्मीप्राप्ति मन्त्र, ऋणमोचन मन्त्र, पुत्र प्राप्ति मन्त्र (ॐ ह्रीं पुत्र-सुख प्राप्ताय श्री आदिजिनेन्द्राय नमः), फौजदारी मुकदमे में जीत मन्त्र, बिच्छू विषहरण मन्त्र, विद्यासिद्धि मन्त्र, सर्वकार्य सिद्धि मन्त्र, बन्दी-मोक्ष मन्त्र, वस्तु विक्रय मन्त्र, स्तम्भन मन्त्र, मेववृष्टिकारक मन्त्र, चिन्तामणि मन्त्र (ॐ णमो अरिहन्ताणं अरे अरणिमोहणि अमुकं मोहय मोहय स्वाहा), आधा सिर दर्द नष्ट करने का मन्त्र आदि। यन्त्र प्रकरण :-लक्ष्मी प्राप्ति यन्त्र, भप निवारण व गर्भ रक्षा यन्त्र, शान्तिदायक यन्त्र, उपद्रवनाशक यन्त्र, धनधान्य वृद्धिकारक श्री पार्श्वनाथ यन्त्र, दरिद्रतानाशक यन्त्र, गर्भ रक्षा यन्त्र, बिक्री यन्त्र, सर्वकार्य सिद्धि मन्त्र यन्त्र, व्यापार अच्छा चले यन्त्र, योगिनी यन्त्र, सम्मान प्राप्ति यन्त्र, द्रव्य प्राप्ति पन्दरिया यन्त्र, वशीकरण पन्दरिया यन्त्र, उच्चाटन निवारक पन्दरिया यन्त्र, मुकदमा जीतने का यन्त्र आदि ।
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Rii १ ।
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द्रव्य प्राप्ति यन्त्र
अति उत्तम व्यापार यन्त्र
___ लक्ष्मी प्राप्ति यन्त्र (जहाँ व्यापार हो वहाँ रखें)
००
१. धनेन्द्रप्रसाद जैन, वाराणसी द्वारा प्रकाशित । २. महावीरकीर्ति स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ १८६ ३. वही, पृ० १६० ४. वही, पृ० १६७
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जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप
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मन्त्र विद्या यह कृति' करणीदान सेठिया द्वारा संवत् २०३३ में प्रणीत है। इसमें लेखक ने मंगलाचरण के बाद निम्न प्रकरणों को अपनी कृति में स्थान दिया है :-- मन्त्र विद्या-विधि क्रम, मन्त्र ग्रहण दिवस, नक्षत्र, फल, जप, सकलीकरण, नमस्कार महामन्त्र कल्प, वर्धमान विद्याकल्प, लोगस्सविद्या कल्प, चन्द्र प्रज्ञप्ति-विद्याकल्प, शान्तिदायक महाप्रभावकसिद्ध शान्ति कल्प, श्री चन्द्रकल्प, यक्षिणीकल्प, विविध मन्त्र एवं स्तोत्र । यन्त्र विभाग में कई जैन यन्त्र तथा अन्य सम्प्रदायों के यन्त्रों का भी समावेश किया है। यही नहीं मन्त्र विभाग में भी जैन मन्त्रों के अलावा अन्य सम्प्रदायों के मन्त्रों को भी इस ग्रन्थ में अपनाया गया है । लेखक ने अपनी कृति में प्रचलित-अप्रचलित कई प्रकार के मन्त्र एवं यन्त्रों का संकलन कर मन्त्रशास्त्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
जैन मन्त्रशास्त्रों का स्वरूप __ मन्त्र शब्द मन् धातु (दिवादि ज्ञाने) से ष्ट्रन (त्र) प्रत्यय लगाकर बनाया जाता है। इसका व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ होता है 'मन्यते ज्ञायते आत्मादेशोऽनेन इति मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा का आदेश निजानुभव जाना जाय, वह मन्त्र है। दूसरी तरफ से तनादिगणीय 'मन' धातु से (तनादि अवबोधे Toconsider) ष्ट्रन प्रत्यय लगाकर मन्त्र शब्द बनता है। इसकी व्युत्पत्ति के अनुसार 'मन्यते-विचारयते आत्मादेशोयेन स मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मादेश पर विचार किया जाय, वह मन्त्र है। तीसरे प्रकार से सम्मानार्थक 'मन' धातु से ष्ट्रन प्रत्यय करने पर मन्त्र शब्द बनता है। इसका व्युत्पत्ति अर्थ है-'मन्यन्ते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिता: आत्मानः वा यक्षादिशासनदेवता अनेन इति मन्त्रः' अर्थात जिसके द्वारा परम पद में स्थित पंच उच्च आत्माओं का अथवा यक्षादि शासनदेवों का सत्कार किया जाय, वह मन्त्र है । इन तीनों व्युत्पत्तियों के द्वारा मन्त्र शब्द का अर्थ अवगत किया जा सकता है।
मन के साथ जिन ध्वनियों का घर्षण होने से दिव्यज्योति प्रगट होती है, उन ध्वनियों के समुदाय को मन्त्र कहा जाता है । मन्त्रों का बार-बार उच्चारण किसी सोते हुए को बार-बार जगाने के समान है। यह प्रक्रिया इसी के तुल्य है, जिस प्रकार किन्हीं दो स्थानों के बीच बिजली का सम्बन्ध लगा दिया जाय । साधक की विचार-शक्ति स्विच का काम करती है और मन्त्र-शक्ति विद्युत लहर का । जब मन्त्र सिद्ध हो जाता है तब आत्मिक शक्ति से आकृष्ट देवता मान्त्रिक के समक्ष अपना आत्मार्पण कर देता है और उस देवता की सारी शक्ति उस मान्त्रिक में आ जाती है ।
साधारण साधक बीज मन्त्रों और उनकी ध्वनियों के घर्षण से अपने भीतर आत्मिक शक्ति का स्फुटन करता है । मन्त्रशास्त्र में इसी कारण मन्त्रों के अनेक भेद बताये हैं। प्रधान ये हैं :
(१) शान्तिक मन्त्र (२) पौष्टिक मन्त्र (३) वश्याकर्षण मन्त्र (४) मोहन मन्त्र (५) स्तम्भन मन्त्र (६) विद्वेषण मन्त्र (७) जम्भण मन्त्र (८) उच्चाटन मन्त्र (६) मारण मन्त्र आदि । आगे की पंक्तियों में इन्हीं मन्त्रों के स्वरूप पर कुछ विस्तार से विचार किया जा रहा है, जिससे जैन मन्त्रशास्त्र का स्वरूप स्पष्ट हो सके ।
(१) शान्तिक जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा भयंकर से भयंकर व्याधि, व्यन्त र, भूत-पिशाचों की पीड़ा, १. करणीदान सेठिया द्वारा प्रकाशित
मुस्लिम पन्द्रहिया मन्त्र, पृ० १७ ३. गणेश मन्त्र :-ॐ श्रीं ह्रीं प्रीं क्लीं लु गं गणपतये वरवरदे सर्वभस्मानय कुरु स्वाहा।
-पृष्ठ ५४
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क्रूर ग्रह, जंगम-स्थावर विष बाधा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्षादि ईतियों और चोर आदि का भय प्रशान्त हो जाय, उन ध्वनियों के निवेश को शान्ति मन्त्र कहते हैं।
शान्ति मन्त्र - णमो अमीया सवीणं" इस मन्त्र के जाप से समस्त प्रकार के उपद्रवों का शमन होता है ।
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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धरणे देय नहीं
भूत, प्रेत पिशाच, डाकण, आदि उपद्रव निवारक यन्त्र
इस यन्त्र को हड़ताल, मणसिल, हिंगुल तथा गोरोचन से लिखकर धूप देकर गले में, भुजा पर अथवा कमर पर बाँधने से उस मनुष्य के भूत, प्रेत, पिशाच, डाकण आदि सभी प्रकार के उपद्रव शान्त हो जाते हैं ।"
(२) पौष्टिक
जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा सुख सामग्रियों की प्राप्ति अर्थात् जिन मन्त्रों के द्वारा धनधान्य, सौभाग्य, यश-कीर्ति तथा सन्तान आदि की प्राप्ति हो, उन ध्वनियों की संरचना को पौष्टिक मन्त्र कहते हैं । मन्त्र - ( १ ) ॐ झोंझीं श्रीं क्लीं स्वाहा ।
(२) ॐ ह्रां ह्रीं देवाधिदेवाय अरिष्टनेमि अचिन्त्य चिन्तामणि त्रिभुवन कल्पवृक्ष ॐ ह्रां ह्रीं सर्व सिद्धये स्वाहा |
यन्त्र :--
मन्त्र यन्त्र की साधना- पुर्नवसु, पुष्य, श्रवण या धनिष्ठा नक्षत्र में १२५०० हजार जाप करने से यह समस्त जिनेश्वरों से युक्त, समस्त मन्त्रों में श्रेष्ठ पैंसठिया यन्त्र विजय दिलाने वाला है। पवित्र द्रव्यों से लिखकर शुद्ध भावों से जो स्त्री अपने अपने दायें अंग पर धारण करता है, उसको सुख को देता है । प्रयाण में, युद्ध में, वाद-विवाद में, राजा या राजा तुल्य बड़े मनुष्य को मिलने में विकट मार्ग में चिन्ता आदि का नाश करने में, धन प्राप्ति में इस यन्त्र की आराधना से अवश्य सुख-समृद्धि, जय-विजय एवं मन की इच्छाओं की पूर्ति होती है।"
बायें अंग पर तथा पुरुष एवं मांगलिक परम्पराओं
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२२
३
६
१. सम्पादक - अम्बालाल प्रेमचन्द शाह न्यायतीर्थ, सूरि मन्त्र कल्प सन्दोह, पृष्ठ ६८
२. सम्पादक-मुनि गुणभद्रविजय, वेरनावमलमां, पृष्ठ १०१
३. सं० नरोत्तमदास साहू, अंक मंत्र सारवाने मन कीमियो पृष्ठ ५३
४.
मन्त्र यन्त्र तन्त्र संग्रह, पृष्ठ १ ।
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तन्त्र - लखमी होणे को उपाय लिखते
मृगसिर नक्षत्रे मृगऽस्ति कीलऽगुल ७ सप्त की मंत्राणी ॥ मन्त्र ॥ ॐ छः छः ठः ठः स्वाहा ॥। १०८ मन्त्रज घर धूप देइ गाडई जे घर दूकान लक्ष्मी होय, धन वधे, व्यापार घणु होय, व्यापारी आव ग्राहक गणा आवई || १ || ४
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जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप
(२) वश्याकर्षण
जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा इच्छित वस्तु, व्यक्ति, पशु, पक्षी, देवी-देवता आदि चुम्बक की तरह खिंचे हुए साधक के पास आजाये तथा उनका विपरीत मन भी साधक की अनुकूलता स्वीकार करले, उन ध्वनियों के सनिवेश को वश्याकर्षण मन्त्र कहते हैं।
जो व्यक्ति इस चिन्तामणि नाम के यन्त्र का पूजन करता है, उसके वश में सम्पूर्ण लोक के साथ-साथ मुक्ति रूपी स्त्री भी हो जाती है।'
इस यन्त्र को भोजपत्र पर अष्टगन्ध से लिखकर आसन के नीचे दबाकर रखने से आने वाला व्यक्ति प्रभावित होगा तथा व्याख्यान के समय पास रखने से सभा मोहित होगी।*
१० भैरव पद्मावती कल्प, पृष्ठ २३ २. सं० पं० अम्बालाल शाह, अनुभव सिद्ध मन्त्र द्वात्रिंतिका, "पृष्ठ ३० ३. सं० नेमैन्द्रचन्द्र जैन, महावीरकीर्ति स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ २२३ ।
४. करणीदान सेठिया, मन्त्रविद्या, पृष्ठ १५
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मन्त्रॐ ह्रीं श्रीं कलिकुण्डस्वामिने वशमानय आनय स्वाहा। - वशीकरण चिन्तामणि यन्त्र विधि - पार्श्वनाथ प्रभु के सम्मुख अच्छे चमेली के दस हजार पुष्पों से तीन रात्रि तक साधना करने से किसी भी मनुष्य का बयाकर्षण हो सकता है।"
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(४) मोहन
जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक रचना के पर्वन द्वारा किसी को मोहित कर दिया जाय अर्थात् जिन मन्त्रों के द्वारा मनुष्य, पशु, पक्षी आदि मोहित कर दिये जायें उन ध्वनियों के सन्निवेश को मोहन मन्त्र कहते हैं । मेस्मेरिग्म, हिप्नोटिज्म आदि प्रायः इसी के अंग है।
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मोहनी विद्या मन्त्र ॐ नमो भगवती कराली महाकराली, ॐ महामोह सम्मोहनीय महाविद्य: जंभय जंभय स्तम्भय स्तम्भय मोहय मोहय मुच्चय मुच्चय क्लेदय क्लेदय आकर्षय आकर्षय पातय पातय कुनेर सम्मोहिनी ऐं ह्रीं ह्रीं ह्रौं आगच्छ कराली स्वाहा || मोहनी विद्या ॥
इस विद्या मन्त्र का जाप करने से इच्छित व्यक्ति अथवा सभा को मोहित किया जा सकता है ।
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कर्मयोगी भी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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(५) स्तम्भन
जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा मनुष्य, पशु, पक्षी, भूत, प्रेत आदि देविक बाधाओं को शत्रुओं के आक्रमण तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले कष्टों को दूर कर इनको जहाँ के तहाँ निष्क्रिय कर स्तम्भित कर दिया जाय उन ध्वनियों के सन्निवेश को स्तम्भन मन्त्र कहते हैं ।
स्तम्भन यन्त्र
मन्त्र :- -ॐ जंभे मोहे अमुकस्य जिह्वा स्तम्भय स्तम्भय ठः ठः ठः स्वाहा ।
विधि-उपरोक्त यन्त्र को भोजपत्र पत्र गोरोचन एवं कुंकुम से लिखकर फिर कुम्हार के हाथ की मिट्टी लाकर उससे अपने प्रत्यर्थि की छोटी सी मूर्ति बनाकर उसके मुख यह यन्त्र रख दे। उस मूर्ति का मुख मजबूत काँटों से चीर कर उसको दो मिट्टी के शराबों में रख कर उपरोक्त मन्त्र से उसकी पीले पुष्पों से पूजा करे। उसके विरोधी व्यवहारी का जिला स्तम्भन होता है ।"
(६) विद्वेषण
जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा कुटुम्ब, मित्र, जाति, देश, समाज, राष्ट्र आदि में परस्पर कलह और वैमनस्य की क्रान्ति मच जाय, उन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश को विद्वेषण मन्त्र कहते हैं ।
मन्त्र — ॐ चल चल अचल प्रचल विश्वं कम्प कम्प विश्वं कम्पय कम्पय ठः ठः ठः स्वाहा ।
उपरोक्त मन्त्र का जाप करने से सिद्धि को देने वाला, कपिल आँखों वाला चटेक प्राणियों का विद्वेषण और उच्चाटन करता है।
तन्त्र----राड़ी होय सही प्रयोग है, काग की पाँख, उल्लू की पाँख, बिलाव मुखरा बाल, उंदरा मुखरा बाल मेरी गोली करीखाट पाग नीचे गालजे, स्त्रीपुरुष राड़ी होय || विद्वेष होय ॥ १० ॥ *
(७) जृम्भण
जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा शत्रु, भूत, प्रेत, व्यन्तर आदि साधक की साधना से भयत्रस्त हो जाय, काँपने लगे, अर्थात् जिस मन्त्र द्वारा मनुष्य, पशु, पक्षी आदि प्रयोग करने वाले की सूचनानुसार कार्य करे बसे जृम्भण मन्त्र कहते हैं।
मन्त्र - ॐ नमः सहस्रजिह्व कुमुदभाजिनि दीर्घकेशिनि उच्छिष्टभक्षिणि स्वाहा ।
इस मन्त्र को पढ़ने से सांप पीछे-पीछे चलता है और 'याहि' अर्थात् जाओ, ऐसा कहने से चला जाता है ।
१. सं० पं० चन्द्रशेखर शास्त्री ज्वालामालिनी कल्प, पृ० ७२
२. उस मन्त्र का देवता
३. सं० पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह, अनुभवसिद्ध मन्त्र द्वात्रिंशिका, पृ०४१
४. मन्त्र यन्त्र तन्त्र संग्रह, पृ० १
३. सं० पं० चन्द्रशेखर शास्त्री, भैरव पद्मावती कल्प, पृ० १०
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________________ जैन मन्त्रशास्त्रों को परम्परा और स्वरूप 391 . - . -. -. - . - . - . -. -. - . -. (8) उच्चाटन जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा किसी का मन अस्थिर उल्लास रहित एवं निरुत्साहित हो कर पथभ्रष्ट या स्थानभ्रष्ट हो जाय, अर्थात् जिन मन्त्रों के प्रयोग से मनुष्य, पशु, पक्षी असे सात से भ्रा हो, इज्जत और मान-सम्मान को खो देवे उन ध्वनियों के वैज्ञानिकों के सन्निवेश को उच्चाटन मन्त्र कहते हैं / ChallaurCEN leaat तटन St मन्त्र उच्चाटन में फट रंजिका यन्त्र विधि-श्मशान से लिए हुए कपड़े पर नीम और आक के रस में क्रोध में भरकर लिखे। उस यन्त्र को श्मशान में फेंक दें। जब तक यह यन्त्र वहाँ पर रहता है तब तक शत्रु आकाश में कौवे के समान पृथ्वी पर घूमता रहता है।' तन्त्र-शत्र का डावा पग की धूलि, मसाण धूलि, सात उड़द, सात सरस्यु, पांच राई, टं-१ तेल काले लुगड़े बांधिये, शत्र का घर उपर नाखिजे शत्र उच्चाटनं // 1 // (6) मारण जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा साधक आततायियों को प्राणदण्ड दे सके अर्थात् जिन ध्वनियों के घर्षण द्वारा अन्य जीवों की मृत्यु हो जाय, उन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश को मारण मन्त्र कहते हैं। मन्त्र-ॐ काली महाकाली त्रिपुरा भैरववारिता अमुकस्य जीवितं संहर मम सुखं कुरु कुरु स्वाहा / इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन मन्त्रशास्त्र की एक विशाल परम्परा है जिसका मानव के ऐहिक और भौतिक कल्याण की दृष्टि से बहुत महत्त्व है / यह केवल कल्पना ही नहीं है किन्तु आयुर्वेद के चिकित्साशास्त्रों से भी प्रमाणित है कि मन्त्र-तन्त्र से अनेक प्रकार की आधि-व्याधि से मुक्ति दिलाकर मानव के जीवन को प्रशस्त किया जा सकता है। आज के इस विज्ञान के युग में आधुनिकता के परिवेश में लोग इस महत्त्वपूर्ण परम्परा को केवल अन्धविश्वास बताकर इसकी उपेक्षा करते हैं / किन्तु यदि इस विद्या का वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया जाय और तथ्यों का विश्लेषण किया जाय तो निश्चय ही यह मानव-कल्याण के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकती है। 1. पं० चन्द्रशेखर शास्त्री, भैरव पद्मावती कल्प, पृ० 33 2. चिन्तारणि पृ० 16 3. मन्त्रशास्त्र, पृ०२१