Book Title: Jain Krushna Sahitya
Author(s): Mahavir Kotiya
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमहावीर कोटिया जैन कृष्ण-साहित्य श्रीकृष्ण भारत राष्ट्र की अन्यतम विभूति हैं. उनका चरित-वर्णन व्यापक रूप से लोकरुचि का विषय रहा है. राष्ट्र की सभी धार्मिक विचारधाराओं व उनसे प्रभावित साहित्य में उनका (अपनी-अपनी मान्यतानुसार) वर्णन उपलब्ध है. वैष्णव-साहित्य में उनका स्वयं भगवान् का रूप (कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्-भा० पुराण १।३।२२) प्रमुख है; पर इसके आवरण में महाभारत आदि प्राचीन ग्रन्थों में उनके वीरश्रेष्ठ स्वरूप की ही पूजा हुई है. जैनों के निकट वे शलाकापुरुष वासुदेव हैं; जो कि महान् वीर व श्रेष्ठ अर्ध चक्रवर्ती शासक होता है. बौद्ध जातक-कथाओं में भी उनका एक वीर, शक्तिशाली व विजेता राजपुरुष के रूप में वर्णन हुआ है. स्पष्ट है कि उक्त धार्मिक विचारधाराओं में चाहे श्रीकृष्ण सम्बन्धी मान्यता की दृष्टि से बाह्य विभिन्नता रही हो, पर मूलतः सभी में उनके वीरश्रेष्ठ स्वरूप का यशो-गान प्रमुख है. बताया जा चुका है कि जैन परम्परा में श्रीकृष्ण की पुरुषशलाका वासुदेव के रूप में मान्यता है. शलाका पुरुष से तात्पर्य है श्रेष्ठ (महापुरुष) ! शलाका पुरुष श्रेषठ कहे गये हैं; तीर्थंकर २४, चक्रवर्ती १२, बलदेव ६, वासुदेव ६ तथा प्रतिवासुदेव ६. जैन पुराण ग्रन्थों व चरित-काव्यों में इन महापुरुषों का ही जीवन-चरित्र वणित हुआ है. श्रीकृष्ण नवमें (या अन्तिम) वासुदेव थे.२ वासुदेव श्रीकृष्ण एक शक्तिशाली वीर व अर्ध चक्रवर्ती शासक थे. वैताढ्य गिरि (विन्ध्याचल) से लेकर सागर पर्यन्त सम्पूर्ण दक्षिण भारत के वे एक मात्र अधिपति बताये गये हैं. उत्तर भारत की राजनीति में भी उनका विशिष्ट स्थान था. अपने शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वी जरासन्ध व उसके सहायक कौरवों के पराभव के बाद हस्तिनापुर के राज्यसिंहासन पर पाण्डवों को प्रतिष्ठित कर उन्होंने उत्तर भारत में भी अपना राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित किया. उत्तर-भारत की अन्य बहुत सी राज-नगरियों के अत्याचारी शासकों का दमन कर, उन्होंने उनके उत्तराधिकारियों को उनके स्थान पर प्रतिष्ठित कर अपने प्रभाव व लोकप्रियता में वृद्धि की. इस तरह जन-साहित्य के अध्ययन से हमें पता चलता है कि श्रीकृष्ण भारत के ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने देश में बिखरी हुई राजनीतिक शक्तियों को एकत्रित किया और उसमें सफलता भी प्राप्त की. जैन-कृष्ण-साहित्य के अध्ययन से भारतीय इतिहास के कई लुप्त तथ्य भी हमारे सामने उद्घाटित होते हैं. इनमें से एक १. देखिये 'घतजातक' २. नवमो वासुदेवोऽयमिति देवा जगुस्तदा–हरिवंशपुराण ५५-६०. 1. बारबईए नयरोए अद्धभरहस्स य समत्तस्स य आहेवच्चं जाव विहरइ-अन्तगडदशासूत्र १.५ * * * * * * * * * * * * * * * . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . Jainbrothinnitun... . . " . . . . . . । . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . DIPIVISIlluuN . . . . . . . . . . . iidulary.org.. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * Jain Educato महावीर कोटिया : जैन कृष्ण-साहित्य : ७५५ तथ्य है, उस समय के धार्मिक नेता अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) के साथ श्रीकृष्ण के पारिवारिक सम्बन्धों की जानकारी. अरिष्टनेमि जैन- परम्परा के २२वें तीर्थंकर के रूप में प्रतिष्ठित हैं. महावीर स्वामी के अतिरिक्त जैन- परम्परा के अन्य २३ पूर्व तीर्थंकरों को अब तक अधिकांश लोग कपोल कल्पना कहते रहे हैं, और बहुत से अब भी कहते हैं. पर यह भ्रम विद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले वर्तमान इतिहास का फैलाया हुआ है. जहाँ तक अरिष्टनेमि की ऐतिहासिकता का प्रश्न है; भारत के महान् प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद (अ० ९ मन्त्र २५) यजुर्वेद तथा महाभारत आदि में उनका उल्लेख उपलब्ध है. जैन- परम्परा से हमें ज्ञात होता है कि श्रीकृष्ण व अरिष्टनेमि चचेरे भाई थे.' अरिष्ट नेमि के साथ इस सम्बन्ध के कारण जैन-साहित्य में श्रीकृष्ण का एक विशिष्ट व्यक्तित्व रहा है. एक श्रेष्ठ राज-नेता व अति पराक्रमी वीर पुरुष होने के साथ ही श्रीकृष्ण की धर्म के प्रति अभिरुचि भी प्रबल बताई गई है. नेमिनाथ की अहिंसा - भावना का प्रभाव उनके जीवन में स्पष्ट देखा जा सकता है. उन्होंने वैदिक काल के हिंसापूरित यज्ञ का विरोध किया, तथा उस यज्ञ को उत्तम बताया जिसमें जीवहिंसा नहीं होती. उन्होंने यज्ञ की अपेक्षा कर्म को महान् बताया. जैन आगम ग्रन्थों में श्रीकृष्ण से सम्बन्धित ऐसे बहुत से प्रसंग आये हैं, जब कि अरिष्टनेमि के द्वारिका आगमन पर श्रीकृष्ण सब राज्यकार्यों को छोड़ सकुटुम्ब उनके दर्शन व उपदेश श्रवण को जाया करते थे. वे दीक्षा समारोह में भी भाग लेते रहते ये स्वयं उनके कुल के बहुत से सदस्यों ने, जिनमें उनकी अनेक रानियाँ व पुत्र आदि भी थे, अर्हत अरिष्टनेमि से दीक्षा ग्रहण की. श्रीकृष्ण के बहुमुखी व्यक्तित्व के इस पहलू ने उन्हें, जैन साहित्य में अत्यधिक प्रमुख बना दिया है. अरिष्टनेमि विषयक जितना भी जैन साहित्य उपलब्ध है, उस सबमें श्रीकृष्ण का चरित वर्णन अति महत्त्वपूर्ण रहा है; बहुतसी कृतियों में तो वे अरिष्टनेमि से भी अधिक प्रमुख बन गये हैं. इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से भी उनके जीवन चरित के विभिन्न प्रसंगों का सविस्तार वर्णन हुआ है तथा पाण्डव-गण, गजसुकुमाल व प्रद्युम्नकुमार आदि से सम्बन्धित कृतियों में भी उनका वर्णन अति प्रमुख रहा है. इससे जैन साहित्यकारों के श्रीकृष्ण-परित के प्रति आकर्षण का पता लगता है. विभिन्न भारतीय प्राचीन व अर्वाचीन भाषाओं यथा प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड, तामिल, तेलुगु तथा गुजराती आदि में सैकड़ों की मात्रा में कृष्ण-सम्बन्धी कृतियाँ उपलब्ध हैं. प्रस्तुत लेख में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा हिन्दी भाषा में उपलब्ध जैन- कृष्ण - साहित्य का अति संक्षिप्त सा परिचय दिया गया है. आशा है यह परिचय जहाँ पाठक को कृष्ण-साहित्य सम्बन्धी नवीन जानकारी देगा, वहीं उसे जैन साहित्य की विशालता का अनुमान कराने में भी सहायक सिद्ध होगा. प्राकृत-जैन-कृष्ण साहित्य – जैनधर्म के मूल ग्रंथ आगम कहे गये हैं. इनका प्ररूपण स्वयं भगवान् महावीर ने किया था, परन्तु संकलन भगवान् के गणधरों [शिष्यों] ने किया. प्राकृत ज -जैन - कृष्ण साहित्य की दृष्टि से प्रथम स्थान आगम ग्रंथों का ही है. आगमों का उपलब्ध संकलन ई० सन् की ६ठी शताब्दी का है. आगम ग्रंथों की संख्या ४६ है - अंग १२, उपांग १२, छेदसूत्र ६, मूलसूत्र ४, प्रकीर्णक १०, चूलिका सूत्र २. कृष्णसाहित्य की दृष्टि से निम्न आगमग्रंथ महत्त्वपूर्ण हैं. [3] स्थानांग - इस सूत्र के आठवें अध्ययन में श्रीकृष्ण की आठ पटरानियों [ पद्मावती, गौरी गान्धारी, लक्ष्मणा, सीमा, जाम्बवती, सत्यभामा और विमणी] का वर्णन हुआ है. 7 [२] समवायांग—इस सूत्र में ५४ उत्तम पुरुषों के वर्णन प्रकरण में श्रीकृष्ण का वर्णन हुआ है. श्रीकृष्ण वासुदेव थे. बासुदेव का प्रतिद्वन्दी प्रतिवासुदेव होता है जो कि दुष्ट आततायी तथा प्रजा को वास देने वाला होता है. वासुदेव का पवित्र कर्तव्य उसका हनन कर पृथ्वी को भार-मुक्त करना है. श्रीकृष्ण ने अपने प्रतिद्वन्दी प्रतिवासुदेव जरासन्ध का वध किया था. १. उत्तराध्ययन २२.२ २. अन्तगडदा ३२३, ५.२, ६.८ ( ज्ञातृधर्म कथा ) १.५ निरयावलिका ५.१२. *ॐ** iiiiiiiiiiiii *** Energy.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Amawwwwwwwwwwwwwwww ७१६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय [३] ज्ञातृधर्मकथा-इस अंगग्रंथ के पहले स्कन्ध के पांचवें तथा सोलहवें अध्ययन में श्रीकृष्ण का वर्णन हुआ है. पाँचवें अध्ययन में अर्हत् अरिष्टनेमि का रैवतक पर्वत पर आगमन, कृष्ण का दलबल सहित उनके दर्शन व उपदेशश्रवण को जाना तथा थावच्चापुत्र की प्रव्रज्या का वर्णन है. सोलहवें अध्ययन में पाण्डवों का वर्णन है. पाण्डवों की मां कुन्ती श्रीकृष्ण की बुआ थी. [४] अन्तकृद्दशा-इसमें अन्तकृत् केवलियों की कथाएँ हैं. आठ वर्ग (अध्ययनों के समूह) हैं. इस ग्रंथ में कृष्णकथा के विभिन्न अंगों का स्थान-स्थान पर वर्णन हुआ है. प्रथम वर्ग के पहले अध्ययन में श्रीकृष्ण का द्वारिका के राजा के रूप में उल्लेख हुआ है. तीसरे वर्ग के आठवें अध्ययन में कृष्ण के सहोदर गजसुकुमाल का प्रसिद्ध जैन आख्यान है. पांचवें वर्ग के प्रथम अध्ययन में द्वारिकाविनाश व श्रीकृष्ण की मृत्यु का वर्णन है. [५] प्रश्नव्याकरण-उपलब्ध प्रश्नव्याकरण सूत्र के दो खण्ड हैं. पहले में पांच आस्रवद्वारों का और दूसरे में पाँच संवरद्वारों का वर्णन है. प्रथम खण्ड के चौथे द्वार में श्रीकृष्ण के युद्ध करने और रुक्मिणी तथा पद्मावती को पाने का उल्लेख है. [६] निरयावलिका—इसके पांचवें उपांग दृष्णिदशा के १२ अध्ययन हैं, जिनमें प्रथम अध्ययन में द्वारवती नगरी के राजा कृष्ण वासुदेव का वर्णन है. अरिष्टनेमि विहार करते हुये रैवतक पर्वत पर पधारे. कृष्ण वासुदेव हाथी पर सवार हो दल-बल सहित उनके दर्शन व उपदेशश्रवण को गये. [७] उत्तराध्ययन–कहा जाता है, इसमें भगवान् महावीर के अन्तिम चातुर्मास के समय दिये गये उपदेशों का संग्रह है. इसमें ३६ अध्ययन हैं. २२ वें अध्ययन में जैन-कृष्ण-कथा के एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग का उल्लेख है. यह प्रसंग है श्रीकृष्ण द्वारा अरिष्टनेमि के विवाह का प्रबन्ध करना, भोज के लिये इकट्ठे किये गए पशुओं की करुण पुकार सुन अरिष्टनेमि को वैराग्य हो जाना तथा रैवतक पर्वत पर जाकर उनका तपस्या करना. इस अध्ययन से श्रीकृष्ण का जन्म सोरियपुर में होना प्रतीत होता है. श्रागमेतर प्राकृत कृष्णसाहित्य-आगमेतर साहित्य में (आगम-व्याख्या साहित्य के अतिरिक्त) कृष्ण-कथा का वर्णन करने वाला प्रथम ग्रंथ 'हरिवंसचरिय' कहा जाता है. इसके रचयिता विमलसूरि थे, जिन्होंने चरित-साहित्य के प्रसिद्ध ग्रंथ 'पउमचरिय' की रचना की है. परन्तु उक्त ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हो सका है. विमलसूरि का समय वि० की प्रथम शताब्दी निश्चित किया जाता है.' [१] वसुदेवहिण्डी-यह एक विशाल ग्रंथ है. इसके पूर्वार्द्धभाग के रचयिता संघदास गणि तथा उत्तर भाग के रचयिता धर्मदास गणि कहे गये हैं. संघदास गणि का समय ई० सन् की लगभग पांचवीं शताब्दी कहा गया है.२ ग्रंथ का मुख्य विषय श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के भ्रमण (हिंडन) का वर्णन करना है. ग्रंथ के दूसरे भाग पीठिया (पीठिका) में श्रीकृष्ण की अग्रमहिषियों का परिचय, रुक्मिणी से प्रद्युम्नकुमार का जन्म, उसका अपहरण, पूर्वभव, माता-पिता से पुनः मिलना, जाम्बवती से शंवुकुमार का जन्म आदि का वर्णन मिलता है. हरिवंश कुल की उत्पत्ति तथा कंस के पूर्वभवों का वर्णन भी मिलता है. कौरव-पाण्डवों का उल्लेख भी मिलता है. इस ग्रन्थ के पूर्वभाग में ११ हजार श्लोक तथा उत्तरभाग में १७ हजार श्लोक हैं.3 [२] चउप्पन महापुरिसचरियंः-यह शीलाचार्य (शीलांकसूरि) की रचना है. इस ग्रंथ में जैनधर्म के मान्य ५४ शलाका १. जैन साहित्य और इतिहास-श्री नाथूराम प्रेमी, पृष्ठ ८७. २. प्राकृत सा० का इतिहास-डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, पृ० ३८१ ३. सोमदेवविरचित कथासरित्सागर की भूमिका --डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, पृ० १३. mi (Silo HAR BO Jane ROSHENESEISESINANONESHOENENINONOSINONE Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर कोटिया : जैन कृष्ण-साहित्य : ७५७ प्रतिवासुदेवों को अलग न गिनकर वासुदेवों के साथ ही गिन लिया गया है. इस रचना का पुरुषों का वर्णन हुआ है. समय ई० सन् ८६८ बताया जाता है." [३] भव-भावना- इसके कर्त्ता मलधारि हेमचन्द्र सूरि कहे गये हैं. इन्होंने वि० सं० ११७० (सन् १२२३ ) में उक्त ग्रन्थ की रचना की. २ . कृति में १२ भावनाओं का वर्णन है. कुल ५३१ गाथाएँ हैं. हरिवंश कुल का विस्तार से वर्णन हुआ है. कंस का वृत्तान्त, वसुदेवचरित, देवकी से वसुदेव जी का विवाह, कृष्ण जन्म, कंसवध, नेमिनाथ-चरित आदि का सुन्दर वर्णन हुआ है. यह प्रकाशित रचना है. इन्हीं कवि की एक अन्य कृति 'उपदेशमावाकरण' है. इसमें जैन-तश्वोपदेश से सम्बन्धित कितनी ही धार्मिक व लौकिक कथाएँ दी हुई हैं. तपद्वार में वसुदेव चरित का वर्णन हुआ है. यह भी प्रकाशित रचना है. [४] कुमारपाल पडिबोह- - इस कृति के रचयिता सोमप्रभ सूरि आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य थे. इसकी रचना वि० सं० १२४१ में हुई. इस कृति में उन शिक्षाओं का संग्रह है जो समय-समय पर आचार्य ने गुजरात के चालुक्यवंशी राजा कुमारपाल को दीं. दृष्टान्त रूप में ५४ कथाएँ भी दी गई हैं. इस क्रम में मद्यपान के दुर्गुण बताते हुये द्वारिकादहन की कथा तथा तप का महत्व बतलाते हुये रुक्मिणी की कथा आई है. 3 [2] कण्हचरियं प्रस्तुत कृति में जैन-पुराणों में वर्णित कृष्ण कथा को ही प्रस्तुत किया गया है. रचयिता तपागच्छीय देवेन्द्रसूरि हैं, जिन्हें जगच्चन्द्रसूरि का शिष्य बताया गया है. देवेन्द्रसूरि का स्वर्गवास सन् १२७० में हुआ. ३ कृति के मुख्य विषय इस प्रकार हैं- वसुदेवचरित, कंस की जन्मकथा, कृष्ण-बलदेव के पूर्वभव, कृष्ण जन्म, नेमिनाथ जी के पूर्व भव व उनका जन्म, कंसवध, द्वारिका नगरी का निर्माण, कृष्ण की अग्रमहिषियों का वर्णन, प्रद्युम्न-जन्म, पाण्डवों का वर्णन, जरासन्ध से श्रीकृष्ण का युद्ध, श्रीकृष्ण की विजय, नेमिनाथ - राजुल का कथानक, द्रौपदीहरण व श्रीकृष्ण का उसे वापिस लौटा लाना, वजसुकुमारचरित, थावन्यापुत्र का वृतान्त, यादवों की दीक्षा, द्वारिका-दहन, बलराम व कृष्ण का द्वारिका से प्रस्थान, श्रीकृष्ण की मृत्यु, बलदेव जी का विलाप व दीक्षा, पाण्डवों की दीक्षा व नेमिनाथ का निर्वाण आदि. प्राकृत की उक्त कृतियों के अतिरिक्त आगमों के व्याख्या साहित्य तथा कथा-संग्रहों में, यथा-कथाकोपप्रकरण, कथारत्नकोष, आख्यानमणिकोष आदि में भी कृष्ण कथा के विभिन्न प्रसंग यत्र-तत्र वर्णित हुए हैं. संस्कृत का जैन-कृष्ण-साहित्य :- - जैनों का संस्कृत साहित्य विक्रम की प्रथम शताब्दी से ही उपलब्ध है. चरितसाहित्य की दृष्टि से संस्कृतभाषा का प्रथम ग्रन्थ रविषेणाचार्यकृत पद्मपुराण है. इसकी रचना सन् ६७६ में हुई. इसमें राम की कथा वर्णित है. कृष्ण-कथा की दृष्टि से प्रथम कृति हरिवंशपुराण है. ४ (१) हरिवंशपुराण जैन साहित्य में इस ग्रन्थ का एक विशिष्ट स्थान रहा है. वह एक विद्यालय है. ६६ सर्गों में विभक्त १२ हजार श्लोक परिमित है. ग्रन्थ का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय तीर्थंकर नेमिनाथ का वंश हरिवंश है. ग्रन्थ के १८ वें सर्ग से लेकर ६३ वें सर्ग तक यादव कुल तथा श्रीकृष्ण का चरित वर्णन किया गया है. ग्रन्थ का रचनाकाल विक्रम की नवमी शताब्दी का मध्य भाग है. यह ग्रन्थ शक संवत् ७०५ ( वि० संवत् ८४० ) में १. प्राकृत और उसका साहित्य - डा० हरदेव बाहरी. २. प्राकृत सा० का इतिहास- डा० जगदीशचन्द्र जैन पृ० ५०५. ३. वही पृ० ५६१. ४. जिनसेनकृत हरिवंशपुराण की भूमिका - नाथूराम प्रेमी पृ० ३. Jain SEISESEINEISZISZISZISZISOIRESEINERSEINEISET wwww Savary.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय पूर्ण हुआ.' इसके रचयिता पुन्नाटसंघीय आचार्य जिनसेन थे.२ (२) महापुराण:-यह भी जैन-कृष्ण-साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है. इसके दो भाग हैं—प्रथम आदिपुराण, द्वितीय उत्तर पुराण. यह सम्पूर्ण ग्रन्थ ७६ पर्यों में समाप्त हुआ है. इसकी श्लोकसंख्या २० हजार प्रमाण है. इसके प्रथम ४२ पर्व (सर्ग) व ४३ वें पर्व के ३ पद्य आचार्य जिनसेन के लिखे हुए हैं. ये जिनसेन हरिवंशपुराण के कर्ता से भिन्न हैं. ये पंचस्तूपान्वय सम्प्रदाय के थे. शेष ग्रन्थ आचार्य के प्रकाण्ड पण्डित व सिद्धहस्त कवि शिष्य गुणभद्र ने पूरा किया. उत्तरपुराण के ७१, ७२, व ७३ ३ पर्व में कृष्ण-कथा का वर्णन हुआ है. उत्तरपुराण की समाप्ति शक संवत् ७७५ (वि० संवत् ६१०) के लगभग बताई जाती हैं.४ (३) द्विसन्धान या राघव-पाण्डवीय महाकाव्य :-कवि धनंजय द्वारा लिखित यह एक अद्भुत महाकाव्य है. इसके प्रत्येक पद्य से दो अर्थ प्रकट होते हैं, जिनसे एक अर्थ में राम-कथा तथा द्वितीय में कृष्ण-कथा का सृजन होता है. इसके १८ सर्ग हैं. श्रीनाथूरामजी प्रेमी इस कवि का समय वि० की आठवीं शताब्दी के अन्तिम चरण से नवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक मानते हैं.५ (४) प्रद्य म्नचरित :-लाट-वर्गट संघ के आचार्य महासेन इस ग्रन्थ के रचयिता हैं. इसकी रचना का समय वि० सं० १०३१ से १०६६ के मध्य बताया जाता है. यह एक खण्डकाव्य है. इसके नायक श्रीकृष्ण के प्रबल पराक्रमी पुत्र प्रद्युम्नकुमार हैं, जिन्हें जैनपरम्परा में २१वाँ कामदेव माना गया है. इसकी कथा का आधार जिनसेनकृत हरिवंश पुराण है. यह प्रकाशित रचना है." (२) त्रिशष्ठिशलाका-पुरुष चरित्र :-प्रस्तुत ग्रन्थ के रचयिता 'कलिकालसर्वज्ञ' विरुद से विभूषित आचार्य हेमचन्द्र हैं. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने आचार्य हेमचन्द्र के लिए 'मध्यकालीन साहित्यसंस्कृति के चमकते हुये हीरे' का विशेषण प्रयुक्त किया है.८ इनका समय वि० संवत् ११४५-१२२६ निश्चित है. इनकी प्रस्तुत कृति में जैन-परम्परा में मान्य ६३ शलाका-पुरुषों का चरित-वर्णन हुआ है. (६) महापुराण :-इसके रचयिता मल्लिषेण सूरि हैं. ये विविध विषयों के पंडित तथा उच्चश्रेणी के कवि थे. महापुराण में कुल दो हजार श्लोक हैं और इन्हीं में त्रेषठ-शलाका पुरुषों की कथा संक्षेप में वणित हुई है. यह वि० संवत् ११०४ की रचना है: (७) भट्टारक सकलकीर्ति व उसके ग्रन्थ :-१५ वीं शताब्दी में भट्टारक सकलकीति संस्कृत के अच्छे विद्वान् और कवि हुए. जयपुर के विभिन्न अन्थभण्डारों में इनके लिखे कई ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध हैं. कृष्णसाहित्य की दृष्टि से इनके दो ग्रन्थ 'उत्तरपुराण' व 'प्रद्युम्नचरित' उल्लेखनीय हैं. ये मूलसंघान्वयी थे. (८) भट्टारक शुभचन्द्रकृत पाण्डवपुराण :-मूलसंघ के ही भट्टारक शुभचन्द्र अद्भुत विचारक, विख्यात विद्वान् तथा प्रबल ताकिक थे. इनके पाण्डवपुराण ग्रन्थ की प्रशस्ति में इनके द्वारा रचित २५ ग्रन्थों का उल्लेख हुआ है. १. शाकेष्वब्दशतेषु सप्तसु दिशं पञ्चोत्तरेषूतरां. ___ यातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्ण नृपजे श्री वल्लभं दक्षिणाम् ।। २. विशेष विवरण के लिये देखिये नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास पृ० ११४. ३. देखिये महापुराण (भारतीय ज्ञान पीठ, काशी से प्रकाशित) का प्रास्ताविक, डा. हीरालाल व ए० एन० उपाध्ये तथा जैन साहित्य और इतिहास-प्रेमी पृ० १२७. ४. जैन सा० और इतिहास-प्रेमी पृ० १४०. ५. वही पृ० १११ (द्वितीय संस्करण). ६. वही पृ० ४१२. ७. ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई से प्रकाशित. ८. प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० २१६. Dherai R MAHATTIMINATICIAL ALLinkICL WHAYALAMRITIERRAHA HAIN URLD Jain Eve RCLirary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर कोटिया : जैन कृष्ण-साहित्य : ७५६ कृष्ण-साहित्य की दृष्टि से इनका पाण्डवपुराण बहुत ही उल्लेखनीय ग्रन्थ है. इसी ग्रन्थ से प्रभावित होकर हिन्दी में बुलाकीदास ने पाण्डवपुराण की रचना की. यह ग्रन्थ वि० संवत् १६०८ में समाप्त हुआ.' (8) हस्तिमल्ल व उनके नाटक :-दिगम्बर सम्प्रदाय के साहित्यकारों में इनका अति महत्त्वपूर्ण स्थान है. उपलब्ध जैन संस्कृत साहित्य में ये ही ऐसे लेखक हैं, जिनके लिखे नाटक उपलब्ध हैं. ये वत्सगोत्री ब्राह्मण थे तथा समन्तभद्रकृत देवागमस्तोत्र से प्रभावित होकर जैन हो गये थे. हस्तिमल्ल इनका असली नाम नहीं था पर एक मस्त हाथी को वश में करने के उपलक्ष्य में इन्हें पाण्डय राजा ने यह नाम दिया था. कृष्णसाहित्य की दृष्टि से इनकी 'विक्रान्तकौरव' तथा 'सुभद्रा' (अर्जुन राज) ये दो कृतियां उल्लेखनीय हैं. इनका ई० सन् १२४० (वि० संवत् १३४७) में होना निश्चित किया जाता है.२ (10) अन्य रचनाएँ:-संस्कृत-जैन कृष्णसाहित्य १७ वीं शताब्दी तक का उपलब्ध है. कुछ उपलब्ध कृतियों के नाम इस प्रकार हैं : [अ] पाण्डवचरित देवप्रभसूरि रचना संवत् १२५७ [आ] पाण्डवपुराण भट्टारक श्रीभूषण १६५७ [इ] हरिवंशपुराण १६७५ [ई] प्रद्युम्नचरित सोमकीर्ति १५३० प्रद्युम्नचरित रविसागर १६४५ रतनचन्द १६७१ मल्लिभूषण १७ वीं शताब्दी [ए] नेमिनिर्वाण काव्य महाकवि वाग्भट रचना संवत् ११७६ के लगभग [ओ] नेमिनाथपुराण ब्रह्म नेमिदत्त [औ] नेमिनाथचरित्र गुणविजय [गद्य ग्रन्थ] " १६६८ [अ] हरिवंशपुराण भट्टा० यशकीर्ति १६७१ अपभ्रंश का जैन-कृष्ण-साहित्य :-अपभ्रंश-साहित्य की रचना में जैनों का सर्वाधिक योग रहा है. उपलब्ध अपभ्रशसाहित्य का करीब ८० प्रतिशत भाग जैनाचार्यों द्वारा लिखा गया है. यद्यपि अपभ्रश का उल्लेख ई० पू० दूसरी शताब्दी में [पातञ्जल महाभाष्य में मिलता है, परन्तु इसका साहित्य आठवीं शताब्दी से ही उपलब्ध होता है. उपलब्ध साहित्य के प्रथम कवि स्वयंभू हैं और कृष्ण साहित्य की दृष्टि से भी वही प्रथम कवि हैं. (१) महाकवि स्वयंभू और उनका रिटणेमिचरिउ :-स्वयंभू वि० की आठवीं शताब्दी के कवि हैं. ये एक सिद्धहस्त कवि थे. इनकी कविता अत्यन्त प्रौढ़, पुष्ट व प्रांजल है. कृष्ण-साहित्य की दृष्टि से रिटुणेमिचरिउ एक उल्लेखनीय कृति है. यह महाकाव्य है. इसमें ११२ संधियां तथा १६३७ कडवक हैं. यह चार काण्डों में विभाजित है—यादव, कुरु, युद्ध और उत्तर. कृष्णजन्म, बाल-लीला, कृष्ण के विभिन्न विवाह, प्रद्युम्न, साम्ब आदि की कथा, नेमिजन्म आदि यादवकाण्ड में वणित हुए हैं. (२) तिसट्ठि महापुरिस गुणालंकार :-यह अपभ्रंश के सर्वश्रेष्ठ कवि पुष्पदन्त की रचना है. पुष्पदन्त के काव्य के विषय में प्रेमी जी का यह कथन उद्धृत करना ही पर्याप्त होगा-उनकी रचनाओं में जो ओज, जो प्रवाह, जो रस और २. देखिये-वाचस्पति गैरोला-संस्कृत सा० का इतिहास पृ० ३६१-६२ तथा प्रेमी-जैन सा० और इतिहास पृ० ३८३-८४. २. विशेष विवरण के लिये देखिये-जैन सा० और इतिहास पृ० ३६४-३७०. ३. अपभ्रंश साहित्य-डा० हरिवंश कोछड पृ० १. ४. विशेष विवरण के लिये देखिये-वही पृ०६७-७२ तथा नाथूराम प्रेमी-जैन सा० और इतिहास-पृ० ११८, १६६. POIN INE ACINEARN Jain ल Sinelibrary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय जो सौन्दर्य है, वह अन्यत्र दुर्लभ है. भाषा पर उनका असाधारण अधिकार है. उनके शब्दों का भण्डार विशाल है और शब्दालंकार व अर्थालंकार दोनों से उनकी कविता समृद्ध है" : प्रस्तुत रचना एक महाकाव्य है. इसमें १०२ सन्धियाँ हैं. इसमें जैन-परम्परा में मान्य त्रेषठ शलाका पुरुषों का चरितवर्णन हुआ है. ८१ से १२ तक की सन्धियों में हरिवंशपुराण की प्रसिद्ध जैन-कथा को पद्यबद्ध किया गया है. इसकी रचना ६५६-६६५ ई० में हुई : (३) हरिवंशपुराण :-जयपुर के बड़े तेरापंथियों के मन्दिर में उपलब्ध कवि धवल कृत प्रस्तुत कृति कृष्ण-काव्य की दृष्टि से उल्लेखनीय है. इसका कथानक जैन-परम्परागत है और मुख्यतः जिनसेन (प्रथम) कृत हरिवंशपुराण (संस्कृत) पर आधारित है. इस ग्रन्थ में १२२ सन्धियाँ हैं. यह १० वीं शताब्दी की रचना है. (४) सकलविधिनिधान काव्य :-आमेर (राजस्थान) शास्त्रभण्डार में इसकी हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है. ग्रन्थ का प्रमुख विषय विधिविधानों एवं आराधनाओं का उल्लेख व विवेचन है. धार्मिक भावनाओं को व्यक्त करने के लिये प्राचीन कथाओं और उपाख्यानों का आश्रय लिया गया है. ग्रन्थ में ५८ सन्धियाँ हैं. ३६ वीं सन्धि में महाभारत युद्ध का उल्लेख है. इसके रचयिता नयनंदी हैं. कृति का रचनाकाल ११०० के लगभग अनुमान किया गया है : (५) पज्जुण्णचरिउ :-प्रस्तुत कृति १५ सन्धियों की खण्डकाव्य कोटि की रचना है. इसमें श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का चरित वर्णन हुआ है. इसके रचयिता कवि सिंह (१३ वीं शता० वि० प्रारंभ) थे. कुछ लोगों का अनुमान है कि मूलग्रन्थ सिद्ध नामके किसी कवि की रचना है, क्योंकि ग्रन्थ की प्रथम आठ सन्धियों में कवि का नाम सिद्ध मिलता है, बाद में सिंह. संभव है सिंह कवि ने मूलग्रन्थ का उद्धार किया हो : (६) णेमिणाहचरिउ :-णेमिणाहचरिउ एक खण्डकाव्य है. इसमें ४ सन्धियां व ८३ कड़वक हैं. ग्रन्थ का मुख्य विषय श्रीकृष्ण के चचेरे भाई तथा जैन-परम्परा के २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ का चरित है. इस ग्रन्थ के रचयिता लखमदेव (लक्ष्मणदेव) हैं. ग्रन्थ की रचना १५ वीं शताब्दी के उत्तरकाल में हुई, क्योंकि वि० सं० १५१० की लिखी एक हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है. कवि ने स्वयं रचनाकाल का कोई निर्देश नहीं किया है. (७) महाकनि यशकीर्ति व उनके ग्रन्थ :-यशकीर्ति १५ वीं शताब्दी के उत्तरकाल के कवि हैं. कृष्ण-साहित्य की दृष्टि से उनके दो ग्रन्थ 'पाण्डवपुराण' व 'हरिवंशपुराण' उल्लेखनीय हैं. इनमें पाण्डवपुराण को कवि ने कार्तिक शुक्ला अष्टमी बुधवार वि० संवत् १४६७ में समाप्त किया. हरिवंशपुराण की समाप्ति भाद्रपद शुक्ला एकादशी गुरुवार वि० संवत् १५०० में हुई. पाण्डवपुराण में ३४ सन्धियाँ तथा हरिवंशपुराण में १३ सन्धियां व २६७ कडवक हैं. काव्यदृष्टि से हरिवंशपुराण अच्छी रचना है : (८) श्रुतकीर्ति का हरिवंशपुराण :-कवि श्रुतकीर्तिकृत हरिवंशपुराण की हस्तलिखित प्रतिलिपि जयपुर (आमेर) के शास्त्रभण्डार में उपलब्ध है. यह कवि १६ वीं शताब्दी के मध्य में हुए थे. इनके दो ग्रन्थ अभी प्रकाश में आए हैं. (१) हरिवंशपुराण (२) परमेष्ठिप्रकाश. हरिवंश में ४४ सन्धियाँ हैं: डॉ० कोछड़ ने इसे महाकाव्यों में गिना है.६ कृष्ण-चरित का वर्णन करने वाले अपभ्रंश के उक्त काव्य ही अभी तक प्रकाश में आये हैं. अपदंश साहित्य की खोज के साथ और भी कुछ ग्रंथ प्रकाश में आवें, ऐसी पूरी संभावना है. १. नाथूराम प्रेमा-जैन सा० और इतिहास पृ० ५२५. २. विस्तृत विवरण के लिये देखिये-डा० कोछड़-अपभ्रंश साहित्य पृ० ७२-८५. ३. अपभ्रंश साहित्य-डा० हरिवंश कोछड पृ० १७५. ४. पं० परमानन्द जैन का लेख-अनेकान्त ८।१०११। पृ० ३९१. ५. अपभ्रंश साहित्य-डा० हरिवंश कोछड़ पृ० ११८-१२२. ६. बही पृ० १२८-२८ *** *** *** . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .niiiiiiiiii....................irninin......... JainERDONTAbl....................... nuvataaPEN U S . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .. . . . . Hin-library.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर कोटिया : जैन कृष्ण-साहित्य : ४६१ हिन्दी-जेन कृष्ण साहित्य हिन्दी भाषा में जैन साहित्यकारों द्वारा रचित बहुत साहित्य उपलब्ध है और दिनप्रतिदिन जैसे-जैसे जैन- भण्डारों की खोजबीन की जा रही है, नया-नया साहित्य प्रकाश में आता जा रहा है. पिछले कुछ ही वर्षों में हिन्दी का जैन साहित्य ( विद्वानों के अथक परिश्रम के फलस्वरूप ) बहुत बड़े परिमाण में प्रकाश में आया है. जहाँ तक हिन्दी के आदिकालिक साहित्य का प्रश्न है, इन खोजों के फलस्वरूप बहुत ही मजेदार परिणाम सामने आये हैं. प्रायः शुक्ल जी आदि हिन्दी के विद्वानों ने आदिकालिक हिन्दी साहित्य में जिन कृतियों की गिनती की थी, ' आधुनिक खोजों के आधार पर उनमें से कुछ को छोड़कर सभी कृतियां संदिग्ध सिद्ध हो गई हैं तथा बहुत काल बाद की रचना बताई जाने लगी हैं. उनके स्थान पर बहुत सी नवीन कृतियाँ आदिकालिक साहित्य में प्रतिष्ठित हो रही हैं. उनमें अधिकांश कृतियां जैन रचनाकारों की हैं. Jain Educatorlu जहां तक हिन्दी के जैन-कृष्ण-साहित्य का प्रश्न है, यह विपुल मात्रा में उपलब्ध है. इस साहित्य की एक बड़ी विशेषता यह है कि यह अधिकांश में प्रबन्धकाव्य की कोटि का है, जब कि जैनेतर हिन्दी-कृष्ण-साहित्य मुख्यतः मुक्तक है. पुनः हिन्दी - जैन- कृष्ण-साहित्य में कृष्ण के व्यक्तित्व का बड़ा भव्य चित्रण हुआ है. र हिन्दी साहित्य के कृष्ण जहाँ गोपीजनवल्लभ, राधाघर-वापान लिबनमाली और 'होरी बेलन वाले लता है, वहाँ हिन्दी जैन-कृष्ण-साहित्य के श्रीकृष्ण महान् पराक्रमी व शक्तिशाली राजा हैं. वे वासुदेव हैं और अधम तथा आततायी पुरुषों के भार से पृथ्वी को मुक्त करने वाले हैं. वे गोपियों के साथ यमुनातट पर रासलीला करते नहीं घूमते वे तो निर्विकार पुरुष है. प्रेसठशलाका पुरुषों में उनका अन्यतम स्थान है. T पिछले २-३ वर्षों से हिन्दी जैन कृष्ण-साहित्य की खोज के दौरान कोई आधा सैकड़ा हस्तलिखित पुस्तकें उपलब्ध हुई हैं. इनमें कुछ तो काव्य की दृष्टि से अति सुंदर हैं तथा भाषा-शास्त्र की दृष्टि से भी उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है. विशेषतया आदिकाल की कालावधि में रचित पुस्तकों का तो अपना ही महत्त्व है. हिन्दी - जैन- कृष्ण साहित्य पर स्वतंत्र रूप से बहुत कुछ लिखा जा सकता है. इस छोटे से लेख में उसके विषय में कुछ थोड़ा-सा उल्लेख भर दिया जा रहा है. इस दृष्टि से कि पाठक को 'जैन कृष्ण साहित्य' का एक ही स्थान पर परिचय मिल सके. प्रस्तुत लेख का कलेवर भी काफी बढ़ गया है, इसलिए हिन्दी - जैन-कृष्ण-साहित्य की विभिन्न कृतियों का विशेष रूप से उल्लेख न करते हुए सूची मात्र दे देना पर्याप्त होगा. ग्रंथ के नाम के साथ लेखक का नाम, रचना संवत् तथा उपलब्धि का स्थान भी दिया जा रहा है. क्रम सं० रचना का नाम रचयिता नेमिनाथरास सुमतिगणि वि०सं० १२७० देहण १३१५-२५ गयसुकुमाल रास १. २. ३. पंचपाण्डवचरितरास शालिभद्रसूरि १४१० ४. प्रदुम्नचरित ५. बलभद्र रास ६. नेमिजिनेश्वररासो ७. प्रद्युम्नरासो *** समय सधार यशोधर ब्रह्मरायमल्ल १६१५ १६२८ 33 *** उपलब्धि का स्थान हस्तलिखित प्रति जैसलमेर दुर्ग स्थित भण्डार में उपलब्ध हस्तलिखित प्रति जैसलमेर दुर्ग स्थित बड़े भण्डार में उपलब्ध गुर्जर सावली गा०ओ० सीरीज बड़ौदा, ४०१ ३४ तथा 'आदि काल के अज्ञात हिन्दी रास काव्य' पृ० १२६ ५८ पर उपलब्ध. जैन शोध संस्थान, जयपुर से प्रकाशित १४११ वि० सं० १५८५ दि० जैन मन्दिर बड़ा, उदयपुर १. (१) खुमाणरासो (२) बीसलदेवरासो (३) पृथ्वीराजरासो (४) जयचंद प्रकाश (५) जयमयंकजस चन्द्रिका (६) परमाल रासो (७) रणमल छन्द (८) खुसरो की पहेलियाँ (३) विद्यापति की पदावली. दि० जैन मन्दिर पटौदी दि० जैन मन्दिर लूणकरणजी पांड्या, जयपुर *** Private & Personal Use Only *** *** Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 762 : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय क्रम सं० रचना का नाम रचयिता समय उपलब्धि का स्थान 8. प्रद्युम्न चौपई कमलकेशर 1626 6. नेमिनाथ रासो रूपचन्द 1643 के आस पास 10. शाम्ब प्रद्युम्नरास समयसुन्दर गणि 1656 प्रतिलिपि आमेर शास्त्र भण्डार 11. हरिवंशपुराण (हि० गद्य) 1671 12. हरिवंशपुराण (पद्य) शालिवाहन 1665 दि० जैन मन्दिर पल्लिवालों का धूलियागंज आगरा / 13. नेमिश्वर को रस भाऊ कवि 1666 दि. जैन मन्दिर नया बैराठियां का जयपुर 14. नेमिनाथरास रत्नकीर्ति 1666 15. शाम्बप्रद्युम्नरास ज्ञानसागर 17 वीं शताब्दी 16. प्रद्युम्न प्रबन्ध देवेन्द्रकीति 1722 आमेर भण्डार, जयपुर 17. रूक्मणि कृष्णजी को रास निपरदास 1736 (प्र.लि.) दि० जैन मन्दिर गोधों का, जयपुर पाण्डवपुराण बुलाकीदास 1754 वि० सं० आमेर शास्त्र भण्डार 19. पाण्डव चरित्र लाभवर्द्धन 1768 दि० जैन मन्दिर संघीजी, जयपुर 20. नेमीश्वररास नेमिचन्द्र 1766 आमेर शास्त्र भण्डार 21. हरिवंशपुराण खुशालचन्द काला 1780 शास्त्रभण्डार लूणकरजी पांड्या मन्दिर, जयपुर 22. उत्तरपुराण 1766 सौगाणियों का दि० जैन मन्दिर करौली, 23. नेमिनाथचरित्र अजयराज पाटनी 1763 दि. जैन मन्दिर ठोलियों का, जयपुर 24, नेमिजी का चरित्र आनन्द 1804 दि० जैन मन्दिर, जोबनेर 25. प्रद्युम्नरास मायाराम 1818 26. हरिवंशपुराण (हि०गद्य) दौलतराम 1826 प्रकाशित 27. प्रद्युम्नचरित्र बूलचन्द 1843 सेठ के कूचा का दि० जैन मन्दिर, दिल्ली 28. शाम्बप्रद्युम्नरास हर्षविजय 1845 नेमिचन्द्रिका मनरंगलाल 1857 दि० जैन मन्दिर बड़ा तेरापन्थी, जयपुर 30. देवकी की ढाल लूणकरण 1885 (लिपि संवत्) दि० जैन मन्दिर डबलाना कासलीवाल उल्लिखित ग्रन्थों के अतिरिक्त २०वीं शताब्दी के हिन्दी गद्य में अनुवादित बहुत से ग्रंथ उपलब्ध हैं. कुछ नाम इस प्रकार हैं. (31) नेमिपुराण भाषा-भागचन्द (32) नेमिपुराणभाषा-वखतावरमल (3) प्रद्युम्नचरित भाषा-ज्वालाप्रसाद, वखतावरसिंह (34) पाण्डवपुराण-पन्नालाल चौधरी (35) राघवपाण्डवीय टीका-चरित्रवर्द्धन (36) नेमिपुराण भाषा-उदयलाल (37) नेमिनाथ चरित्र-काशीराम (38) पाण्डवपुराण टीका-घनश्यामदास न्यायतीर्थ (36) प्रद्युम्नचरित्र--शीतलप्रसाद (40) प्रद्युम्नकुमार (पद्यमय)-अमोलकऋषिजी महाराज (गद्यसंस्करणशोभाचन्द्र भारिल्लकृत) (41) उत्तरपुराणवचनिका-पन्नालाल दूनी वाले (42) प्रद्युम्नचरित-बख्तावरमलरतनलाल (43) प्रद्युम्नचरित बचनिका—मन्नालाल बैनाड़ा. जैन-कवियों के कृष्ण सम्बन्धी पद भी बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं. इन कवियों में बनारसीदास, द्यानतराय, भैया भगवतीदास, बुधजन, भूधरदास, पं० महाचन्द्र प्रभृति कवियों के सुन्दर पद मिलते हैं. 26.