Book Title: Jain Jyotish Pragati aur Parampara
Author(s): Rajendraprasad Bhatnagar
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 4
________________ जैन ज्योतिष: प्रगति और परम्परा के कुछ अधिकारों का ज्ञान आचार्य धरसेन के पास शेष रहा। उन्होंने यह ज्ञान अपने दो शिष्यों पुष्पदंत और भूतबलि को दिया, जिसके आधार पर उन्होंने 'षट्खण्डागम' की सूत्र रूप में रचना की । यह ग्रंथ प्राप्त है और टीका व अनुवाद सहित तेईस भागों में प्रकाशित हो चुका है। इस पर आचार्य वीरसेन कृत 'धवला' नामक टीका मौजूद है। इस टीका में ज्योतिष और गणित सम्बन्धी अनेक विचार प्रकट हुए हैं। श्वेताम्बर परम्परानुसार वीर निर्वाण के १७० वर्ष बाद भद्रबाहु स्वर्गवासी हुए। इसके बाद 'पूर्वी' का ज्ञान क्रमशः लुप्त होता गया। पूर्वो के विच्छेद का क्रम देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ( वी० नि० सं० ६८० या ६६३ ई०४५४ या ४६६) तक चलता रहा । स्वयं देवद्धगणी ११ अंग और एक पूर्व से कुछ अधिक श्रुत के ज्ञाता थे । श्वेताम्बर मत में आगम साहित्य का बहुत-सा अंग लुप्त होने पर भी कुछ मौलिक अंत अब तक पारम्परिक रूप से सुरक्षित है। श्वेताम्बर परम्परा में स्वीकृत आगम साहित्य अर्धमागधी प्राकृत भाषा में मिलता है। 'षट्खण्डागम' की टीका में दिये गये प्राचीन गाथाएँ आदि उद्धरण शौरसेनी प्राकृत में हैं । अर्धमागधी प्राकृत का प्रचलन शूरसेन (मथुरा) और मगध के मध्य अयोध्या के समीपवर्ती क्षेत्र में था। शूरसेन (मथुरा) के आसपास 'शौरसेनी' प्राकृत का प्रचलन था । ३६५. ज्योतिष : एक कला भी जैन सूत्रों में जिन ७२ कलाओं का उल्लेख मिलता है, उनमें ज्योतिष विद्या को भी परिगणित किया गया है । इसमें 'बार' अर्थात् ग्रहों की अनुकूल गति और प्रतिचार' अर्थात् ग्रहों की प्रतिकूल गति का विचार किया गया है। कल्पसूत्र (१।१०) से ज्ञात होता है कि महावीर ने गणित और ज्योतिष विद्या आदि में कुशलता प्राप्त की थी। ज्योतिष को 'नक्षत्र विद्या' भी कहा गया है। (दशवैकालिक, ८।५१) । जैन ग्रन्थों में धर्मोत्सवों के समय और स्थान के निर्धारण हेतु ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान जरूरी माना गया है । इसके विपरीत बौद्धग्रन्थों में बौद्धभिक्षुओं के लिए ज्योतिष विद्या और अन्य कलाओं का सीखना निषिद्ध माना गया है। यही कारण है कि जैन विद्वानों और आचायों ने ज्योतिष में आश्चर्यजनक प्रगति की थी बौद्धों में यह विद्या अप्रचलित रही। 1 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' (२1१) और 'उत्तराध्ययन' ( २५७, ३६) में 'संख्यान' (गणित) और 'जोइस' (ज्योतिष) को चौदह विद्यास्थानों में परिगणित किया गया है। गणित और ज्योतिष का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । अतः यह तथ्य ध्यान में रखना होगा कि प्रायः दोनों विषयों के ग्रन्थ अन्योन्य सम्बन्ध रखते हैं । भारतीय ज्योतिष का क्रमशः विकास हुआ है और उसके नये-नये भेद-प्रभेद प्रकट हुए हैं। प्रारम्भ में ज्योतिष का उद्भव उत्सवादि - यज्ञादि कार्य के समय और स्थान के शुभाशुभ विचार की दृष्टि से नक्षत्र, ऋतु, अयन, दिन, रात्रि, लग्न आदि के विचार से हुआ था । उस समय गणित और फलित ये दो भेद नहीं थे । सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरण्डक, वेदांगज्योतिष में ज्योतिष का प्रारम्भिक रूप मिलता है । कालान्तर में ज्योतिष के दो भेद प्रकट हुए गणित और फलित ग्रहों की गति, स्थिति, अयनांश आदि से सम्बन्धित गणित ज्योतिष तथा शुभाशुभ फल व काल विचार, यज्ञ-याग, उत्सव आदि के समय व स्थान के निर्धारण का विचार फलित ज्योतिष का विषय माना जाने लगा। इसके बाद ज्योतिष का त्रिस्कन्धात्मक रूप प्रकाश में आयासिद्धान्त, संहिता और होरा। आगे चलकर इसके पाँच भेद हो गये - होरा, गणित, संहिता, प्रश्न और निमित्त । (१) होरा को 'जातक' भी कहते हैं। यह शब्द 'अहोरात्र' से बना है पहला 'अ' और अन्तिम 'व' अक्षर कालोप होने से 'होरा' शब्द बना है । मनुष्य के जन्म के समय ग्रहों की स्थिति के आधार पर फलादेश किया जाता है । जन्म कुण्डली के द्वाद भावों के फलाफल का ग्रहों के अनुसार विवेचन करना 'होराशास्त्र' कहलाता है। Jain Education International (२) गणित ज्योतिष में कालगणना, सौरचान्द्रमानों का प्रतिपादन, ग्रहगतियों का निरूपण प्रश्नोत्तर विवेचन और अक्षक्षेत्र सम्बन्धी अज्या, लंबज्या ज्या कुण्या तदुद्धृति, समशंकु आदि का निरूपण किया जाता है। गणित के भी तीन प्रभेद प्रकाश में आये - सिद्धान्त, तन्त्र और करण । , For Private & Personal Use Only 6916 www.jainelibrary.org.

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