Book Title: Jain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi Author(s): Mulchandra Jain Publisher: Jain Sahitya Sammelan Damoha View full book textPage 8
________________ संस्कृतज्ञ सज्जन सो उनकी दृष्टि में बेचारी हिन्दी भाषा की औकात ही क्या है वे अपनी संस्कृत की धुन में ही मस्त रहते हैं। हिन्दी के जैन साहित्य की प्रकृति शांति रस है। जैन कवियों के प्रत्येक ग्रन्थ में इसी रस की प्रधानता है। उन्होंने साहित्य के उच्चतम लक्ष्य को स्थिर रक्खा है भारत के अन्य प्रतिशत निन्यानवे ककि केवल शृंगार की रचना करने में ही व्यस्त रहे हैं कविवर तुलसीदास, कबीरदास, नानक, भूपण आदि कुछ कवि ही ऐसे हुए हैं जिन्होंने भक्ति, अध्यात्म और वीरता के दर्शन कराए है इनके अतिरिक्त हिन्दी के प्रायः सभी कवियों ने शृंगार और विलास की मदिरा से ही अपने काव्य रस को पुष्ट किया है। इसके परिणाम स्वरूप भारत अपने कर्तव्यों और आदर्श चरित्रों को भूलने लगा और उनमें से शक्ति और अोज नष्ट होने लगा। राजाओं तथा जमीदारों के आश्रित रहने वाले श्रृंगारी और खुशामदी कवियों ने उन्हें कामिनी कटाक्षों से बाहर नहीं निकलने दिया है। वास्तव में भारत के पतन में ऐसे विलासी कवियों ने अधिक सहायता पहुँचाई है और जनता के मनोबल नष्ट करने में उनकी श्रृंगारी कविता ने जहर का काम किया है। साहित्य का प्रधान लक्ष्य जनता में सच्चरित्रता, संयम, कर्तव्यशीलता और वीरत्व की वृद्धि करना है काव्य के रस द्वारा उनके अात्म बल को पुष्ट वनाना और उन्हें पवित्र आदर्श की ओर ले जाना है। संसार को देवत्व और मुक्ति की ओर ले जाना ही काव्य का सर्व श्रेष्ठ गुण है। आनंद और विनोद तो उसका गौण साधन है।Page Navigation
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