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॥ णमो वीथरागाणं ॥
प्रास्ताविकम्
आ विश्वमां सौ कोई प्राणी कांई ने कांई प्रवृत्ति करता होय छे, पछी भने ए राजा होय या रंक, मानव होय के दानव, विद्वान होय के मूर्ख, महात्मा होय के मूढात्मा.
परन्तु प्रवृत्तिनी पाछळ जे ध्येयबिंदु होय एने लक्षमां लेवाथी एनुं मूल्यांकन थई शके छे. मात्र बाह्य प्रवृत्तिनो सरवाळो काढीए तो मूर्ख के अधम आत्माओनी प्रवृत्ति घणी वधु प्रमाणमां देखाई आवशे, छतां ए प्रति कोई लक्ष आपवा तैयार होतुं नथी. त्यारे महात्मानी सामान्य प्रवृत्तिने पण जगत सन्मानभेर जोतुं होय छे, कारण के महात्मा जे कांई करे एमां बे वातोनुं लक्ष्य होय छे: एकतो मारी प्रवृत्तिथी विश्वने कांईक लाभ थवो जोईए अने बीजुं नानामां नाना जीवनुं सहेजे अहित न थवुं जोईए..
आवो उदात्त शुभाशय एमना हृदयमां सदा पल्लवित होय छे. आ कारणे ज स्वार्थी जगत् एमना चरणे झुकतुं होय छे. आवा उमदा अने पवित्र आशयथी एमनां स्वार्थ रगदोळाई जाय छे अने परार्थकरणमां पोतानुं खोई नाखवुं पडे छे एवं तो नथी ज, पण परोपकारजन्य प्रवृत्तिथी स्वार्थ सहज अने स्वयंसिद्ध थई जाय छे.
आपणे घेणी वखते जोईशु तो महात्माओ के सुविद्वानो ओछु बोलशे के ओछी प्रवृत्ति करशे. ते चिंतन, मनन अने मौनमां वधु समय पसार करशे; पण ए ज्यारे प्रवृत्ति करशे त्यारे र समयमा ओछा प्रमाणनी हशे पण बलवत्तानी दृष्टिए ए अल्पकालीन प्रवृत्ति घणी फलप्रदा हशे वर्षानी प्रवृत्ति सुभूमि उपर अल्प प्रमाणमां हशे तोपण र भूमि सस्यश्यामला बनी जशे ऊखर भूमि उपर प वर्षानी अति प्रवृत्ति पण निष्फलतामां परिणमशे. महात्माओ अने सुविद्वानो प्रवृत्ति करतां अगाउ योग्यता - अयोग्यता अने परिस्थितिनो विचार करी लेता होय छे.
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