Book Title: Jain Mahavira Gita
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Shrimad Buddhisagar Sahitya Prakashan Granthamala Ahmedabad

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Page 15
________________ प्रकाशकीयम् आधुनिक विज्ञान हरणफाळ विकसतुं आपणे आपणी नजरे निहाळी रह्या छीए. आधुनीक विज्ञान एटले भौतिकवादनो विकाश, ए भौतिकवादना विज्ञाने आपणी सन्मुख अवनवा अने अटपटा साधनोना खडको खडकी दीधां छे, छतां वास्तविक सुखना खडको देखातां नथी अने दुःखना डुंगरो दूर थतां नथी. आ माटेना कारणोनुं घणां चिंतनकारोए चिंतन कर्यु, विश्लेषण कयु, विवेकमयों विचार को अने ए निर्णय उपर आग्या के अध्यात्म भाव विहूणुं विज्ञान विश्वने विनाशना वातावरणमा मूकी देशे. जो विश्वने पोतानुं अस्तित्व राखवू हशे तो अध्यात्मभावना आश्रय विना ए अस्तिता नहि जाळवी शके. बेफाम बधेली अने वासना भरपूर वृत्तियो उपर भौतिक विज्ञान अंकुश राखवा तद्दन दुर्वल छे, वल्के ए तो वधु उद्दामवृत्तिओने वधु उश्केरे छे. एटले वेरविखेर बनावती विनाशक वृत्तिओने नाथवा अध्यात्मभाव परमातिपरम आवश्यक छे. चिंतनकारोना आवा एकरारना वातावरणमां अमने एक अणमोल ग्रंथरत्न प्रगट करवानो पुण्य अवसर प्राप्त थाय छे. लवणाकरना तळोए रत्न होय छे एम आ ग्रंथरत्न पण कोई अज्ञात लवणाकरना वारिमां चिरकाळथी समाधिमां लीन हतो. मरजीवा रत्नशोधको रत्न प्राप्ति काजे अगाध नीरना अने अनेक भीषण जलजंतुओना भयंकर वातावरण सामे झझूमी रत्न बहार लावे छे, एम आ ग्रन्थरत्नना प्रकाशनमां अमारी संस्थाने कार्य करवं पडयं छे, ए रीते आ ग्रंथरत्नने अन्धकारमाथी प्रकाशमां लावतां अमने घणो आनंद थाय छे. आ अमारे माटे पुण्यवती लाखेणी क्षण छ, के जेमा ग्रंथकारथीनी जुग जुग जुनी भावना मूर्तिमन्त बनी रही छे. आ ग्रन्थरत्नना प्रकाशन कार्यना मूल प्रणेता समरस सुधासिन्धु वात्सल्यमूर्ति आचार्य भगवंत श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी महाराजश्रीना शिष्यावतंस सेवाभावी अनुयोगाचार्य श्री महोदयसागरजी गणीन्द्र छे. वळी एमना:शिष्यरत्न गुणगणालंकार मुनिप्रवर श्री दुर्लभसागरजी महाराजे अमने आ प्रकाशन कार्यमां सतत जागृत राखता रह्या छे. सदा अदम्य उत्साह अमने आया कर्यो छे, अनेक रीते मार्गदर्शन आप्या कर्यु छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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