Book Title: Jain Kumar Sambhava Mahakavyam
Author(s): Dharmshekharsuri, Jayshekharsuri
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ प्रस्तावना होवा जोईता सघळा गुणो आमां आपणने प्राप्त थाय छे. पदलालित्य, अर्थगौरव, रसपूर्ति, शब्दालंकार अने अर्थालंकारोथी अलंकृत आ काव्य विद्वानोने अपूर्व आनन्द उत्पन्न करावे तेवू छे. कविश्रीनी दर्शनशास्त्रो आदिमां पण असाधारण विद्वत्ता हती ए एमना ग्रन्थोनुं परिशीलन करनारने मुक्तकंठे स्वीकारवू पडे तेम छे. - कविश्रीने आ काव्य रचवानी प्रेरणा सरस्वती तरफथी थई छे. आ काव्यना टीकाकार कविश्रीना ज शिष्य श्रीधर्मशेखरसूरिजी आना पहेला सर्गना पहेला अने बीजा श्लोकोनी टीका करतां आ प्रमाणे जणावे छः "श्री जयशेखरसूरिजी स्तम्भतीर्थ ( खंभात ) मां समाधि ध्यानमां बेठेला हता त्यारे श्री भारती देवीए कह्यु के,-'प्रभो ! निश्चिन्त शा माटे वेठा छो ? आम कहीने 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति' तथा 'सम्पन्नकामां नयनाभिरामाम्' आ बे पादोथी शरु थता बे काव्यो आपी आ काव्यनी रचना करावी" टीकाना मंगलाचरणमा पोताना गुरु श्री जयशेखरसूरिजीनी स्तुति करतां 'यस्मै काव्ययुगप्रदानवरदा श्रीशारदा देवता' आ मुजब विशेषण आपे छे. तेमज कविश्रीए पोते पण आज काव्यना अन्तिम सर्गना छेल्ला पद्यमां 'वाणिदत्तवरः' आ पदनो उल्लेख पोताना विशेषण रूपे कर्यो छे जे उपरनी मान्यतानुं सारु समर्थन करे छे. खंभातमां उपरनो सरस्वती साथेनो वार्तालाप थयो होवाथी संभव छ के, आ ग्रन्थनी रचना खंभातमांज थई होय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 418