Book Title: Jain Mantra Shastro-ki Parampara aur Swarup
Author(s): Sohanlal G Daiwot
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 14
________________ जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप ३८७. -. -.-. -.-.-. -.-. -. -.-. -. -.-. -. -. -. -. -.-. -.-... मन्त्र विद्या यह कृति' करणीदान सेठिया द्वारा संवत् २०३३ में प्रणीत है। इसमें लेखक ने मंगलाचरण के बाद निम्न प्रकरणों को अपनी कृति में स्थान दिया है :-- मन्त्र विद्या-विधि क्रम, मन्त्र ग्रहण दिवस, नक्षत्र, फल, जप, सकलीकरण, नमस्कार महामन्त्र कल्प, वर्धमान विद्याकल्प, लोगस्सविद्या कल्प, चन्द्र प्रज्ञप्ति-विद्याकल्प, शान्तिदायक महाप्रभावकसिद्ध शान्ति कल्प, श्री चन्द्रकल्प, यक्षिणीकल्प, विविध मन्त्र एवं स्तोत्र । यन्त्र विभाग में कई जैन यन्त्र तथा अन्य सम्प्रदायों के यन्त्रों का भी समावेश किया है। यही नहीं मन्त्र विभाग में भी जैन मन्त्रों के अलावा अन्य सम्प्रदायों के मन्त्रों को भी इस ग्रन्थ में अपनाया गया है । लेखक ने अपनी कृति में प्रचलित-अप्रचलित कई प्रकार के मन्त्र एवं यन्त्रों का संकलन कर मन्त्रशास्त्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। जैन मन्त्रशास्त्रों का स्वरूप __ मन्त्र शब्द मन् धातु (दिवादि ज्ञाने) से ष्ट्रन (त्र) प्रत्यय लगाकर बनाया जाता है। इसका व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ होता है 'मन्यते ज्ञायते आत्मादेशोऽनेन इति मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा का आदेश निजानुभव जाना जाय, वह मन्त्र है। दूसरी तरफ से तनादिगणीय 'मन' धातु से (तनादि अवबोधे Toconsider) ष्ट्रन प्रत्यय लगाकर मन्त्र शब्द बनता है। इसकी व्युत्पत्ति के अनुसार 'मन्यते-विचारयते आत्मादेशोयेन स मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मादेश पर विचार किया जाय, वह मन्त्र है। तीसरे प्रकार से सम्मानार्थक 'मन' धातु से ष्ट्रन प्रत्यय करने पर मन्त्र शब्द बनता है। इसका व्युत्पत्ति अर्थ है-'मन्यन्ते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिता: आत्मानः वा यक्षादिशासनदेवता अनेन इति मन्त्रः' अर्थात जिसके द्वारा परम पद में स्थित पंच उच्च आत्माओं का अथवा यक्षादि शासनदेवों का सत्कार किया जाय, वह मन्त्र है । इन तीनों व्युत्पत्तियों के द्वारा मन्त्र शब्द का अर्थ अवगत किया जा सकता है। मन के साथ जिन ध्वनियों का घर्षण होने से दिव्यज्योति प्रगट होती है, उन ध्वनियों के समुदाय को मन्त्र कहा जाता है । मन्त्रों का बार-बार उच्चारण किसी सोते हुए को बार-बार जगाने के समान है। यह प्रक्रिया इसी के तुल्य है, जिस प्रकार किन्हीं दो स्थानों के बीच बिजली का सम्बन्ध लगा दिया जाय । साधक की विचार-शक्ति स्विच का काम करती है और मन्त्र-शक्ति विद्युत लहर का । जब मन्त्र सिद्ध हो जाता है तब आत्मिक शक्ति से आकृष्ट देवता मान्त्रिक के समक्ष अपना आत्मार्पण कर देता है और उस देवता की सारी शक्ति उस मान्त्रिक में आ जाती है । साधारण साधक बीज मन्त्रों और उनकी ध्वनियों के घर्षण से अपने भीतर आत्मिक शक्ति का स्फुटन करता है । मन्त्रशास्त्र में इसी कारण मन्त्रों के अनेक भेद बताये हैं। प्रधान ये हैं : (१) शान्तिक मन्त्र (२) पौष्टिक मन्त्र (३) वश्याकर्षण मन्त्र (४) मोहन मन्त्र (५) स्तम्भन मन्त्र (६) विद्वेषण मन्त्र (७) जम्भण मन्त्र (८) उच्चाटन मन्त्र (६) मारण मन्त्र आदि । आगे की पंक्तियों में इन्हीं मन्त्रों के स्वरूप पर कुछ विस्तार से विचार किया जा रहा है, जिससे जैन मन्त्रशास्त्र का स्वरूप स्पष्ट हो सके । (१) शान्तिक जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा भयंकर से भयंकर व्याधि, व्यन्त र, भूत-पिशाचों की पीड़ा, १. करणीदान सेठिया द्वारा प्रकाशित मुस्लिम पन्द्रहिया मन्त्र, पृ० १७ ३. गणेश मन्त्र :-ॐ श्रीं ह्रीं प्रीं क्लीं लु गं गणपतये वरवरदे सर्वभस्मानय कुरु स्वाहा। -पृष्ठ ५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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