Book Title: Jain Krushna Sahitya
Author(s): Mahavir Kotiya
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 2
________________ * Jain Educato महावीर कोटिया : जैन कृष्ण-साहित्य : ७५५ तथ्य है, उस समय के धार्मिक नेता अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) के साथ श्रीकृष्ण के पारिवारिक सम्बन्धों की जानकारी. अरिष्टनेमि जैन- परम्परा के २२वें तीर्थंकर के रूप में प्रतिष्ठित हैं. महावीर स्वामी के अतिरिक्त जैन- परम्परा के अन्य २३ पूर्व तीर्थंकरों को अब तक अधिकांश लोग कपोल कल्पना कहते रहे हैं, और बहुत से अब भी कहते हैं. पर यह भ्रम विद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले वर्तमान इतिहास का फैलाया हुआ है. जहाँ तक अरिष्टनेमि की ऐतिहासिकता का प्रश्न है; भारत के महान् प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद (अ० ९ मन्त्र २५) यजुर्वेद तथा महाभारत आदि में उनका उल्लेख उपलब्ध है. जैन- परम्परा से हमें ज्ञात होता है कि श्रीकृष्ण व अरिष्टनेमि चचेरे भाई थे.' अरिष्ट नेमि के साथ इस सम्बन्ध के कारण जैन-साहित्य में श्रीकृष्ण का एक विशिष्ट व्यक्तित्व रहा है. एक श्रेष्ठ राज-नेता व अति पराक्रमी वीर पुरुष होने के साथ ही श्रीकृष्ण की धर्म के प्रति अभिरुचि भी प्रबल बताई गई है. नेमिनाथ की अहिंसा - भावना का प्रभाव उनके जीवन में स्पष्ट देखा जा सकता है. उन्होंने वैदिक काल के हिंसापूरित यज्ञ का विरोध किया, तथा उस यज्ञ को उत्तम बताया जिसमें जीवहिंसा नहीं होती. उन्होंने यज्ञ की अपेक्षा कर्म को महान् बताया. जैन आगम ग्रन्थों में श्रीकृष्ण से सम्बन्धित ऐसे बहुत से प्रसंग आये हैं, जब कि अरिष्टनेमि के द्वारिका आगमन पर श्रीकृष्ण सब राज्यकार्यों को छोड़ सकुटुम्ब उनके दर्शन व उपदेश श्रवण को जाया करते थे. वे दीक्षा समारोह में भी भाग लेते रहते ये स्वयं उनके कुल के बहुत से सदस्यों ने, जिनमें उनकी अनेक रानियाँ व पुत्र आदि भी थे, अर्हत अरिष्टनेमि से दीक्षा ग्रहण की. श्रीकृष्ण के बहुमुखी व्यक्तित्व के इस पहलू ने उन्हें, जैन साहित्य में अत्यधिक प्रमुख बना दिया है. अरिष्टनेमि विषयक जितना भी जैन साहित्य उपलब्ध है, उस सबमें श्रीकृष्ण का चरित वर्णन अति महत्त्वपूर्ण रहा है; बहुतसी कृतियों में तो वे अरिष्टनेमि से भी अधिक प्रमुख बन गये हैं. इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से भी उनके जीवन चरित के विभिन्न प्रसंगों का सविस्तार वर्णन हुआ है तथा पाण्डव-गण, गजसुकुमाल व प्रद्युम्नकुमार आदि से सम्बन्धित कृतियों में भी उनका वर्णन अति प्रमुख रहा है. इससे जैन साहित्यकारों के श्रीकृष्ण-परित के प्रति आकर्षण का पता लगता है. विभिन्न भारतीय प्राचीन व अर्वाचीन भाषाओं यथा प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड, तामिल, तेलुगु तथा गुजराती आदि में सैकड़ों की मात्रा में कृष्ण-सम्बन्धी कृतियाँ उपलब्ध हैं. प्रस्तुत लेख में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा हिन्दी भाषा में उपलब्ध जैन- कृष्ण - साहित्य का अति संक्षिप्त सा परिचय दिया गया है. आशा है यह परिचय जहाँ पाठक को कृष्ण-साहित्य सम्बन्धी नवीन जानकारी देगा, वहीं उसे जैन साहित्य की विशालता का अनुमान कराने में भी सहायक सिद्ध होगा. प्राकृत-जैन-कृष्ण साहित्य – जैनधर्म के मूल ग्रंथ आगम कहे गये हैं. इनका प्ररूपण स्वयं भगवान् महावीर ने किया था, परन्तु संकलन भगवान् के गणधरों [शिष्यों] ने किया. प्राकृत ज -जैन - कृष्ण साहित्य की दृष्टि से प्रथम स्थान आगम ग्रंथों का ही है. आगमों का उपलब्ध संकलन ई० सन् की ६ठी शताब्दी का है. आगम ग्रंथों की संख्या ४६ है - अंग १२, उपांग १२, छेदसूत्र ६, मूलसूत्र ४, प्रकीर्णक १०, चूलिका सूत्र २. कृष्णसाहित्य की दृष्टि से निम्न आगमग्रंथ महत्त्वपूर्ण हैं. [3] स्थानांग - इस सूत्र के आठवें अध्ययन में श्रीकृष्ण की आठ पटरानियों [ पद्मावती, गौरी गान्धारी, लक्ष्मणा, सीमा, जाम्बवती, सत्यभामा और विमणी] का वर्णन हुआ है. 7 [२] समवायांग—इस सूत्र में ५४ उत्तम पुरुषों के वर्णन प्रकरण में श्रीकृष्ण का वर्णन हुआ है. श्रीकृष्ण वासुदेव थे. बासुदेव का प्रतिद्वन्दी प्रतिवासुदेव होता है जो कि दुष्ट आततायी तथा प्रजा को वास देने वाला होता है. वासुदेव का पवित्र कर्तव्य उसका हनन कर पृथ्वी को भार-मुक्त करना है. श्रीकृष्ण ने अपने प्रतिद्वन्दी प्रतिवासुदेव जरासन्ध का वध किया था. १. उत्तराध्ययन २२.२ २. अन्तगडदा ३२३, ५.२, ६.८ ( ज्ञातृधर्म कथा ) १.५ निरयावलिका ५.१२. *ॐ** iiiiiiiiiiiii *** Energy.org

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