Book Title: Jain Katha Sangraha Part 01
Author(s): Kalyanbodhivijay,
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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॥८॥
प्रथ अर्हवाम प्रथमस्थानककथा. मृगसुन्दरी
दानानि शीलानि तपांसि पूजा सत्तीर्थयात्रा प्रवरा दया च । सुश्रावकत्वं व्रतधारकत्वं सम्यक्त्वमूलानि महाफलानि ॥१२॥ कथा ॥८॥
तत्र सर्वेष्वपि स्थानकेषु श्री सम्यग्दर्शननैर्मल्यकारिणी श्रीजिनपूजा त्रिकालं विधेयाः यत:
जो पूएइ तिसंझं जिणंदरायं तहा विगयदोस । सो तइयभवे सिज्झइ अहवा सत्तमे जम्मे ॥२॥ जिणपूअणं तिसंझं कुणमाणो सोहए प्रय सम्मत्तं । तित्थयरनामगुत्तं पावइ सेणीयनरिंदब्व ॥३॥
तद्यथा-एक शोऽष्ट प्रकारा विधेया जिनार्चा, पञ्चशक्र स्तवैश्व देवा वंदनीयाः तत्र द्रव्यभावाभ्यां द्विविधा जिनपूजा, सयस्कसुरभिपुष्पादिभिर्यदुत्तमद्रव्यैर्जिनार्चा सा द्रव्यपूजा, सम्यगाज्ञापालनं भावपूजा यत:
दुविहा जिणंदपूआ दब्वे भावे य तत्थ दब्बंमि । दब्वेहिं जिणपूआ जिणआणापालणं भावे ॥४॥ अहवा उ भावपूआ ठाउं चिय वंदणोचिएठाणे EE । जहसत्ति चित्तथुइबुत्तमाइणा देववंदणयं ॥५॥ उकोसं दब्बथयं आराहिय जाइ अच्चुअं जाव । भावत्थेयह पावइ अंतमुहुत्तेण निव्वाणं ॥६॥ र अथवा त्रिविधा पञ्चविधाऽष्टविधा वा जिनपूजा, यतःa विग्योवसामि एगा अच्चन्भुअसाहिणी भवे बीआ। निब्बुइकरणी तइया अंगग्गयभावओ तिहा पूआ ॥७॥ पंचोवयारजुत्ता पूआ अट्ठोवयारकलिया य । रिद्धिविसेसेण पुणो नेया सब्बोवयारावा ॥८॥ वरकुसुमावलिअक्खयचंदणदवधूवपयरदीवेहिं । पंचोक्यार पूआ कायचा बीयरागाणं ॥९॥ सुमक्खयगंधपईवधूवनेवज्जफलजलेहिं पुणो । अठ्ठविहकम्ममहणी जिणपूआ अट्टहा भणिआ ॥१०॥ सब्बोवयारपूआ

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