Book Title: Jain Jyotish Pragati aur Parampara
Author(s): Rajendraprasad Bhatnagar
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 7
________________ ३९८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड कालचक्र में अवसर्पिणी के छः और उत्स पिणी के छ: आरे हैं। इन आरों को 'युग' या 'काल' भी कहते हैं । अवसर्पिणी के छ: काल हैं-प्रथम काल 'सुषमा-सुषमा', द्वितीय काल 'सुषमा', तृतीय काल 'सुषमा-दुषमा', चतुर्थ काल 'दुषमा-सुषमा', पंचम काल 'दुषमा' और षष्ठकाल 'दुषमा-दुषमा' है। उत्सर्पिणी में इसके विपरीत काल अर्थात् क्रमशः छठा, पाँचवाँ, चौथा, तीसरा, दूसरा, पहला होता है। अवसर्पिणी के कालों में क्रमश: अवनति तथा उत्सर्पिणी के कालों में क्रमशः उन्नति होती है। अवसर्पिणी के पहले तीन कालों में यहाँ 'भोगभूमि' की रचना होती है। इस समय मनुष्य खान, पान, शरीराच्छादन आदि सारे काम उस काल के वृक्षों से पूरे करते हैं, अत: इन वृक्षों को 'कल्पवृक्ष' कहते हैं। तीसरे काल के अन्त में १४ कुलकर उत्पन्न होते हैं। इस समय 'कर्मभूमि' की रचना प्रारम्भ होती है । अन्तिम तीन कालों में यहाँ कर्मभूमि की रचना होती है। ये कुलकर जीवों को विभिन्न प्रकार की शिक्षाएँ देते हैं । प्रथम कुलकर 'प्रतिश्रुति' ने मनुष्य की प्रथम बार सूर्य व चन्द्रमा आदि को देखकर प्रकट की गई शंका का निवारण किया, सूर्य-चन्द्र के उदय अस्त का रहस्य समझाया (तब से दिन, काल और वर्ष का प्रारम्भ हुआ। वह दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा का प्रात:काल था)। उन्हें ज्योतिष की शिक्षा दी । ग्रहों के ज्ञान से मनुष्य अपने कार्य चलाने लगे। द्वितीय कुलकर ने मनुष्य को नक्षत्र और तारा सम्बन्धी शंकाओं का निवारण कर ज्योतिष ज्ञान को आगे बढ़ाया। यह पहले ज्योतिर्विद थे। अन्तिम कुलकर नाभिराज ने असि, मसि, कृषि, विद्या-वाणिज्य, शिल्प और उद्योग इन षट्कर्मों की शिक्षा दी। कुछ विद्वान् इनके आविष्कारक नाभिराज के पुत्र प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को मानते हैं। इसके बाद २४ तीर्थकर (ऋषभ आदि), १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव और प्रतिवासुदेव, ये ६३ (त्रिषष्टि) 'शलाका पुरुष' चौथे काल में हुए। महावीर निर्वाण के बाद पाँचवाँ दुषमा काल शुरू हुआ, जो चालू है। इस क्रम से वर्तमान मानव सभ्यता का विकास क्रमशः हुआ है। कुलकरों से पूर्व का काल प्रीहिस्टोरिक और उनके बाद तीर्थंकरों तक का काल प्रोटोहिस्टोरिक माना जाता है। इस प्रकार जैन ज्योतिष की परम्परा कुलकरों के समय से प्रारम्भ होती है, परन्तु जो साहित्य उपलब्ध है, वह बहुत बाद का है । सम्भव है, ज्योतिष सम्बन्धी प्राचीन मान्यताएँ उसमें पारम्परिक रूप से अन्तनिहित हों। आगम-साहित्य में ज्योतिष सम्बन्धी प्रमाण जैन आगम-ग्रन्थों में ज्योतिष सम्बन्धी दिन, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, ग्रहण, ग्रह, नक्षत्र आदि का स्थानस्थान पर विचार आया है, आगमों का रचनाकाल ईसा की पहली शती या कुछ बाद का माना जाता है। प्रश्नव्याकरणांग (१०/६) में १२ महीनों की १२ पूर्णमासी और अमावस्याओं के नाम व उनके फल बताये गये हैं। श्रावण मास की श्रविष्ठा, भाद्रपद की पौष्ठवती, आश्विन की असोई, कार्तिक की कृत्तिका, मार्गशीर्ष की मृगशिरा, पौष की पौषी, माघ का माघी, फाल्गुन की फाल्गुनी, चैत्र की चैत्री, बैशाख की बैशाखी, ज्येष्ठ की मूली और आषाढ़ की आषाढ़ी पूर्णिमा होती है। अयन दो होते हैं-उत्तरायण और दक्षिणायन । जैन मान्यतानुसार जम्बूद्वीप के बीच में सुमेरु पर्वत है। सूर्यचन्द्र इस पर्वत की परिक्रमा करते हैं । परिक्रमा की गति से उत्तरायण और दक्षिणायन होते हैं। सुमेरु की प्रदक्षिणा के इनके गमनमार्ग या वीथियाँ १८३ हैं। सूर्य एक मार्ग को दो दिन में पूरा करता है, अत: ३६६ दिन या एक वर्ष में यह प्रदक्षिणा पूरी होती है। सूर्य जब जम्बूद्वीप के भीतरी मार्ग से बाहर लवणसमुद्र की ओर जाता है, तब दक्षिणायन और जब सूर्य लवण समुद्र के बाहरी अन्तिम मार्ग से चलता हुआ जम्बूद्वीप के भीतरी मार्ग में गमन करता है तब उत्तरायण होता है । 'स्थानांग' और 'प्रश्न-व्याकरणांग' में सौरवर्ष का विचार मिलता है । 'समवायांग' में ३५४ से कुछ अधिक दिनों का चान्द्रवर्ष माना गया है। 'स्थानांग' (५।३।१०) में पाँच वर्ष का एक युग बताया गया है। पंच-संवत्सरात्मक युग के ५ भेद हैं-नक्षत्र, युग, प्रमाण, लक्षण और शनि । युग के भी ५ भेद हैं-चन्द्र, चन्द्र, अभिद्धित, चन्द्र और अभिवद्धित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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