Book Title: Jain Jyotish Pragati aur Parampara
Author(s): Rajendraprasad Bhatnagar
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिषः प्रगति और परम्परा - डॉ. राजेन्द्र प्रकाश भटनागर, [प्राध्यापक, राजकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, उदयपुर (राज.)] भारतीय ज्योतिष एक अत्यन्त प्राचीन शास्त्र है। 'तत्त्वार्थ' (अ०४, सू०१३) में लिखा है----'ज्योतिष्काः सर्यश्चन्द्रमसौ प्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च'। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्रों के साथ प्रकीर्णक तारों को ज्योतिष्क (चमकने वाले प्रकाशमान) कहते हैं। इनसे सम्बन्धित शास्त्र या विज्ञान को 'ज्योतिष' कहते है (ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्)। ज्योतिषशास्त्र भारतीयों का मौलिक विशिष्ट विज्ञान है । डा० नेमिचन्द शास्त्री ने लिखा है-"यदि पक्षपात छोड़कर विचार किया जाय तो मालूम हो जायगा कि अन्य शास्त्रों के समान भारतीय ही इस शास्त्र के आदि आविकर्ता है।" (भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ ३१)। ज्योतिष का आधार अंकज्ञान है। यह ज्ञान भी भारतीयों का मौलिक है । डा० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का मत है-"भारत ने अन्य देशवासियों को जो अनेक बातें सिखाई, उनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान अंकविद्या का है । संसारभर में गणित, ज्योतिष, विज्ञान आदि की जो उन्नति पायी जाती है, उसका मूल कारण वर्तमान अंकक्रम है, जिसमें एक से नौ तक के अंक और शून्य इन दस चिह्नों से अंकविद्या का सारा काम चल रहा है। यह क्रम भारतवासियों ने ही निकाला और इसे संसार ने अपनाया।" (मध्यकालीन भारतीय संस्कृति, पृ० १०८)। अलबेरुनी भी लिखता है--"ज्योतिषशास्त्र में हिन्दू लोग संसार की सभी जातियों से बढ़कर हैं । मैंने अनेक भाषाओं के अंकों के नाम सीखे हैं, पर किसी जाति में भी हजार से आगे की संख्या के लिए मुझे कोई नाम नहीं मिला। हिन्दुओं में अठारह अंकों तक की संख्या के लिए नाम हैं, जिनमें अन्तिम संख्या का नाम पराद्धं बताया गया है" (सचाऊ. अलबेरुनीज इण्डिया, जिल्द १, पृ० १७४-७७)। भारतीय ज्योतिष की दो परम्पराएँ रही हैं-वैदिक ज्योतिष और जैन ज्योतिष । दोनों परम्पराएँ बहत प्राचीन और प्रायः समानान्तर हैं । दोनों का परस्पर एक-दूसरे पर प्रभाव भी पड़ा है। .... वैदिक परम्परा में ज्योतिष का स्थान महत्त्वपूर्ण है । इसे छः वेदांगों में परिगणित किया गया है। ये वेदांग हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष । शिक्षा कल्पोऽथ व्याकरणं निरुक्तं छन्द सा च यः । ज्योतिषामयनं चैब वेदांगानि षडेव तु ॥ यज्ञों के अनुष्ठान के लिए, उसके आरम्भ और समाप्ति पर अनुकूल ग्रह योग देखा जाता था। इसका ज्ञान ज्योतिष पर आधारित है। वैदिक ज्योतिष सम्बन्धी 'वेदांग ज्योतिष' नामक प्राचीन लघुग्रन्थ उपलब्ध है। इसकी रचना लोकमान्य तिलक ने १२०० से १४०० ई० पू० मानी है। इसका लेखक अज्ञात है। इस ग्रन्थ के दो पाठ मिलते हैं-ऋग्वेद ज्योतिष और यजुर्वेद ज्योतिष । पहले में ३६ श्लोक और दूसरे में ४४ श्लोक हैं। इस पर अनेक टीकाएँ विद्यमान हैं । यह ग्रन्थ वैदिक ज्योतिषशास्त्र का मूल माना जाता है। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ३६३ जैन विद्वानों का ज्योतिषशास्त्र के क्षेत्र में अविस्मरणीय गोगदान रहा है। जैन ज्योतिष की परम्परा तीर्थकरों के काल से प्रारम्भ होती है। यह काल वैदिककाल के समान्तर अथवा उससे कुछ परवर्ती प्रमाणित होता है । पहले के तीर्थकरों की वाणी अब उपलब्ध नहीं है उस काल का जैन साहित्य 'पूर्व' संज्ञा से अभिहित किया जाता है । उपलब्ध आगम - साहित्य चौबीसवें तीर्थंकर महावीर की वाणी के रूप में प्राप्त हैं। उसी को गणधरों और प्रतिगणधरों ने संकलित कर व्यवस्थित किया तथा विभिन्न आचार्यों ने इसके आधार पर अनेक शास्त्रों की रचना की । 'आगम' शब्द समन्तात् या सम्पूर्ण अर्थ में प्रयुक्त 'आ' उपसगंपूर्वक गति प्राप्ति के अर्थ में निष्पन्न होता है । इसका तात्पर्य वस्तुतत्त्व या यथार्थ का पूरा ज्ञान ऐसा होता है । आप्त का इससे उचित शिक्षा मिलती है। जैन ग्रन्थों में आगम को ही 'भुत' और 'सूत्र' भी कहते हैं। जैन धर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओंों में आगम साहित्य के अस्तित्व के सम्बन्ध में मतभेद है। दिगम्बर परम्परा आगम साहित्य को विच्छिन्न या लुप्त मानती है श्वेताम्बर परम्परा में केवल बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' को विलुप्त माना गया है । 1 प्रयुक्त गम्' धातु से कथन ही आगम है । इस प्रकार जैन आगम साहित्य को तीन आधारों पर वर्गीकृत किया गया है । सर्वप्रथम 'समवायांग' में इसे दो भागों में बांटा गया है-पूर्व' और 'अंग' पूर्व' १४ थे उत्पाद, आपायणीय, वीर्यानुप्रवाद, अस्ति नास्ति प्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुवाद, कल्याणवाद प्राणावाय, क्रियाविशाल, लोकबिन्दुसार । पूर्व साहित्य महावीर से पहले का होने के कारण इसे 'पूर्व' कहा जाता है । कालान्तर में इसको अंगों में ही समाविष्ट कर लिया गया । 'दृष्टिवाद' नामक बारहवें अंग में एक विभाग 'पूर्वगत' है। इसी 'पूर्वगत' में चौदह पूर्वो का अन्तर्भाव किया गया है। भगवती, 'अंग' बारह हैं । ये आगम साहित्य के मुख्य ग्रन्थ हैं । ये अंग हैं— आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक, दृष्टिवाद । आगमों का द्वितीय वर्गीकरण 'नंदीसूत्र' (४३) में मिलता है । इसमें आगमों के दो वर्ग किये गये हैं- अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । जो गणधर द्वारा सूत्ररूप में बनाये गये हैं, जो गणधर द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित हैं और जो शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित हैं, उनको 'अंगप्रविष्ट' आगम कहते हैं । जो स्थविर ( मुनि) कृत हैं उनको 'गवाहा' कहते हैं। नंदीसूत्र में 'अंगवाह्य' के आवश्यक, आवश्यक व्यतिरिक्त, कालिक और उत्कालिक रूप में चार भेद किये गये हैं। 'अंगप्रविष्ट' आगम प्राचीन और मूलभूत माने जाते हैं। इनके मूलवक्ता तीर्थंकर और संकलनकर्ता गणधर होते हैं । पूज्यपाद ने 'सर्वार्थसिद्धि' (१ / २० ) में वक्ता के तीन भेद बताये हैं— तीर्थंकर, श्रुतकेवली और आरातीय । अकलंक के अनुसार आरातीय आयायों की रचनाएँ अंगप्रतिपादित अर्थ के समीप और अनुरूप होने के कारण 'अंगबाह्य' कहलाती है (तत्वार्थराजवार्तिक १।२०) 'अंगप्रविष्ट' आगम ग्रन्थों को ही आचारांग आदि १२ 'जंग' भी कहते हैं । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराएँ आगमों के अंगप्रविष्ट और अंगवाह्य वर्गों को मानती हैं। आगमों का तीसरा वर्गीकरण आचार्य कार्यरक्षित ने किया। उन्होंने अनुयोगों के आधार पर आगमों के चार विभाग किये हैं- ( १ ) चरण करणानुयोग (कालिकश्रुत, महाकल्प, छेदश्रुत आदि), (२) धर्मकथानुयोग ( ऋषिभाषित, उत्तराध्यवन आदि), (३) गणितानुयोग (सूर्यप्रशप्ति आदि), (४) द्रव्यानुयोग (दृष्टिवाद आदि) । (आवश्यक निर्बुक्ति (३६३ - ३७७) । दिगम्बर परम्परा में आगमों को लुप्त माना गया है । इस परम्परा में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ग्रन्थों . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. के अतिरिक्त जो ग्रन्थ लिखे गये उनको 'अनुयोग' कहते हैं । इनके चार विभाग हैं-(१) प्रथमानुयोग-महापुरुषों का जीवन-चरित्र, जैसे--महापुराण, आदिपुराण । (२) करणानुयोग-लोकालोकविभाजन, काल, गणित आदि, जैसेत्रिलोकप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार । (३) चरणानुयोग--आचार का वर्णन, जैसे—मूलाचार। ४. द्रव्यानुयोग-द्रव्य, गुण पर्याय, तत्त्व आदि का वर्णन, जैसे-प्रवचनसार, गोम्मटसार आदि । आगमों का चौथा परवर्ती वर्गीकरण इस प्रकार है-अंग (११ या १२), उपांग १२, मूलसूत्र ४, छेत्रसुत्र ६, प्रकीर्णक १० । तत्त्वार्थभाष्य (०२०) में 'उपांग' से 'अंगबाह्य' माना गया है। इस प्रकार कुल आगमों की संख्या ४५ है। ___ समवायांग और नन्दीसूत्र में बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' के पाँच विभाग बताये हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । दिगम्बर मान्यता के अनुसार परिकर्म के पाँच भेद हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, व्याख्याप्रज्ञप्ति । 'पूर्वगत' में पूर्वोक्त चौदह 'पूर्वो' का समावेश होता है। चूलिका के भी पाँच भेद हैं-जलगता, स्थलगता, मायागता, आकाशगता, रूपगता । निशीथचूणि के अनुसार दृष्टिवाद में द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, धर्मकथानुयोग और गणितानुयोग का विचार किया गया है। यह दृष्टिवाद सब अंगों में श्रेष्ठ था और इसका साहित्य बहुविध व अत्यन्त विस्तृत था। जैन परम्परा में समस्त लौकिक या लाक्षणिक विद्याओं और शास्त्रों की उत्पत्ति 'दृष्टिवाद' से मानी जाती जाती है। दुर्भाग्य से दृष्टिवाद का साहित्य अब लुप्त हो चुका है परन्तु उससे व्युत्पन्न विद्याओं का अस्तित्व और विकास शनै:-शनैः प्रकट हुआ। 'दृष्टिवाद' के 'परिकर्म' संज्ञक विभाग में लिपिविज्ञान, ज्योतिष और गणित का विवेचन मिलता है। 'षट्खंडागम' की 'धवला' टीका में वीरसेनाचार्य ने गणित सम्बन्धी विवेचन में 'परिकर्म' का उल्लेख किया है। इसी से गणित-ज्योतिष का प्रादुर्भाव हुआ। परिकर्म के पाँच भेदों में से प्रथम चार सूर्यप्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति को जैन ज्योतिषशास्त्र और गणितशास्त्र का मूल माना जाता है। श्वेताम्बर परम्परा में सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की गणना बारह उपांगों में की गई है। अष्टांग निमित्तों का विवेचन 'दृष्टिवाद' के 'पूर्व' संजक भेद के 'विद्यानुप्रवाद' संज्ञक उपभेद में हुआ था। 'कल्याणवाद' (अबन्ध) नामक 'पूर्व' में सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र और तारागणों की विविध गतियों के आधार पर शकुन का विचार तथा बलदेवों, वासुदेवों, चक्रवर्तियों आदि महापुरुषों के गर्भावतरण, जन्म आदि अवसरों पर होने वाले लक्षणों और कल्याणों का विवरण दिया गया है। इस प्रकार शुभाशुभ लक्षणों के निमित्त से भविष्य की घटनाओं का कथन अबंध्य अर्थात् अवश्यम्भावी माना गया था। इस कारण इस पूर्व को 'कल्याणवाद' या 'अबंध्य' कहते हैं। 'गणिविज्जा' नामक प्रकीर्णक भी ज्योतिष से सम्बन्धित है। अन्य आगम साहित्य में भी प्रसंगवश ज्योतिष सम्बन्धी विचार प्रकट हुए हैं। 'करणानुयोग' में ज्योतिष, गणित, भूगोल और कालविभाग का समावेश होता है। दिगम्बर परम्परा में इस विषय के लोकविभाग, तिलोयपण्णत्ति (त्रिलोकप्रज्ञप्ति), त्रिलोकसार और जम्बूद्वीपण्णत्ति प्राचीन ग्रन्थ हैं। श्वेताम्बर परम्परा में इस विषय के आगम साहित्यान्तर्गत सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, क्षेत्रसमास और संग्रहणी का समावेश होता है। ज्योतिषकरण्डक' इन सबसे प्राचीन केवल ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर निर्वाण के १६२ वर्ष बाद भद्रबाहु के स्वर्गवासी होने पर अंग ग्रन्थ क्रमशः विच्छिन्न होने लगे। सम्पूर्ण आगम साहित्य लुप्त हो गया; केवल 'दृष्टिवाद' के अन्तर्गत द्वितीय पूर्व 'अग्रायणीय' Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष: प्रगति और परम्परा के कुछ अधिकारों का ज्ञान आचार्य धरसेन के पास शेष रहा। उन्होंने यह ज्ञान अपने दो शिष्यों पुष्पदंत और भूतबलि को दिया, जिसके आधार पर उन्होंने 'षट्खण्डागम' की सूत्र रूप में रचना की । यह ग्रंथ प्राप्त है और टीका व अनुवाद सहित तेईस भागों में प्रकाशित हो चुका है। इस पर आचार्य वीरसेन कृत 'धवला' नामक टीका मौजूद है। इस टीका में ज्योतिष और गणित सम्बन्धी अनेक विचार प्रकट हुए हैं। श्वेताम्बर परम्परानुसार वीर निर्वाण के १७० वर्ष बाद भद्रबाहु स्वर्गवासी हुए। इसके बाद 'पूर्वी' का ज्ञान क्रमशः लुप्त होता गया। पूर्वो के विच्छेद का क्रम देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ( वी० नि० सं० ६८० या ६६३ ई०४५४ या ४६६) तक चलता रहा । स्वयं देवद्धगणी ११ अंग और एक पूर्व से कुछ अधिक श्रुत के ज्ञाता थे । श्वेताम्बर मत में आगम साहित्य का बहुत-सा अंग लुप्त होने पर भी कुछ मौलिक अंत अब तक पारम्परिक रूप से सुरक्षित है। श्वेताम्बर परम्परा में स्वीकृत आगम साहित्य अर्धमागधी प्राकृत भाषा में मिलता है। 'षट्खण्डागम' की टीका में दिये गये प्राचीन गाथाएँ आदि उद्धरण शौरसेनी प्राकृत में हैं । अर्धमागधी प्राकृत का प्रचलन शूरसेन (मथुरा) और मगध के मध्य अयोध्या के समीपवर्ती क्षेत्र में था। शूरसेन (मथुरा) के आसपास 'शौरसेनी' प्राकृत का प्रचलन था । ३६५. ज्योतिष : एक कला भी जैन सूत्रों में जिन ७२ कलाओं का उल्लेख मिलता है, उनमें ज्योतिष विद्या को भी परिगणित किया गया है । इसमें 'बार' अर्थात् ग्रहों की अनुकूल गति और प्रतिचार' अर्थात् ग्रहों की प्रतिकूल गति का विचार किया गया है। कल्पसूत्र (१।१०) से ज्ञात होता है कि महावीर ने गणित और ज्योतिष विद्या आदि में कुशलता प्राप्त की थी। ज्योतिष को 'नक्षत्र विद्या' भी कहा गया है। (दशवैकालिक, ८।५१) । जैन ग्रन्थों में धर्मोत्सवों के समय और स्थान के निर्धारण हेतु ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान जरूरी माना गया है । इसके विपरीत बौद्धग्रन्थों में बौद्धभिक्षुओं के लिए ज्योतिष विद्या और अन्य कलाओं का सीखना निषिद्ध माना गया है। यही कारण है कि जैन विद्वानों और आचायों ने ज्योतिष में आश्चर्यजनक प्रगति की थी बौद्धों में यह विद्या अप्रचलित रही। 1 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' (२1१) और 'उत्तराध्ययन' ( २५७, ३६) में 'संख्यान' (गणित) और 'जोइस' (ज्योतिष) को चौदह विद्यास्थानों में परिगणित किया गया है। गणित और ज्योतिष का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । अतः यह तथ्य ध्यान में रखना होगा कि प्रायः दोनों विषयों के ग्रन्थ अन्योन्य सम्बन्ध रखते हैं । भारतीय ज्योतिष का क्रमशः विकास हुआ है और उसके नये-नये भेद-प्रभेद प्रकट हुए हैं। प्रारम्भ में ज्योतिष का उद्भव उत्सवादि - यज्ञादि कार्य के समय और स्थान के शुभाशुभ विचार की दृष्टि से नक्षत्र, ऋतु, अयन, दिन, रात्रि, लग्न आदि के विचार से हुआ था । उस समय गणित और फलित ये दो भेद नहीं थे । सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरण्डक, वेदांगज्योतिष में ज्योतिष का प्रारम्भिक रूप मिलता है । कालान्तर में ज्योतिष के दो भेद प्रकट हुए गणित और फलित ग्रहों की गति, स्थिति, अयनांश आदि से सम्बन्धित गणित ज्योतिष तथा शुभाशुभ फल व काल विचार, यज्ञ-याग, उत्सव आदि के समय व स्थान के निर्धारण का विचार फलित ज्योतिष का विषय माना जाने लगा। इसके बाद ज्योतिष का त्रिस्कन्धात्मक रूप प्रकाश में आयासिद्धान्त, संहिता और होरा। आगे चलकर इसके पाँच भेद हो गये - होरा, गणित, संहिता, प्रश्न और निमित्त । (१) होरा को 'जातक' भी कहते हैं। यह शब्द 'अहोरात्र' से बना है पहला 'अ' और अन्तिम 'व' अक्षर कालोप होने से 'होरा' शब्द बना है । मनुष्य के जन्म के समय ग्रहों की स्थिति के आधार पर फलादेश किया जाता है । जन्म कुण्डली के द्वाद भावों के फलाफल का ग्रहों के अनुसार विवेचन करना 'होराशास्त्र' कहलाता है। (२) गणित ज्योतिष में कालगणना, सौरचान्द्रमानों का प्रतिपादन, ग्रहगतियों का निरूपण प्रश्नोत्तर विवेचन और अक्षक्षेत्र सम्बन्धी अज्या, लंबज्या ज्या कुण्या तदुद्धृति, समशंकु आदि का निरूपण किया जाता है। गणित के भी तीन प्रभेद प्रकाश में आये - सिद्धान्त, तन्त्र और करण । , 6916 . Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड (३) संहिता ज्योतिष में भू-शोधन, दिक्शोधन, शल्योद्धार, मेलापक, आयाद्यानयन, गृहोपकरण, इष्टिकाद्वार, गेहारम्भ, गृहप्रवेश, मुहर्तगणना, उल्कापात, अतिवृष्टि, ग्रहों का उदय-अस्त और ग्रहण-फल का विचार होता है। मध्यकाल में 'संहिता' में होरा, गणित और शकुन का मिश्रित रूप माना जाने लगा। कुछ जैनाचार्यों ने 'आयुर्वेद' को भी संहिता में सम्मिलित किया है। (४) प्रश्न-ज्योतिष में प्रश्नाक्षर, प्रश्न-लग्न और स्वरज्ञान विधियों से प्रश्नकर्ता के प्रश्न के शुभाशुभ का विचार किया जाता है। प्रश्नकर्ता के हाव, भाव, विचार, चेष्टा से भी विश्लेषण किया जाता है। इससे तत्काल फलनिर्देश होता है । यह जैन ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण अंग है। केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि, चन्द्रोन्मीलन, अयज्ञानतिलक, अर्हच्चूडामणिसार आदि इस पर प्रसिद्ध और प्राचीन जैन ग्रन्थ हैं । वराहमिहिर (६वीं शती) के पुत्र पृथुयशा के काल से प्रश्नलग्न सिद्धान्त का प्रचार प्रारम्भ हुआ था। (५) शकुन-ज्योतिष को 'निमित्तशास्त्र' भी कहते हैं । इसमें शुभाशुभ फलों का विचार किया जाता है। पहले यह 'संहिता' में शामिल था, बाद में वी १०वीं शती से इस पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गये। ज्योतिषशास्त्र के ये पांच विभाग उसकी गम्भीर व्यापकता को सूचित करते हैं। अंग-लक्षणों के आधार पर शुभाशुभ को बताने वाला सामुद्रिक शास्त्र भी ज्योतिष का ही अंग माना जा सकता है। फलित ज्योतिष में मानव जीवन के हर पक्ष पर विचार किया गया है । यह केवल पंचांग तक ही सीमित नहीं था। ५०० ई. के बाद भारतीय ज्योतिष पर ग्रीस, अरब और फारस के ज्योतिष का प्रभाव पड़ने लगा। वराहमिहिर ने उनसे भी कुछ ग्रहण करने का उपदेश दिया है म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक शास्त्रमिदं स्थितम् । _ ऋषिवत्तेऽपि पूज्यन्ते किं पुनर्देवविद् द्विजः ।। दसवीं शती के बाद ज्योतिष में यन्त्रों का प्रचलन हुआ। यन्त्रों से ग्रह-वेद-विधि का विचार किया गया । 'मुहूर्त' पर भी स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गये । सब कार्यों के लिए शुभाशुभ काल का विचार किया गया। मुसलमानों के सम्पर्क से ज्योतिष के क्षेत्र में ११वीं शदी के बाद दो नवीन अंग 'ताजिक' और 'रमल' 'विकसित हुए। (१) ताजिक-यह अरबों से प्राप्त ज्योतिष ज्ञान है । बलभद्र ने लिखा हैयवनाचायेंग पारसीकभाषायां ज्योतिषशास्त्रकदेशरूपं वाषिकादिनानाविधफलादेशफलकशास्त्रंताजिकशास्त्रवाच्यम् । मनुष्य के नवीन वर्ष और मास में प्रवेश करने के समय ग्रहों की स्थिति देख कर उस वर्ष या मास का फल बताना 'ताजिक' का विषय है। यह भारतीय 'जातक' के अन्तर्गत है । मूलत: यह प्रकार भारतीयों की देन थी। लिखा है गर्गाद्यं यवनश्च रोमकमुखैः सत्यादिभिः कीर्तितम् । शास्त्रं ताजिकशास्त्रं....... गर्ग आदि भारतीय आचार्यों ने, यवनों ने, रोमवासियों ने और सत्याचार्य आदि ने इस शास्त्र की रचना की। भारतीय ज्योतिष के आधार पर यवनों ने इसे सीखा, उन्होंने इसमें संशोधन-परिवर्धन किया। जन्मकुण्डली से फलादेश के नियम मूलतः भारतीय हैं। हरिभट्ट या हरिभद्र कृत 'ताजिकसार' में कुछ यवन शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। (२) रमल-यह शब्द अरबों का है । इमें 'पाशकविद्या' भी कहते हैं। पासों पर बिन्दु के रूप में चिह्न होते हैं । पासे फेंकने पर उन चिह्नों की स्थिति देखकर प्रश्नकर्ता के प्रश्न का उत्तर बताने की यह विद्या है। यह भारतीय "प्रश्नशास्त्र' का ही अंग है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा रमलशास्त्र में अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी इन चार तत्त्वों की दशा का आधार माना जाता है। इनके • सोलह भेद हैं। पासे पर उनके प्रतीक सोलह चिह्न होते हैं । 1. ३५७ मुसलमानों के सम्पर्क के बाद संस्कृत में इस पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गये। इनमें अरबी शब्द भी व्यवहृत हुए हैं । अत: इसे मुसलमानों के सम्पर्क से विकसित हुआ माना जाता है । जैन विद्वानों ने ज्योतिष की प्रत्येक विधा पर महत्त्वपूर्ण रचनाएँ लिखी हैं ये रचनाएँ प्राकृत, अपभ्रं • संस्कृत, हिन्दी के अतिरिक्त राजस्थानी, गुजराती, तमिल, कन्नड़, तेलगु आदि प्रान्तीय भाषाओं में मिलती हैं। इससे इसकी व्यापकता प्रदर्शित होती है । जैन मान्यता में कालविभाग एवं लोकविभाग ज्योतिष का सम्बन्ध काल एवं खगोल-भूगोल से है । सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में इनका परिचय मिलता है, इससे सृष्टि के विकास क्रम का पता चलता है । लोक विभाग- सम्पूर्ण विश्व के दो विभाग हैं—एक 'अलोकाका', जहाँ आकाश के सिवा कोई जड़ या नेतन द्रव्य मौजूद नहीं है, दूसरा 'लोकाकाश', जहाँ पाँच द्रव्य (जीव, पुद्गल, उनके गमनागमन में सहायक धर्म एवं अधर्म द्रव्य इय्य-परिवर्तन में निमित्त भूत 'काल') होते हैं अत: इसे 'द्रव्यलोक' भी कहते हैं। द्रव्यलोक के तीन भाग हैऊर्ध्व, मध्य और अधो लोक । ऊर्ध्वं लोक में सर्वप्रथम ज्योतिर्लोक हैं, जिसमें सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारे स्थित है। इसके ऊपर १६ स्वर्ग हैं सौधर्म, ईमान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, सान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महागुरू, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत । इनको 'कल्प' भी कहते हैं । स्वर्गों के ऊपर नौ ग्रैवेयक और उनके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि नामक पाँच कल्पातीत देव - विमान हैं । इसके ऊपर लोक का अन्तिम भाग है, जहाँ मुक्तात्माएँ रहती हैं। अधोलोक में क्रमशः नीचे की ओर ७ नरक हैं- रत्न, शर्करा, बालुका, पंक, धूम, तम और महातम प्रभा । इसमें तीन महान् द्वीप हैंधातकीखण्ड और पुष्कर का असंख्य द्वीप व सागर हैं। अलंध्य पर्वत हैं। जम्बूद्वीप, मध्यलोक में पृथ्वी है । यह गोलाकार है और इसमें -जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और पुष्कर । पुष्करद्वीप के मध्य में आधा भाग — इस प्रकार ढाई द्वीप में मनुष्यलोक है। पृथ्वी के मध्य में जम्बूद्वीप (एक लाख योजन विस्तृत) के चारों और लवण समुद्र (२ लाख योजन विस्तृत) है। लवण समुद्र के चारों ओर घातकीखण्ड (४ लाख योजन विस्तृत) है। - धातकीखण्ड के चारों ओर कालोदधि (८ लाख योजन विस्तृत ) है । कालोदधि के चारों ओर पुष्करद्वीप ( १६ लाख योजन विस्तृत) है । जम्बूद्वीप में ७ क्षेत्र हैं- भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत, ऐरावत। इनके विभाजक ६ कुलपर्वत हैं — हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मि, शिखरी । सबसे मध्य में विशाल विदेहक्षेत्र है । इसके मध्य में मेरुपर्वत है। भरतक्षेत्र में हिमालय से निकलकर पूर्व समुद्र की ओर गंगा तथा पश्चिम समुद्र की ओर सिन्धुनदी बहती हैं। बीच में विन्ध्यपर्वत है। इन दोनों नदियों और पर्वतों से भरतक्षेत्र के ६ बंद हो गये है। इन पर एकछत्र (विजयार्थ) शासन करने वाला शासक 'पट्खण्ड चकवर्ती' कहलाता है। गंगा-सिन्धु का मध्यवर्ती देश 'आर्यखेड' कहलाता है । इसको 'मध्यदेश' भी कहते हैं । इसमें ही तीकथंरों आदि ने जन्म लिया । काल विभाग जैनमान्यतानुसार काल की सबसे छोटी अविभाज्य इकाई 'समय' और सबसे लम्बी इकाई 'कल्प काल' है । कल्पकाल का मान बीस कोटाकोटि 'सागर' है, जो असंख्य वर्ष जितना है । प्रत्येक कल्पकाल के दो विभाग हैं - अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी । जम्बूद्वीप में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के रूप में कालचक्र घूमता रहता है । जैन मान्यता में विश्व में समस्त जड़ चेतन अनादि और अनन्त हैं। इसको न किसी ने बनाया और न कभी इसका विनाश होता है जगत के उपादान द्रव्यों में हमेशा परिवर्तन होता रहता है। इसका निमित्त 'काल' है। . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड कालचक्र में अवसर्पिणी के छः और उत्स पिणी के छ: आरे हैं। इन आरों को 'युग' या 'काल' भी कहते हैं । अवसर्पिणी के छ: काल हैं-प्रथम काल 'सुषमा-सुषमा', द्वितीय काल 'सुषमा', तृतीय काल 'सुषमा-दुषमा', चतुर्थ काल 'दुषमा-सुषमा', पंचम काल 'दुषमा' और षष्ठकाल 'दुषमा-दुषमा' है। उत्सर्पिणी में इसके विपरीत काल अर्थात् क्रमशः छठा, पाँचवाँ, चौथा, तीसरा, दूसरा, पहला होता है। अवसर्पिणी के कालों में क्रमश: अवनति तथा उत्सर्पिणी के कालों में क्रमशः उन्नति होती है। अवसर्पिणी के पहले तीन कालों में यहाँ 'भोगभूमि' की रचना होती है। इस समय मनुष्य खान, पान, शरीराच्छादन आदि सारे काम उस काल के वृक्षों से पूरे करते हैं, अत: इन वृक्षों को 'कल्पवृक्ष' कहते हैं। तीसरे काल के अन्त में १४ कुलकर उत्पन्न होते हैं। इस समय 'कर्मभूमि' की रचना प्रारम्भ होती है । अन्तिम तीन कालों में यहाँ कर्मभूमि की रचना होती है। ये कुलकर जीवों को विभिन्न प्रकार की शिक्षाएँ देते हैं । प्रथम कुलकर 'प्रतिश्रुति' ने मनुष्य की प्रथम बार सूर्य व चन्द्रमा आदि को देखकर प्रकट की गई शंका का निवारण किया, सूर्य-चन्द्र के उदय अस्त का रहस्य समझाया (तब से दिन, काल और वर्ष का प्रारम्भ हुआ। वह दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा का प्रात:काल था)। उन्हें ज्योतिष की शिक्षा दी । ग्रहों के ज्ञान से मनुष्य अपने कार्य चलाने लगे। द्वितीय कुलकर ने मनुष्य को नक्षत्र और तारा सम्बन्धी शंकाओं का निवारण कर ज्योतिष ज्ञान को आगे बढ़ाया। यह पहले ज्योतिर्विद थे। अन्तिम कुलकर नाभिराज ने असि, मसि, कृषि, विद्या-वाणिज्य, शिल्प और उद्योग इन षट्कर्मों की शिक्षा दी। कुछ विद्वान् इनके आविष्कारक नाभिराज के पुत्र प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को मानते हैं। इसके बाद २४ तीर्थकर (ऋषभ आदि), १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव और प्रतिवासुदेव, ये ६३ (त्रिषष्टि) 'शलाका पुरुष' चौथे काल में हुए। महावीर निर्वाण के बाद पाँचवाँ दुषमा काल शुरू हुआ, जो चालू है। इस क्रम से वर्तमान मानव सभ्यता का विकास क्रमशः हुआ है। कुलकरों से पूर्व का काल प्रीहिस्टोरिक और उनके बाद तीर्थंकरों तक का काल प्रोटोहिस्टोरिक माना जाता है। इस प्रकार जैन ज्योतिष की परम्परा कुलकरों के समय से प्रारम्भ होती है, परन्तु जो साहित्य उपलब्ध है, वह बहुत बाद का है । सम्भव है, ज्योतिष सम्बन्धी प्राचीन मान्यताएँ उसमें पारम्परिक रूप से अन्तनिहित हों। आगम-साहित्य में ज्योतिष सम्बन्धी प्रमाण जैन आगम-ग्रन्थों में ज्योतिष सम्बन्धी दिन, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, ग्रहण, ग्रह, नक्षत्र आदि का स्थानस्थान पर विचार आया है, आगमों का रचनाकाल ईसा की पहली शती या कुछ बाद का माना जाता है। प्रश्नव्याकरणांग (१०/६) में १२ महीनों की १२ पूर्णमासी और अमावस्याओं के नाम व उनके फल बताये गये हैं। श्रावण मास की श्रविष्ठा, भाद्रपद की पौष्ठवती, आश्विन की असोई, कार्तिक की कृत्तिका, मार्गशीर्ष की मृगशिरा, पौष की पौषी, माघ का माघी, फाल्गुन की फाल्गुनी, चैत्र की चैत्री, बैशाख की बैशाखी, ज्येष्ठ की मूली और आषाढ़ की आषाढ़ी पूर्णिमा होती है। अयन दो होते हैं-उत्तरायण और दक्षिणायन । जैन मान्यतानुसार जम्बूद्वीप के बीच में सुमेरु पर्वत है। सूर्यचन्द्र इस पर्वत की परिक्रमा करते हैं । परिक्रमा की गति से उत्तरायण और दक्षिणायन होते हैं। सुमेरु की प्रदक्षिणा के इनके गमनमार्ग या वीथियाँ १८३ हैं। सूर्य एक मार्ग को दो दिन में पूरा करता है, अत: ३६६ दिन या एक वर्ष में यह प्रदक्षिणा पूरी होती है। सूर्य जब जम्बूद्वीप के भीतरी मार्ग से बाहर लवणसमुद्र की ओर जाता है, तब दक्षिणायन और जब सूर्य लवण समुद्र के बाहरी अन्तिम मार्ग से चलता हुआ जम्बूद्वीप के भीतरी मार्ग में गमन करता है तब उत्तरायण होता है । 'स्थानांग' और 'प्रश्न-व्याकरणांग' में सौरवर्ष का विचार मिलता है । 'समवायांग' में ३५४ से कुछ अधिक दिनों का चान्द्रवर्ष माना गया है। 'स्थानांग' (५।३।१०) में पाँच वर्ष का एक युग बताया गया है। पंच-संवत्सरात्मक युग के ५ भेद हैं-नक्षत्र, युग, प्रमाण, लक्षण और शनि । युग के भी ५ भेद हैं-चन्द्र, चन्द्र, अभिद्धित, चन्द्र और अभिवद्धित । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ३६५ -.-.-.-.--.-.-.-... 'समवायांग' (६१११) में पंच वर्षात्मक युग के पाँच वर्षों के नाम दिये हैं-चन्द्र, चंद्र, अभिवद्धित, चन्द्र और अभिवद्धित । पाँच वर्ष के युग में ६१ ऋतुमास होते हैं । प्रश्नव्याकरण अंग में एक युग के दिन और पक्षों का भी निरूपण मिलता है। इन ग्रन्थों में ग्रहों और नक्षत्रों का गम्भीरता से विचार मिलता है। 'प्रश्नव्याकरण' अग (१०१५) में नक्षत्रों के तीन वर्ग बताये गये हैं—कुल, उपकुल और कुलोपकुल। यह विभाजन प्रत्येक माह की पूर्णमासी को होने वाले नक्षत्रों के आधार पर किया गया है । धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, उत्तराफाल्गुनी, चित्रा, विशाखा, मूल एवं उत्तराषाढा-ये १२ 'कुल' नक्षत्र हैं। श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, भरणी, रोहिणी, पुनर्वसु, आश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, ज्येष्ठा और पूर्वाषाढा-ये १२ 'उपकुल' नक्षत्र हैं। अभिजित्, शतभिष, आर्द्रा और अनु राधा ये ४ 'कुलोपकुल' संज्ञक नक्षत्र हैं । प्रत्येक मास की पूर्णिमा को पहला नक्षत्र कुल, दूसरा उपकुल और तीसरा कुलोपकुल कहलाता है। इस कथन से उस महीने का फलादेश बताया जाता है। 'समवायांग' (७५) में नक्षत्रों के दिशाद्वार बताये गये हैं। कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा ये ७ 'पूर्वद्वार'; मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति और विशाखा ये ७ 'दक्षिणद्वार'; अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, अभिजित् और श्रवण ये ७ 'पश्चिमद्वार' तथा धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, भरणी ये ७ 'उत्तरद्वार' वाले नक्षत्र हैं। 'स्थानांग' (८।१००) में कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा इन ८ नक्षत्रों को चन्द्र से स्पर्शयोग करने वाले बताये हैं। ग्रहों की संख्या ८८ मानी गई है। 'स्थानांग' और 'समवायांग' (८८१) में इनका उल्लेख है। 'प्रश्नव्याकरणांग' में नौ ग्रहों का विचार है-सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु (धूमकेतु)। 'समवायांग' (१॥३) में शुक्ल-कृष्णपक्ष और ग्रहण का कारण राहु को माना है। राहु के दो भेद बताये गये हैं-नित्यराहु और पर्वराहु । नित्य-राहु से चन्द्र को पकड़ने के कारण कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष तथा पर्वराहु से चंद्रग्रहण होता है। केतु का ध्वजदण्ड सूर्य के ध्वजदण्ड से ऊँचा है अतः भ्रमण करते हुए केतु के कारण सूर्यग्रहण होता है। 'समवायांग' (८८४) में दिन-वृद्धि और दिनह्रास की मीमांसा भी बतायी गयी है। आगमग्रंथों में फलित ज्योतिष सम्बन्धी स्थान और समय की शुद्धि, आदि का विचार भी मिलता है। आगम साहित्य तीर्थंकरों की वाणी का संग्रह है। उपलब्ध आगम चौबीसवें तीर्थंकर महावीर की वाणी पर -आधारित है। पहले के तीर्थंकरों की वाणी 'दृष्टिवाद' के 'पूर्वो' में सन्निविष्ट थीं, जो अब अनुपलब्ध है। वर्तमान उपलब्ध आगमों में पूर्व प्रचलित प्राचीन मान्यताओं का भी अवश्य समावेश है। आगम साहित्य की पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में ज्योतिष सम्बन्धी आगम-ग्रन्थों की चर्चा करेंगे। निम्न 'अंगबाह्य' ग्रन्थों (सूत्रों) का इनमें समावेश होता है १. सूर्यप्रज्ञप्ति (सूरपण्णत्ति ई० पू० २०० वर्ष)-श्वेताम्बर परम्परा में इसकी गणना उपांगों में होती है। यह पाँचवां उपांग है, इसमें २० पाहुड (प्राभृत) और १०३ सूत्र हैं । इसमें सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, मास आदि की गतिविधियों के विषय में विस्तृत वर्णन मिलता है। साथ ही द्वीपों व सागरों का वर्णन दिया है। स्थानांग नामक अंग में प्रज्ञप्ति का उल्लेख है। इस ग्रन्थ का अत्यन्त महत्त्व है, क्योंकि इससे प्राचीन भारतीय ज्योतिष की की मान्यताओं का पता चलता है। इसमें पाँच वर्ष का युग मानकर सूर्य और चन्द्र का गणित किया गया है। सूर्य के उदय और अस्त के विचार के साथ इसमें दो सूर्य और दो चन्द्र का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। दोनों सूर्य एकान्तर से गति करते हैं, अतः हमें एक ही सूर्य दिखायी देता है। उत्तरायग में सूर्य लवणसमुद्र के बाहरी मार्ग Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 ४०० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड में सूर्य जम्बूद्वीप के भीतरी मार्ग नक्षत्रों के स्वभाव व गुण भी जम्बूद्वीप की ओर आता है, अतः दिनमान क्रमशः बढ़ता है, तथा दक्षिणायण से लवणसमुद्र की ओर क्रमशः गति करता है, अतः दिनमान घटता जाता है। बताये हैं । इससे आगे मुहूर्तशास्त्र विकसित हुआ । इसमें पंच पताका युग मानकर तिथि, नक्षत्रादि का विचार किया गया है । इस ग्रन्थ पर भद्रबाहु ने नियुक्ति और मलयगिर ने संस्कृत टीका लिखी है। इसका प्रकाशन सं० १९९९ मैं मलयगिरि की टीका सहित आगमोदय समिति बम्बई ने किया है। (२) चन्द्रप्रज्ञप्ति ( चंदपण्णत्ति ) - इसका भी उपांगों में समावेश है। यह सातवाँ उपांग है। इसका विषय भी सूर्यप्रज्ञप्ति के समान है। परन्तु अधिक महत्त्वपूर्ण है, इसमें २० प्राभृत हैं। इसमें चन्द्र की परिभ्रमण गति, विमान आदि का वर्णन है । चन्द्र की प्रतिदिन योजनात्मिका गति बतायी गयी है। इसमें १९वें प्राभृत में चन्द्रमा को स्वतः प्रकाशमान बताया गया है। इसके घटने-बढ़ने का कारण राहु ग्रह है । छाया-साधन और छाया-प्रमाण पर से दिनमान का ज्ञान बताया है। कीलकच्छाया व पुरुषच्छाया का विवेचन है। वस्तुओं की छाया का वर्णन भी है। इसी से आगे गणित, ज्योतिष का विकास हुआ। चौकसी ने सम्पादित कर सन् १९३८ में अहमदाबाद से प्रकाशित किया है। गोल, त्रिकोण और चौकोर यह ग्रन्थ प्रो० गोपानी और (३) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (अम्बुद्दीपयति ) - इसके दो भाग हैं—पूर्वार्ध और उत्तरा पहले भाग के ४ परि छेदों में जम्बूद्वीप और भरतक्षेत्र तथा उसके पर्वतों, नदियों आदि का एवं उत्सर्पिणीय अवसर्पिणी नामक काल विभाग का तथा कुलकरों, तीपंकरों, चक्रवतियों आदि का विवरण है। (४) गणिविद्या (गणिविक्जा) दस प्रकीर्णकों में आठवा गणिविज्जा है। इसमें ६२ गाथाएँ हैं जिसमें दिवस, तिथि, नक्षत्र, करण, ग्रह, मुहूर्त शकुन आदि का विचार किया है। इस दृष्टि से यह ज्योतिष की महत्वपूर्ण कृति है, इसमें लग्न और होरा का भी उल्लेख है । , (५) ज्योतिषकरंडक ( जोइसकरंडन) (६० ५० १०० ) - इसको भी प्रकीर्णक ग्रन्थों में ही शामिल किया जाता है। इसका प्रकाशन रतलाम से १९२८ में हो चुका है। मुद्रित प्रति में 'पूर्वभृद बालभ्य प्राचीनतराचार्य' कृत ऐसा उल्लेख होने से इसकी रचना अत्यन्त प्राचीन प्रमाणित होती है, इसमें ३७६ गाथाएँ हैं और भाषा जैन महाराष्ट्री प्राकृत है । इसमें उल्लेख है कि इसकी रचना सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार पर संक्षेप में की गयी है । इस ग्रन्थ में २१ पाहुड हैं—कालप्रमाण, मान, अधिकमास निष्पत्ति, तिथि - निष्पत्ति, ओमरत्त (हीनरात्रि), नक्षत्रपरिमाण, चन्द्र-सूर्य परिमाण, नक्षत्र-चन्द्र-सूर्य-गति नक्षत्रयोग, मण्डलविभाग, अयन, आवृत्ति, मुहूर्तगति ऋतु विषुवत् (अहोरात्रसमत्व ), व्यतिपात, ताप, दिवसवृद्धि, अमावस - पौर्णमासी, प्रनष्टपर्व और पौरुषी । इसमें ग्रीक ज्योतिष से पूर्ववर्ती विष्यक काल के लन्न- सिद्धान्त का प्रतिपादन है। इससे यह ग्रीकों से पहले की प्रणाली निश्चित होती है। जैसे नक्षत्रों की विशिष्ट स्थिति 'राशि' कहलाती है वैसे ही इस ग्रन्थ में नक्षत्रों की विशिष्ट दशा को लग्न कहा गया है ।" भाषा व शैली से यह ग्रन्थ ई० पूर्व ३००-४०० वर्ष का है । 7 1 निशीचूर्ण ( १२ ) इसमें विवाहपटल' (विवाहपटल) जो विवाह के समय तथा 'अर्धकांड' (अग्धकांड), जो व्यापार में काम आता था, नामक ज्योतिष ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है । करणानुयोग साहित्य में दिगम्बर परम्परा में लोकविभाग, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का अन्तर्भाव किया जाता है। लोकविभाग – यह मूलग्रन्थ प्राकृत में रहा होगा, जो अनुपलब्ध है। इसका बाद में सिंहसूरि ने संस्कृत पचानुवाद किया था । सिंहसूरि की सूचना के अनुसार यह मूल ग्रन्थ कांची के राजा सिंहवर्मा के २२ वें संवत्सर (शक सं० ३८० ) में सर्वनंदिमुनि ने पांड्य राज्य के पाटलिक ग्राम में लिखा था कुन्दकुन्द ने नियमसार ( गाथा १७) में इसका . Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ४०१ ...... ................ .............. .... ................ .. .......... . ..... उल्लेख किया है। सिंहसूरि के संस्कृत अनुवादित ग्रन्थ में २२३० गाथाएँ और ११ विभाग हैं, इसमें से एक ज्योतिर्लोक सम्बन्धी है। शेष भूगोल एवं खगोल सम्बन्धी हैं। इसमें तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि का उल्लेख होने से इसका रचनकाल ११वीं शती के बाद का है। त्रिलोकप्रज्ञप्ति (तिलोयपण्णत्ति)-प्राकृत गाथाओं में यतिवृषभाचार्य द्वारा विरचित । इसमें ५६७७ गाथाएँ और ६ महाधिकार हैं—सामान्यलोक, नरकलोक, भवनवासीलोक, मनुष्यलोक, तिर्यक्लोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, देवलोक और सिद्धलोक । वीरसेनकृत धवलाटीका में इस ग्रन्थ का अनेकशः उल्लेख मिलता है। अतः इसका रचनाकाल ५०० से ८०० ई० के बीच प्रमाणित होता है। ज्योतिर्लोक में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारों की स्थिति, गति आदि का वर्णन है। त्रिलोकसार-नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तिकृत । इसमें १०१८ प्राकृत गाथाएँ हैं । यह अध्यायों में विभक्त नहीं है, परन्तु इसमें विषयों सम्बन्धी की गयी प्रारम्भिक प्रतिज्ञा के अनुसार विषयों का विवेचन है, जिसमें लोक-सामान्य, भवन, व्यन्तर, ज्योतिष, वैमानिक और नर-तिर्यक लोक का वर्णन है। वर्णन संक्षिप्त है। यह ११वीं शती की रचना है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-पद्मनन्दिकृत रचना है । इसमें २३८६ गाथाएँ हैं । इसमें १३ उद्देश्य हैं, जिनमें एक ज्योतिलोक है। शेष द्वीपों, खगोल, भूगोल सम्बन्धी हैं। इसकी रचना पारियात्रदेशान्तर्गत वारा नगर में राजा संति या सत्ति के काल में हुई थी। पद्मनन्दि के गुरु बलिनंदि थे जो वीरनंदि के शिष्य थे। श्वेताम्बर परम्परा में इस विषय पर सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अतिरिक्त क्षेत्र समास' और 'संग्रहणी' नामक कृतियाँ मिलती हैं। इन दोनों के लेखक जिनभद्रगणी थे। परवर्ती विद्वानों और टीकाकारों ने इन दोनों ग्रन्थों के कई छोटे-बड़े संस्करण बना डाले हैं, इनमें जम्बूद्वीप, कालगणना आदि का वर्णन है। धवला और जयधवला टीकाएँ-दक्षिण में आचार्य वीरसेन ई० ८वीं-6वीं शती के महान् दिगम्बर आचार्य हुए। उन्होंने धरसेनाचार्यकृत शौरसैनी प्राकृत के 'षट्खण्डागम' (कर्मप्राभृत) पर 'धवला' टीका (रचना काल वि० सं० ८७३, ई० सन् ८१६) पाँच खण्डों में लिखी, इसमें ७२ हजार श्लोक हैं। इसके अतिरिक्त वीरसेन ने 'कषायपाहुड' पर २० हजार श्लोकों में व्याख्या लिखी किन्तु उनका स्वर्गवास हो जाने से यह अपूर्ण रह गयी। इसे उनके ही शिष्य आचार्य जिनसेन ने ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका और लिखकर पूर्ण किया। 'कषायपाहुड' की रचना २३३ गाथाओं में आचार्य धरसेन के प्रायः समकालिक आचार्य गुणधर ने की थी। आचार्य वीरसेन के गुरु आर्यनन्दि थे। वीरसेन के शिष्य आचार्य जिनसेन हुए और जिनसेन के शिष्य आचार्य गुणभद्र हुए। गुणभद्र ने उत्तरपुराण की रचना की। वीरसेन का जन्म वि० सं० ७६५ (शक सं० ६६०) और स्वर्गवास वि० सं०८८० (शक सं० ७४५) में हुआ था। वीरसेनाचार्य अच्छे गणितज्ञ थे। उन्होंने अपनी टीकाओं में गणित के अनेक नियमों को स्पष्ट किया है। धवला टीका में गणित सम्बन्धी विवेचन में परिकर्म का उल्लेख किया है। अनेक सूत्रों का अर्थ और प्रयोजन गणित से स्पष्ट किया है । वीरसेनाचार्य का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और गणितीय सिद्धान्तों पर आधारित था। ज्योतिष के भी इन टीकाओं में बड़ी संख्याओं का उपयोग वर्णन, शलाका गणन, विरलन देय गुणन, अनन्तराशियों का कलन, राशियों के विश्लेषण हेतु अनेक विधियाँ आदि विषय दिये हैं। इनमें ज्योतिष सम्बन्धी विचार भी स्पष्ट किये गये हैं। 'धवला' टीका में १५ मुहूर्त बताये हैं-रौद्र, श्वेत , मैत्र, सारगट, दैत्य, वैरोचन, वैश्वदेव, अभिजित्, रोहण, बल, विजय, नैऋत्य, वरुण, अर्यमन् और भागन। आचार्य वीरसेन के प्रायः समकालीन प्रसिद्ध गणित-ज्योतिषाचार्य महावीर हुए, जो राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष 'नृपतुग' के सभासद थे। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ +++ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड ज्योतिष सम्बन्धी जैन ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार उमास्यामि (ई० प्रथम व द्वितीय शती) – इनके तत्वार्थसूत्र' ग्रन्थ में ज्योतिष सम्बन्धी सिद्धान्तों का निरूपण है । चौथे अध्याय में ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक और तारों का वर्णन है । कालकाचार्य ( ई० तीसरी शती) जैन परम्परा में आचार्य कालक का महत्वपूर्ण स्थान है। ये ज्योतिष और निमित्त के ज्ञाता थे । प्राकृत में इनके द्वारा विरचित 'कालकसंहिता' नामक ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ बताया जाता है । यह अनुपलब्ध है । वराहमिहिर के 'वृहज्जातक' (१६।१ ) की 'उत्पल टीका' में इसके दो प्राकृत पद्य उद्धृत हैं । कालकसूरि का निमित्त ग्रन्थ भी था । ऋषिपुत्र ( ई० ६५० ) – ये गर्म नामक आचार्य के पुत्र थे - वराहमिहिर के पूर्ववर्ती थे। इनका लिखा निमितशास्त्र' नामक ज्योतिष का ज्ञान इन्हें पिता से मिला था। ये गन्ध है। यह संहिता सम्बन्धी है। हरिभद्रसूरि (८वीं शती) - मुनि जिनविजयजी ने इनका काल सं० ७५८ से ८२७ प्रमाणित किया है (जैन साहित्य संशोधक, वर्ष १, अंक १) राजस्थान के जैन विद्वानों में इनका नाम अग्रणी है ये चित्रकूट (चितौड़) के निवासी थे। जन्म से ये ब्राह्मण जाति के थे, बाद में साध्वी वाकिनी महत्तरा से प्रतिबोधित होकर आचार्य जिनदत्तसूरि के पास दीक्षा ली। ये संस्कृत और प्राकृत के प्रकाण्ड पण्डित हुए । आगम साहित्य के प्रथम टीकाकार के रूप में इनकी प्रसिद्धि है । इनके 'समराइच्चकहा' और 'धूर्त्ताख्यान' प्राकृत के श्रेष्ठ कथा- ग्रन्थ हैं । इनका साहित्य बहुविध और विशाल है । ज्योतिष पर इन्होंने लग्गसुद्धि (लग्नशुद्धि) ग्रन्थ लिखा है। यह प्राकृत में है। इसे लग्नकुण्डलिका भी कहते हैं। इसमें १३३ गाथाएँ हैं यह जातक या होरा सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें लग्न के फल, गोचर शुद्धि आदि का विवरण है। महावीराचा (८५०० के यह दक्षिण में कर्नाटक प्रदेश के निवासी दिगम्बर जैन विद्वान थे। इनको मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम ( ७९३ - ८१४ ई०) का राज्यश्रय प्राप्त था । इस राजा के काल में जैन धर्म की उन्नति हुई । साहित्य, कला और विज्ञान के क्षेत्र में भी पर्याप्त प्रोत्साहन मिला । महावीराचार्य गणित और ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। इसके लिए उनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। महावीराचार्य की ज्योतिष पर ज्योतिषपटल तथा गणित पर गणितसारसंग्रह और बत्रिशिका नामक कृतियाँ मिलती हैं । गणित और ज्योतिष का घनिष्ठ सम्बन्ध है । १. ज्योतिषपटल - इसमें ग्रह, नक्षत्र और तारों के संस्थान, गति, स्थिति संख्या के विषय में वर्णन है । यह कृति अपूर्ण मिलती है। सम्भवतः यह गणितसारसंग्रह पर आधारित है। २. गणितसारसंग्रह — इसमें 8 प्रकरण हैं— संज्ञाधिकार, परिकर्मव्यवहार, कला-सवर्ण व्यवहार, प्रकीर्णव्यवहार, शिकव्यवहार, मिश्रव्यवहार, क्षेत्र- गणितव्यवहार, खातव्यवहार और छायाव्यवहार आरम्भ में 'संज्ञाधिकार' में गणित को सब शास्त्रों में महत्वपूर्ण और उपयोगी बताया गया है। इसमें २४ अंक तक संख्याओं का उल्लेख है । लघुसमावर्तक का आविष्कार महावीराचार्य की महान् देन है । ३. त्रिशिका -- यह लघु कृति है । इसमें बीजगणित के व्यवहार दिये हैं । श्रीधर (१०वीं शती) - यह कर्नाटक का निवासी था । प्रारम्भ में शैव ब्राह्मण था, परन्तु बाद में जैन धम अंगीकार कर लिया था । यह ज्योतिष और गणित का प्रकाण्ड पण्डित था । इसने संस्कृत में गणितसार और ज्योतिज्ञनिनिधि तथा कन्नड़ में जातकतिलक ग्रन्थों की रचना की थी। १. गणितसार - यह गणित का उत्तम ग्रन्थ है। इसमें अभिन्नगुणक, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, समच्छेद आदि के साथ राशि व्यवहार, छायाव्यवहार आदि गणितों का वर्णन है । . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ४०३ . . ............... ...-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. २. ज्योतिर्ज्ञाननिधि-प्रारम्भिक ज्योतिष सम्बन्धी उपयोगी ग्रन्थ है। इसमें व्यवहारोपयोगी मुहूर्त भी दिये हैं। ३. जातकतिलक-यह कन्नड़ में होरा और जातक सम्बन्धी कृति है। इसमें लग्न, ग्रह, ग्रहयोग और जन्म-. कुण्डली सम्बन्धी फलादेश बताये हैं । दक्षिण भारत में इस ग्रन्थ का बहुत प्रचार रहा । गणितसार पर उपकेशगच्छीय सिद्धसूरि की टीका भी है। दुर्गदेव (१०३२ ई.)-यह प्रसिद्ध दिगम्बर जैन विद्वान थे । इनके गुरु का नाम संयमदेव था । इनके तीन ग्रन्थ प्राप्त हैं - १. रिट्ठसमुच्चय (रिष्टसमुच्चय)-इसकी भाषा मुख्यतया शौरसेनी प्राकृत है। इसे कुम्भनगर (कुम्भेरगढ़, भरतपुर, राजस्थान) में राजा लक्ष्मीनिवास के राज्यकाल में लिखा था। इसमें रिष्ट अर्थात् मरणसूचक लक्षणों का विचार है । यह सिंघी जैन ग्रन्थमाला बम्बई से १९४५ ई० में प्रकाशित हो चुका है। शकुनों और शुभाशुभ निमित्तों का संग्रह है। २. अग्घकाण्ड (अर्घकाण्ड)-यह प्राकृत में है। ज्योतिष ग्रन्थों में 'अर्थ' सम्बन्धी अध्याय मिलता है, परन्तु इस शीर्षक से केवल यही स्वतन्त्र ग्रन्थ मिलता है । ग्रयोग के अनुसार किसी वस्तु के खरीदने या बेचने से लाभ होने का वर्णन है। ३. षष्टिसंवत्सरफल-यह लघुकृति है इसमें साठ संवत्सरों के फल का वर्णन है। नरपति (११७५ ई०) यह धारा निवासी आम्रदेव के पुत्र थे। इसने अणहिल्लपुर के राजा अजयपाल के काल में सं० १२३२ (११७५ ई.) में आशापल्ली नामक स्थान में नरपतिजयचर्या ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें मातृका आदि स्वरों के आधार पर शकुन देने की विधि दी है, इसमें यामलग्रन्थों का भी उल्लेख है। इस पर वि० १८वीं शती में खरतरगच्छीय हर्षनिधान के शिष्य पुण्यतिलक ने टीका लिखी है। अन्य जैनेतर हरिवंश की टीका भी मिलती है। नरचन्द्रसूरि (१२२३ ई०)-यह मलधारीगच्छ के आचार्य देवप्रभसूरि के शिष्य थे। इनका ज्योतिष पर ज्योतिस्सार ग्रन्थ प्राप्त है। ज्योतिस्सार–इसे 'नारचन्द्र ज्योतिष' भी कहते हैं । इसकी रचना सं० १२८० (१२२३ ई०) में हुई । तिथि, वार, नक्षत्र, योग, राशि, चन्द्र, तारकाबल, भद्रा, कुलिक, उपकुलिक, कंटक, अर्थप्रहर, कालवेला आदि ४८ विषयों का विवेचन है । इस पर सागरचन्द्र मुनि ने 'टिप्पण' लिखा है। उदयप्रभदेवसूरि (१२२३ ई०)-यह नागेन्द्रगच्छीय आचार्य विजयसेनसूरि के शिष्य थे। उदयप्रभदेवसूरि के मल्लिषेणसूरि और जिनप्रभसूरि शिष्य थे । ज्योतिष पर इनका आरम्भसिद्धि ग्रन्थ है। आरम्भसिद्धि-इसे 'व्यवहारचर्या' और 'पंचविमर्श' भी कहते हैं । इसका रचनाकाल सं० १२८० (१२२३ ई०) है । संस्कृत पद्यों में मुहूर्त सम्बन्धी उत्तम ग्रन्थ है। इसमें पाँच 'विमर्श' और ११ 'द्वार' हैं। इसमें प्रत्येक कार्य के शुभाशुभ मुहूर्तों का वर्णन है। इस पर आचार्य रत्नशेखरसूरि के शिष्य हेमहंसगणि ने सं० १५१४ में 'सुधीशृंगार' नामक वार्तिक लिखा है। पद्मप्रभसूरि (१२३७ ई०)-यह नागपुरीय तपागच्छ के संस्थापक और वादिदेवसूरि के शिष्य थे। इनका निवास स्थान राजस्थान था । इन्होंने ज्योतिष पर भुवनदीपक ग्रन्थ लिखा है। भवनदीपक-इसे 'ग्रहभावप्रकाश' भी कहते हैं। इसका रचनाकाल सं० १२९४ (१२३७ ई०) है। छोटा होने पर भी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें ज्योतिष के अनेक विषय दिये हैं। इस पर सिंहतिलकसूरिकृत 'भुवनदीपकवृत्ति', मुनि हेमतिलक कृत 'भुवनदीपककृत्ति', जैनेतर दैवज्ञशिरोमणिकृत 'भुवनदीपकवृत्ति' टीकाएँ प्राप्त हैं। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 O ४०४ ** कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड हेमप्रभसूरि ( १२४८ ई० ) – यह देवेन्द्रसूरि के शिष्य थे। इन्होंने ताजिक ज्योतिष पर त्रलोक्य प्रकाश नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसका रचनाकाल सं० १३०५ (१२४८ ई० ) है । इसमें मुस्लिम लग्नशास्त्र का वर्णन है । ज्योतिष-योगों से शुभाशुभ फल बताये हैं । इनका दूसरा ग्रन्थ मेघशाला है । यह निमित्त सम्बन्धी ग्रन्थ है । इसका रचनाकाल भी सं० १३०५ के लगभग है । नरचन्द्र उपाध्याय (१२६६ ई० ) - यह का सहद्गच्छ के उद्योतनसूरि के शिष्य सिंहरि के शिष्य थे। देवानन्दरि इनके विद्यागुरु थे। ज्योतिष पर इनके अनेक ग्रन्थ और उन पर टीकाएँ लिखी मिलती हैं--- १. जन्मसमुद्र ( रचनाकाल सं० १३२३ १२६६ ई०) यह जातक सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें 'कल्लोल' हैं। २. बेड़ाजातकवृत्ति - ' जन्मसमुद्र' पर स्वरचित टीका है। रचना समय सं० १३२४ माघ शुक्ल अष्टमी रविवार - दिया है। ३. प्रश्नशतक- - ( रचनाकाल सं० १३२४ ) इसमें लगभग सौ प्रश्नों का समाधान किया गया है । ४. प्रश्नशतक अवचूरि- उपर्युक्त पर स्वोपज्ञ टीका है । ५. ज्ञानचतुविशिका ( रचनाकाल सं० १२२५) इस छोटी कृति में लग्नानयन, पुत्रपुषी-ज्ञान, जयपृच्छा आदि विषय है। ६. ज्ञानचतुविशिका - उपर्युक्त पर टीका है । ७. ज्ञानदीपिका ( रचना ० १३२५) - ८. लग्नविचार - ( रचना सं० १३२५ ) ९. ज्योतिषप्रकाश ( रचना सं० १२२५) फलित ज्योतिष सम्बन्धी । १०. चतुर्विशिकोद्धार - ( रचना सं० १३२५) प्रश्न- लग्न सम्बन्धी । ११. चतुवंशिकोद्धार - अवचूरि- उपर्युक्त पर स्वोपज्ञ अवचूरि । ठक्कुर फेरू (१३-१४वीं शती) – यह राजस्थान के कन्नाणा ग्राम के श्वेताम्बर श्रावक श्रीमालवंशीय चंद्र के पुत्र थे । इनको दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने अपना कोषाधिकारी (खजांची) नियुक्त किया था । इनके ८ ग्रन्थ मिलते हैं । 'युगप्रधानचतुष्पदिका' (रचना सं० १३४७ = १२६० ई० ) अपभ्रंशमिश्रित लोकभाषा में है । शेष कृतियां प्राकृत में हैं। इनकी गणित पर गणितसारकौमुदी और ज्योतिष पर ज्योतिसार ग्रन्थ है। १. गणितसार कौमुदी -- यह महावीराचार्य के गणितसारसंग्रह और भास्कराचार्य के लीलावती पर आधारित है। २. ज्योतिसार (रचना सं० १२७२१३१२ ई०) इसमें बार 'द्वार' हैं-दिन-शुद्धिद्वार, व्यवहारद्वार गणितद्वार, लग्नद्वार। इसमें पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों का उल्लेख है । अर्हदास (१३०० ई० ) – यह 'अट्ठकवि' के नाम से प्रसिद्ध है । यह कर्नाटक निवासी थे । इन्होंने कन्नड़ में ज्योतिष पर अट्ठमत नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा है। इसमें वर्षा के चिह्न, आकस्मिक लक्षण, शकुन, वायुचक्र, गृहप्रवेश, भूकम्प आदि विषयों का निरूपण है । इनका काल १३०० ई० के लगभग है । भास्कर कवि ने शाके १४वीं शती में इसका तेलुगु में अनुवाद किया था । महेन्द्रसूरि (१३७० ई० ) - यह आचार्य मदनसूरि के शिष्य थे। यह दिल्ली के फिरोजशाह तुगलक के सभापण्डित थे । 'यन्त्रराज' इनकी ग्रहगणित पर अच्छी कृति है । रचनाकाल शक सं० १२९२ (१३७० ई० ) है । इसमें विभिन्न यन्त्रों की सहायता से सभी ग्रहों का साधन बताया है । इनके ही शिष्य मलयेन्दुसरि ने इस पर टीका लिखी है । . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा गुणाकरसूरि ( १५वीं शती) - इनका जातक सम्बन्धी होरामकरन्द ग्रन्थ मिलता है। इसमें ३१ अध्याय हैं । रत्नशेखरसूरि (१५वीं शती) — इन्होंने प्राकृत में दिनसुदि ( दिनशुद्धि) नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा है । मेघरल (१४९३ ई०) यह वडगच्छीय विनयसुन्दरसूरि के शिष्य थे। इन्होंने सं० १५५० के लगभग उस्तर लावयंत्र नामक ज्योतिषन्थ लिखा है। इस पर संस्कृत में स्वोपश टीका है। मुनि भक्तिलाम (१५१४ ६० ) – यह खरतरगच्छीय मुनिरत्नचन्द्र के शिष्य थे। इन्होंने वाराहमिहिर के 'लघुजातक' पर सं० १५७१ (१५१४ ई०) में विक्रमपुर (बीकानेर) में टीका लिखी है । साघुराज (१६वीं शती) - यह बरतरगच्छीय साधु थे। इन्होंने ज्योतिषचतुशिका टीका लिखी है। - मुनि मतिसागर (१६वीं शती) — इन्होंने सं० १६०२ (१५४५ ई० ) में वराहमिहिर 'लघुजातक' पर भाषा में 'वचन' लिखी है । इन्होंने इस पर वार्तिक भी लिखा है । ४०५ हीरकलश (१५६४ ई० --- १६०० ई० ) – यह खतरगच्छीय हर्षप्रभ के शिष्य थे। मारवाड़ क्षेत्र (जोधपुरबीकानेर) के निवासी थे, ज्योतिष पर इनके दो ग्रन्थ हैं (१) जोइससार (ज्योतिषसार ) यह प्राकृत में है। रचना सं० १६२१ (१५६४ ६०) नागौर । (२) हीरकलस जोइसहीर रचना सं० १६५७ (१६०० ई०) राजस्थानी में पदों में लिखा गया है। कृपाविजय (१५७८ ई० ) – यह तपागच्छीय मुनि थे। इन्होंने शक सं० १५०० में मोढ़ दिनकर कृत 'चन्द्रार्की' पर टीका लिखी है । विनयकुशल (१५६५ ई० ) – यह आचार्य विजयसेनसूरि के शिष्य थे। प्राकृत में खगोल- ज्योतिष सम्बन्धी मंडलप्रकरण ग्रन्थ लिखा है। इस पर स्वयं लिखी है। मुनिसुन्दर (१५६८ ई० ) - यह रुद्रपल्लीगच्छीय जिनसुन्दरसूरि के शिष्य थे। इन्होंने सं० १६५५ (१५६८ ई० ) ज्योतिष गणित पर करणराज या करणर राजगणित लिखा है। इसमें १० अध्याय हैं । इन्होंने सं० १६५२ (१५९५ ई०) में लेखक ने सं० १६५२ में स्वोपज्ञटीका ही (१६०३ ई० ) - यह नागोरी तपगच्छीय आचार्य चन्द्रकीर्तिरि के शिष्य थे। राजस्थान के - निवासी थे । व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक, छन्द और कोष के अच्छे विद्वान् थे। ज्योतिष पर इनके तीन ग्रन्थ हैं (१) ज्योतिस्सारसंग्रह ( ज्योतिषसारोद्धार ) – रचना सं० १६६० = १६०३ ई० (२) जन्मपत्रीपद्धति (३) विवाहपटल-बालावबोध जयरत्नगणि (१६०५ ई० ) – यह पूर्णिमाक्ष के आचार्य भावरत्न के शिष्य थे। इन्होंने त्र्यंबावती (खंभात गुजरात) में सं० १६६२ (१६०५ ई०) में 'ज्वरपराजय' नामक वैद्यक ग्रन्थ तथा ज्योतिष पर दोषरत्नावली य : ज्ञानरत्नावली ग्रन्थ की रचना की थी । श्रीसारोपाध्याय (१७वीं शती) – इनका ज्योतिष पर जन्म स्त्रीविचार नामक ग्रन्थ मिलता है। समयसुन्दर ( १६२५ ई० ) - उपाध्याय समय सुन्दर ने लूणकरणसर (बीकानेर) में अपने प्रशिष्य वाचक अपकीति के सहयोग से ० १६०५ (१६२० ई०) में ज्योतिष पर दीक्षाप्रतिष्ठाद्धि प्रन्थ लिखा है इसमें १२ अध्याय हैं । कीर्तिवर्द्धन या केस (१७वीं शती) - यह आधपक्षीय मुनि दयारत्न के शिष्य थे। इन्होंने मेड़ता में जन्मप्रकाशिका ज्योतिष की रचना की है । - लाभोदय (१७वीं शती) यह उपाध्याय भुवनकीति के शिष्य थे। इनका ज्योतिष पर बलिरामानन्दसार संग्रह ग्रन्थ है। यह संग्रहकृति है। . Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड सुमतिहर्ष ( १६१६ ई० ) - यह अंचलगच्छीय हर्षरत्नमुनि के शिष्य थे । ज्योतिष पर इनके ५ (पाँच) ग्रन्थ हैं 1 (१) जातकपद्धति - टीका - श्रीपतिकृत 'जातक पद्धति' पर टीका । रचना सं० १६७३ । (२) ताजिकसार टीका-हरिभट्ट (हरिभद्र) कृत 'ताजिकसार' पर टीका रचना सं० १६७७ । (३) करणकुतूहल - टीका - भास्कराचार्यकृत करणकुतूहल' पर टीका । रचना सं० १६६७ । (४) होरामकरन्द - टीका - रचना सं० १६७० । (५) बृहत्पर्वमाला - मौलिक ग्रन्थ है । धनराज (१६२५ ई०) - यह अंचलगच्छीय मुनि भोजराज के शिष्य थे। में पद्मावतीपतन में महादेवकृत 'महादेव सारणी' पर दीपिका-टीका लिखी है। भावरत्न या भावप्रभसूरि ( १६५५ ई० ) - यह पूर्णिमागच्छ के मुनि थे। इन्होंने व्यंबावती में 'ज्योतिर्विदाभरण' पर सं० १७१२ (१६५५ ई०) में 'सुबोधिनी-वृत्ति, नामक टीका लिखी है। महिमोदय (१६६४ ० ) - यह खरतरगच्छीय मतिहंस के शिष्य थे। ये गणित एवं फलित ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित थे । ज्योतिष पर इनके निम्न ग्रन्थ मिलते हैं इन्होंने सं० १६९२ (१६३५६०) यशोविजयगणि (१६७३ ई० ) - नयनविजयगणि के शिष्य उपाध्याय यशोविजयगणि ने सं० १७३० (१६७३ ई०) में फलाफलविषयक प्रश्नपत्र नामक ज्योतिष पर छोटा सा ग्रन्थ लिखा था। इसमें चार 'च' है और प्रत्येक चक में सात 'कोष्ठक' हैं । (१) ज्योतिषरत्नाकर (रचना सं० १७२२१६६५ ६० ) – यह फलित ज्योतिष का ग्रन्थ है। (२) जन्मपत्रीपद्धति ( रचना सं० १७२१ = १६६४ ई० ) । (२) गणित साठ सौ (रचना सं० १७३३) गणित विषयक ग्रन्थ । (४) षट्पंचाशिका-ठीका- वराहमिहिर के पुत्र पृथुवश कृत 'पट्पंचाशिका' पर टीका (५) खेटसिद्धि (६) पंचागानयनविधि ( रचना सं० १७२२) (७) प्रेमज्योतिष विजयगण (१६८० ई० ) ये तपागच्छीय साधु ये मारवाड़ क्षेत्र (राजस्थान) के निवासी थे। 'सिप्ति' की रचना सं० १७३७ (१६०० ई०) में सादड़ी में की थी। ज्योतिष पर इनके निम्न ग्रन्थ मिलते हैं प्रकरण है। इसे मेघमहोदय भी कहते हैं ( रचना सं (१) वर्षबोध इसमें १५ अधिकार और २५ १७३२ से पूर्व ) । मुहूर्त (२) उदयदीपिका ( रचना सं० १७५२) । (४) हस्तसंजीवन ( रचना सं० १७३५) । ( ६ ) प्रश्नसुन्दरी । (३) प्रश्न सुन्दरी ( रचना सं० १७५५ ) । (५) रमलशास्त्र ( रचना सं० १७३५) । (७) वीशायंत्रविधि और (१) विवाहपटल इसमें नक्षत्र, नाडीबेघमंत्र, राशिस्वामी ग्रहशुद्धि, विवाहनक्षत्र, चन्द्र-सूर्य स्पष्टीकरण, एकार्गल, गोधूलिका फल आदि का वर्णन है । (२) चमत्कारचितामणि- टीका- राजर्षिभट्ट कृत 'चमत्काचितामणि' पर टीका । रचना सं० १७३७ । लाभवर्द्धन (लालचंद ) (सं० १६३६ ई० ) - यह खरतरगच्छीय जैनयति थे और शांतिहर्ष के शिष्य थे। इनका मूल नाम लालचंद था। इन्होंने सं० १७३९ (१६०२ ई०) में बीकानेर में लीलावती गणित-भाषा, सं० १७३६ (१९०९ ई०) में गूड़ा में अंकप्रस्तार नामक गणित सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे। सं० १७५३ में स्वरोदय भाषा और सं० १७७० में शास्त्र पर शकुनदीपिका चौपई लिखी। इनके भाषा काव्य सम्बन्धी अन्य ग्रन्थ भी प्राप्त हैं। उभयकुशल ( १६८० ई० ) - इनका अन्य नाम 'अभयकुशल' है। यह खरतरगच्छीय मुनि पुण्यहर्ष के शिष्य थे । जातक के अच्छे विद्वान् थे। ज्योतिष पर इनके दो ग्रन्थ हैं . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ४०७ . ........... . ................ ............ . .... . .. .. . ... . . . . ..... लक्ष्मीवल्लभ उपाध्याय (१६८४ ई.)--ये खरतरगच्छीय लक्ष्मीकीति के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७४१ में शंभुनाथकृत 'कालज्ञान' का पद्यमय भाषानुवाद कालज्ञानभाषा किया है। ज्ञानभूषण (१६९३ ई०)- इन्होंने सं० १७५० (१६६३ ई.) में ज्योतिष पर ज्योतिप्रकाश ग्रन्थ लिखा है। दूसरा ग्रन्थ खेटचूला है। यह भी ज्योतिष पर है। लब्धिचंद्रगणि (१६६४ ई०)-यह खरतरगच्छीय मुनि कल्याणनिधान के शिष्य थे। इनके ज्योतिष पर दो ग्रन्थ हैं१. जन्मपत्रीपद्धति-रचना सं० १७५१ २. लालचन्दीयपद्धति-जातक सम्बन्धी ग्रन्थ है। यशस्वतसागर (१७०३ ई.)-इनका अन्य नाम जसवंतसागर था। यह चारित्रसागर के शिष्य कल्याणसागर के शिष्य थे। ये राजस्थान के निवासी थे । ज्योतिष, न्याय, व्याकरण और दर्शन के विद्वान थे । ज्योतिष पर इनके ये ग्रन्थ हैं (१) ग्रहलाघव-वातिक-रचना सं० १७६० (१७०३ ई०) है। गणेशकृत 'ग्रहलाघव' का टीका। (२) यशोराजीपद्धति-रचना सं० १७६२ (१७०५ ई०)। यह जन्मकुण्डली सम्बन्धी व्यावहारिक ग्रन्थ है। लक्ष्मीचंद (१७०३ ई०)-यह पार्श्वचंद्रगच्छीय जगच्चद्र के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७६० (१७०३ ई०) में ज्योतिष पर गणसारणी ग्रन्थ लिखा है। इसमें तिथि, नक्षत्र आदि की गणनाएँ दी हैं। जयधर्म (१७०५) ई०-यह जैन यति पं० लक्ष्मीचंद के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७६२ (१७०५ ई.) में पानीपत में हिन्दी पद्यों में शकुनप्रदीप की रचना की है। लक्ष्मी विनय (१७१० ई०)-यह खरतरगच्छीय अभयमाणिक्य के शिष्य थे। इन्होंने पद्मप्रभसूरिकृत भवनदीपक पर सं० १७६७ (१७१० ई०) में बालावबोध टीका लिखी है। लक्ष्मीविजय (१७१० ई०)--यह खरतरगच्छीय मुनि थे। इन्होंने हरिभद्र कृत 'भुवनदीपक' पर सं० १७६७ (१७१० ई०) में टीका लिखी है। बाघजी मुनि (१७२६ ई.)-यह पार्श्वचंद्रगच्छीय शाखा के जैन यति थे। इनका काल सं० १७८३ (१७२६ ई०) है। इनके ज्योतिष पर तिथिसारणी आदि तीन-चार ग्रन्थ मिलते हैं । लब्धोदय (१८वीं शती)--यह खरतरगच्छीय ज्ञानराज के शिष्य थे । इन्होंने होरावबोध लिखा है। रत्नजय (१८वीं शती)—यह खरतरगच्छीय रत्नराजगणि के शिष्य थे। इन्होंने जन्मपत्रीपद्धति ग्रन्थ लिखा है। पुण्यतिलक (१८वीं शती)-यह खरतरगच्छीय हर्षनिधान के शिष्य थे। ज्योतिष पर इन्होंने ग्रहायुः ग्रन्थ लिखा है। 'नरपतिजयचर्या' (निमित्तग्रन्थ) पर टीका भी लिखी है। जिनोदयसरि (१८वीं शती)--यह बेगड़गच्छीय जिनोदयसूरि के शिष्य थे। इन्होंने उदयविलास नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा है। जिनोवयसरि (१८वीं शती)-यह खरतरगच्छीय मुनि थे । इन्होंने १५० श्लोकों में विवाह रत्न की रचना की है। मुनि अमर (१८वीं शती)-यह खरतरगच्छीय मुनि सोमसुन्दर के शिष्य थे। इन्होंने विवाहपटल पर बालावबोध टीका लिखी है। रामविजय उपाध्याय (१७४४ ई०)-यह खरतरगच्छीय दयासिंह के शिष्य थे। इन्होंने सं० १८०१ .(१७४४ ई०) में मुहर्तमणिमाला की रचना की है । विवाहपटल पर भी भाषा टीका लिखी है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड ... ... .................................................... रत्नधीर (१७४६ ई०)-यह खरतरगच्छीय मुनि ज्ञानसागर के शिष्य थे। इन्होंने पद्मप्रभसूरिकृत 'भुवनदीपक' पर सं० १८०६ (१७४६ ई.) में बालावबोध लिखा है। मुनि मेघ (१७६० ई०) यह उत्तराधगच्छ के मुनि जटमल शिष्य परमानन्द शिष्य सदानन्द शिष्य नारायण शिष्य नरोत्तम शिष्य मयाराम के शिष्य थे । इनका निवासस्थान फगवाड़ा (पटियाला स्टेट, पंजाब) था। यह ज्योतिष और वैद्यक के विद्वान् थे। वैद्यक पर मेघविनोद ग्रन्थ मिलता है। ज्योतिष पर मेघमाला नामक ग्रन्थ लिखा है। इसकी रचना फगवाड़ा में चौधरी चाहड़मल के काल में सं० १८१७ को हुई थी। यह वर्षा-ज्ञान सम्बन्धी ग्रन्थ है। यति रामचन्द (१७६० ई०)-यह खरतरगच्छीय मुनि थे। इनका क्षेत्र नागौर (राजस्थान) था। इन्होंने शकुनशास्त्र पर अवयादी शकुनावली नामक ग्रन्थ सं० १८१७ में लिखा था। भूधरदास (१७७० ई०)-यह खरतरगच्छीय जिनसागरसूरि शाखा के रंगवल्लभ के शिष्य थे। इन्होंने भौधरी ग्रहसारणी नामक ज्योतिष ग्रन्थ सं० १८२७ में रचा। मुनि मतिसागर-इनका नाम मतिसार भी है। राजर्षि भट्ट कृत चमत्कारचितामणि पर इन्होंने सं० १८२७ में फरीदकोट में टबा की रचना की है। मनि विद्याहेम (१७७३ ई.)-यह खरतरगच्छीय मुनि थे। इन्होंने विवाहपटल पर सं० १८३० में अर्थ नामक टीका लिखी है। मुनि खुशालसुन्दर (१७८२ ई.)-इन्होंने वराहमिहिर के लघुजातक पर स्तबक सं० १८३६ में लिखा है। सतीदास (१९वीं शती)-यह जैनयति थे। इन्होंने सुथाणसिंह के काल में शुकनावली (शकुनावली) ग्रन्थ पद्यमय भाषा में लिखा है। चिदानन्द (कपूरचंद) (१८५०ई०)-यह खरतरगच्छीय यति चुन्नालाल के शिष्य थे। इन्होंने पालीताणा (गुजरात) में सं० १९०७ में पद्यों में स्वरोदयभाषा की रचना की है। निमित्त-ग्रन्थ सिद्धपाहड (सिद्धप्राभूत)--यह ग्रन्थ अप्राप्त है। इसमें अंजन, पादलेप, गुटिका आदि का वर्णन था। जयपाहुड (जयप्राभूत)-अज्ञातकर्तृक । यह निमित्तशास्त्र सम्बन्धी है। यह जिनभाषित है। इसमें अतीत. अनागत सम्बन्धी नष्ट, मुष्टि, चिंता, विकल्प आदि के लाभालाभ का ३७८ गाथाओं में विचार है। यह १०वीं शती के पहले की रचना है। निमित्तपाइड (निमित्तप्राभूत)-इसमें ज्योतिष व स्वप्न आदि निमित्तों का वर्णन है। इसका आचार्य भद्रेश्वर ने कहावली' में उल्लेख किया है। ‘जोणिपाहुड (यौनिप्राभृत) यह निमित्तशास्त्र का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसे दिगम्बर आचार्य धरसेन (प्रज्ञाश्रमण मुनि) ने अपने शिष्य पुष्पदंत और भूतबलि के लिए लिखा है। इसमें ज्वर, भूत, शाकिनी आदि को दूर करने के विधान दिये हैं। इसे सब विद्याओं और धातुवाद का मूल तथा आयुर्वेद का सार रूप माना है। इसमें एक जगह लिखा है कि प्रज्ञाश्रमणमुनि ने संक्षेप में 'बालतंत्र' भी लिखा है। पण्हावगारग (प्रश्नव्याकरण)-यह दसवें अंग आगम से भिन्न निमित्त सम्बन्धी प्राकृत ग्रन्थ है। इसमें निमित्त का सांगोपांग वर्णन है। इस पर ३ टीकाएँ हैं। श्वानशकुनाध्याय-अज्ञातकर्तृक । संस्कृत में २२ पद्यों में रचित है। इसमें कुत्ते की गतियों और चेष्टाओं से शुभाशुभ फल बताये हैं। . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा साणस्य (श्वानरुत ) – अज्ञातकर्तृक । इसमें कुत्ते की विभिन्न आवाजों के आधार पर गमन-आगमनजीवित-मरण आदि का वर्णन है । सिद्धादेश - अज्ञातकर्तृक । इसमें वर्षा, वायु, विद्युत के शुभाशुभ फल दिये हैं । उपस्सुइदार ( उपश्रुतिद्वार) - अज्ञातकर्तृक । इसमें सुने शब्दों के आधार पर शुभाशुभ फल दिये हैं । छायादार (छायाद्वार) – अज्ञातकर्तृक । छाया के आधार पर शुभाशुभ फल दिये हैं । नाडीदार (नाडीद्वार) – अज्ञातकर्तृक । इडा पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के विषय में वर्णन है । " निमित्तदार ( निमित्तद्वार) – अज्ञातकर्तृक । निमित्तों का वर्णन है । रिट्ठदार (रिष्टद्वार ) -- अज्ञातकर्तृक । जीवन-मरण का फलादेश है । पिपीलियानाण ( पिपीलिकाज्ञान ) - अज्ञातकर्तृक । चींटियों की गति देखकर शुभाशुभ फल बताये हैं । प्रणष्टलाभादि --- अज्ञातकर्ता के । प्राकृत में । गतवस्तुलाभ, बन्ध-मुक्ति, रोग, जीवन-मरण का विचार है । नाडीविज्ञान-अज्ञातकर्तृक । संस्कृत में । नाडियों की गति से शुभाशुभ फल दिये हैं । नाडी विधार (नाडीविवार) – अज्ञातकतुक प्राकृत में कार्यानुसार दायी या बायीं नाड़ी के शुभाशुभ फल बताये हैं । मेघमाला- -अज्ञातकर्तृक । प्राकृत में । नक्षत्रों के आधार पर वर्षा के चिह्नों और उनके शुभाशुभ फल बताये हैं। ठीकविचार - अज्ञातकर्तृक प्राकृत में छींक के शुभाशुभ फल दिये हैं। I ४०६... लोकविजय तंत्र - अज्ञातकर्तृक । प्राकृत में । सुभिक्ष और दुर्भिक्ष का विचार है। ध्रुवों के आधार पर शुभाशुभ फल दिये हैं । 1 सुविचार (स्वप्नद्वार) – अज्ञातकर्तुं क प्राकृत में स्वप्नों के शुभाशुभ फल दिये हैं। सुमिणसत्तरिया (स्वप्नसप्ततिका) — अज्ञातकर्तृक । प्राकृत में स्वप्न के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। इस पर जैसलमेर में सं० १२८७ (१२३० ई०) में खरतरगच्छीय सर्वदेवसूरि ने वृत्ति की रचना की है। जिनपासगणि— इन्होंने सुविणविचार नामक स्वप्नशास्त्र सम्बन्धी अन्य ८५ गाथाओं में लिखा है। जगदेव ( ११वीं शती) - यह गुजरात के राजा कुमारपाल के मंत्री दुर्लभराज का पुत्र था । पिता-पुत्र को इस राजा का आश्रय प्राप्त था । इनका स्वप्नशास्त्र ग्रन्थ है । - वर्धमानसूरि – यह रुद्रपल्लीय गच्छ के मुनि थे । इन्होंने स्वप्नों के सम्बन्ध में स्वप्नप्रदीप या स्वप्नविचार ग्रन्थ लिखा है। इसमें ४ 'उद्योग' हैं- दैवतस्वप्न, द्वासप्ततिमहास्वप्न, शुभस्वप्न, अशुभस्वप्न । वर्धमानसूर (११वीं शती) यह आचार्य अभयदेवसूरि (सं० १९२०) के शिष्य थे। इनका शकुनशास्त्र पर शकुन रत्नावलि कथाकोश नामक ग्रन्थ है । आचार्य हेमचन्द्रसूरि (१२वीं शती) - इनका शकुन सम्बन्धी शकुनावलि ग्रन्थ प्राप्त है । जिनदत्तसूरि (१२१३ ई० ) - वायडगच्छीय जैन मुनि थे, इन्होंने सं० १२७० में विवेकविलास की रचना की थी । शकुनशास्त्र पर इन्होंने शकुनरहस्य संस्कृत पद्यों में ग्रन्थ लिखा है । इसमें 8 प्रस्ताव हैं । सउणदार (शकुनद्वार) – अज्ञातकर्तृक । माणिक्यसूरि (१२८१ ई० ) - इन्होंने सं० १३३८ में शकुनशास्त्र या शकुनसारोद्धार ग्रन्थ लिखा है । पार्श्वचन्द्र आचार्य चंद्रसूरि के शिष्य थे। इन्होंने निमित्तशास्त्र पर हस्तकांड ग्रन्थ की रचना की है। इसमें सो पद्य हैं । • . Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० +++ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ++++++ शकुनविचार (दोहा) - अपभ्रंश में। इसमें किसी पशु के दायें या बायें होकर निकलने के शुभाशुभ फल दिये हैं । सामुद्रिक-ग्रन्थ अंगविज्जा ( अंगविद्या ) ( ३ री ४थी शती) - अज्ञातकर्ता के रचना है। पिंडनियुक्ति टीका आदि प्राचीन ग्रन्थों में इसका उल्लेख है। इसमें शरीर के विभिन्न लक्षणों और चेष्टाओं के द्वारा शुभाशुभ फलों का विचार किया गया है । इसके अनुसार अग, स्वर, लक्षण, व्यंजन, स्वप्न, छींक, भौम और अन्तरिक्ष-ये आठ महानिमित्त के आधार हैं। इनके द्वारा भूत-भविष्य का ज्ञान होता है। इसमें ६० अध्याय हैं । इसकी भाषा गद्य-पद्य मिश्रित प्राकृत है । करलक्खण ( करलक्षण ) — अज्ञातकर्तृक । इसे सामुद्रिक शास्त्र भी कहते हैं । इसमें हस्तरेखाओं का महत्त्व बताया है। मनुष्य की परीक्षा कर 'व्रत' देने का स्पष्टीकरण मिलता है । दुर्लभराज (११वीं शती) – यह गुजराज के सोलंकी राजा भीमदेव के मंत्री थे । इन्होंने ४ ग्रन्थ लिखे हैं - १. गजप्रबंध (गजपरीक्षा), २. तुरंग प्रबंध, ३. पुरुष - स्त्री लक्षण (समुद्रतिलक), ४. शकुनशास्त्र । समुद्रतिलक - इसमें ५ अधिकार हैं। इसमें पुरुष व स्त्री के लक्षणों का वर्णन है। इस ग्रन्थ को दुर्लभराज के पुत्र जगदेव ने पूरा किया था। सामुद्रिक - अज्ञातकर्तृ । संस्कृत में । हस्तरेखाओं और शारीरिक संरचना के आधार पर शुभाशुभ फल बताये है। सामुद्रिकशास्त्र - अज्ञातकक इसमें ३ अध्याय हैं। पहले में हस्तरेखाओं का दूसरे में शरीरावयवों का और तीसरे में स्त्री- लक्षणों का वर्णन है। अंगविद्याशास्त्र - अज्ञातकक इसमें ४४ श्लोकों में अशुभस्वप्नदर्शन, संज्ञक अंग, स्त्री-संज्ञक जंग आदि का वर्णन है । रामचन्द्र (१६६५ ई०) - यह खरतरगच्छीय जिनसिंहरि के शिष्य पद्मकीर्ति के शिष्य पचरंग के शिष्य थे। यह वैद्यक और ज्योतिष के विद्वान् थे । इन्होंने मेहरा (पंजाब) में सं० १७२२ में सामुद्रिक भाषा नामक पद्यमय भाषा ग्रन्थ लिखा है । इनके वैद्यक पर वैद्यविनोद (सं० १७२६, मरोट) और रामविनोद (सं० १७२०, सक्कीनगर ) ग्रन्थ हैं । नगराज (१८वीं शती) - यह खरतरगच्छीय जनयति थे । इन्होंने अजयराज के लिए सामुद्रिक भाषा की १८८ पद्यों में रचना की, इसमें स्त्री व पुरुष के शुभाशुभ लक्षण बताये हैं । लक्षण -शास्त्र पर निम्न ग्रन्थ भी हैंलक्षणमाला - आचार्य जिनभद्रसूरिकृत । लक्षणसंग्रह — रत्नशेखरसूरिकृत (वि० १६वीं शती) लक्ष्यलक्षण विचार - हर्ष कीर्तिसूरि कृत ( वि० १७वीं शती) लक्षण - अज्ञातक। लक्षण-अवचूरि- अज्ञात कर्तृ । अज्ञातकर्तृक लक्षणपंक्तिकथा - दिगम्बराचार्य श्रुतसागरसूरिकृत । प्रश्नशास्त्र (चूड़ामणि) दुविनीति (५वीं शती) यह द्रविड़ देश का राजा था। इसने प्राकृत गद्य में विस्तृत चूड़ामणि प्रन्थ की रचना की है। यह अप्राप्त है। इससे तीनों कालों का ज्ञान होता है । भद्रबाहु ( ६ठी शती) - भद्रबाहु स्वामी के नाम से प्राकृत में अहंच्चूडामणिसार नामक ग्रन्थ मिलता है । इसे चूडामणिसार या ज्ञानदीपक भी कहते हैं। इसमें वर्णों का विभाजनकर उनकी जायें दी गयी है। प्रश्नों के अक्षरों के उन वर्गों के आधार पर जय-पराजय, लाभाभाभ, जीवन-मरण फलों का ज्ञान होता है । . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वधर से भद्रबाहु से भिन्न हैं । समन्तभद्र – आचार्य समन्तभद्र के नाम से प्रश्नशास्त्र सम्बन्धी केवलज्ञानप्रश्नचूड़ामणि ग्रन्थ मिलता है । डॉ० नेमिचन्द्रशास्त्री ने इसका संपादन किया है । इन्हें आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र से भिन्न माना है । जैन ज्योतिष: प्रगति और परम्परा ४११ इस ग्रन्थ में अक्षरों का वर्गीकरण करके तदनुसार कार्य की सिद्धि लाभालाभ, रोगनिवारण, जय-पराजय आदि का विचार है । भट्टवोसरि ( १०वीं शती) – यह दक्षिण के दिगम्बर जैन आचार्य दामनन्दि के शिष्य थे। इन्होंने आयनाणतिलय (आयज्ञागतिलक) नामक प्रश्नशास्त्र सम्बन्धी अन्य प्राकृत में लिखा है, इसमें ध्वज, घूम, सिंह, गज, खर, स्नान, वृष और ध्वांक्ष (कौआ) इन आठ 'आयों' के द्वारा फलादेश का विस्तार से विवेचन है । इस पर स्वयं भट्टवोसरि ने स्वोपज्ञ टीका लिखी है । भी प्राप्त हैं मल्लिषेण (१०४३ ई० ) – यह कर्नाटक के निवासी थे । इनके गुरु दिगम्बर आचार्य जिनसेनसूरि थे । प्रश्न-शास्त्र पर इन्होंने सुग्रीव आदि मुनियों के ग्रन्थों के आधार पर आयसद्भाव नामक ग्रन्थ की रचना की है । इसमें भट्टवोसरि का भी उल्लेख है । इसमें २० प्रकरण हैं तथा ध्वज, धूम, सिंह, मंडल, वृष, खर, गज, वायस, इन आठ 'आयों' के स्वरूप व उनके आधार पर फलादेश बताया गया है । हरिश्चन्द्रगणि—इनका प्रश्नपद्धति नामक ज्योतिष ग्रन्थ मिलता है। प्रश्नशास्त्र पर कुछ अज्ञात ग्रन्थ (१) अक्षरचूडामणिशास्त्र — संस्कृत में । 1 (२) चन्द्रोन्मीलन- इसमें ५५ अधिकार हैं। इसमें प्रश्नकर्त्ता के प्रश्न के वर्गों को संयुक्त, असंयुक्त अभिघातित, अभिप्रमित, आलिंगत और दग्ध इन छः संज्ञाओं में विभाजित किया गया है । [रमल या पाशककेवली गर्गाचार्य - आचार्य गर्ग ने पाशककेवली सम्बन्धी कोई ग्रन्थ लिखा था । --- मुनि भोजसागर (१८वीं शती) — इन्होंने रमलविद्या नामक ग्रन्थ लिखा है। इसमें उल्लेख है कि आचार्य कालकर इस विद्या को यवनदेश से भारत में लाये। मुनि विजयदेव इनके रमलविद्या ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है। पाशाकेवली - अज्ञातकर्तृक । यह संस्कृत में है । इसमें अदअ, अअय आदि कोष्ठक देकर अ, व, य, और द के प्रकरण दिये हैं । इसमें शुभाशुभ फल दिये हैं । गणित ज्योतिष यल्लाचार्य - यह प्राचीन मुनि थे। इन्होंने गणितसंग्रह लिखा था । नेमिचन्द्र – इनका रचा क्षेत्रगणित मिलता है । मुनि तेजसिंह यह लौकागच्छीय मुनि थे। इन्होंने दमित पर २६ पद्यों में इष्टांकपंचविशतिका नामक छोटासा ग्रन्थ लिखा है । अनन्तपाल (१२०४ ई० ) – यह पल्लीवाल जैन गृहस्थ थे। इनका लिखा पाटीगणित नामक गणित सम्बन्धी ग्रन्थ मिलता है। इसमें अंकगणित सम्बन्धी विवरण है। इनके भाई जनपाल ने सं० १२६१ में तिलकमंजरीकथासार लिखा है । सिंह (१३ शती) – यह आगमगच्छीय आचार्य देवरत्नसूरि के शिष्य थे। इन्होंने कोष्ठचितामणि नामक ग्रन्थ प्राकृत में लिखा है। संस्कृत में इस पर स्त्रयं ने कोष्टकचितामणि टीका लिखी है । +++ -0 ० . Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ......-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-....................................... सिद्धसूरि-यह उपकेशगच्छीय मुनि थे। इन्होंने श्रीधरकृत गणितसार पर टीका लिखी थी। सिंहतिलकसरि (१२७३ ई०)-इनके गुरु का नाम विबुधचन्द्र सूरि था। ये ज्योतिष और गणित के अच्छे विद्वान् थे। इन्होंने श्रीपतिकृत गणितसार पर सं० १३३० में वृत्ति (टीका) लिखी है। ज्योतिष पर इनकी भुवनदीपकवृत्ति टीका भी मिलती है। ज्योतिष सम्बन्धी अन्य ग्रन्थ ज्योतिष पर विनयकुशलमुनि ने जोइसचक्कविचार (ज्योतिषचक्रविचार) नामक प्राकृत ग्रन्थ लिखा है। जिनेश्वरमुनि ने श्रीपतिकृत जातकपद्धति पर टीका लिखी है । खरतरगच्छीय मुनिचन्द्र ने अनलसागर नामक ज्योतिषग्रन्थ लिखा है। मानसागर मुनि का मानसागरी पद्धति नामक ज्योतिष ग्रन्थ मिलता है । यह पद्यात्मक है। इसमें फलादेश दिये हैं। मुनि राजसोम ने गणेशकृत ग्रहलाघवसारिणी पर संस्कृत में टिप्पण लिखा है। मुनि मतिविशालगणी ने प्राकृत में टिप्पणकविधि नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा है। इसमें पचांगतिथिकर्षण, संक्रांतिकर्षण, नवग्रहकर्षण आदि १३ विषय दिये हैं। पद्मसुन्दर मुनि ने ज्योतिष पर हायनसुन्दर ग्रन्थ लिखा है। कुछ ग्रन्थ अज्ञातकर्तृक मिलते हैंगणहरहोरा (गणधरहोरा)-होरा सम्बन्धी ग्रन्थ है। जोइसदार (ज्योतिर)-प्राकृत में है। इसमें राशि व नक्षत्रों के शुभाशुभ फल दिये हैं। जातकदीपिकापद्धति-इसमें अनेक ग्रन्थों के उद्धरण हैं । जन्मप्रदीपशास्त्र-इसमें कुण्डली के १२ भुवनों के लग्नेश के सम्बन्ध में विचार है। जोइसहीर (ज्योतिषहीर)- यह प्राकृत में है। इसमें शुभाशुभतिथि, ग्रह-बल, शुभ घड़ियाँ, दिनशुद्धि आदि विषय दिये हैं। पंचांगतत्त्व-इसमें पंचांग के तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण का निरूपण है। पंचांगतत्त्व-टीका-अभयदेवसूरिकृत। पंचांगतिथिविचरण-इसे करणशेखर या करणकोश भी कहते हैं । इसमें पंचांग बनाने की विधि दी है। पंचांगदीपिका-पंचांग बनाने की विधि दी है। पंचांगपत्रविचार-पंचांग के विषय दिये गये हैं। हिन्दी-राजस्थानी के ग्रन्थ कवि-केशव (१७वीं शती)-यह खरतरगच्छीय दयारत्न के शिष्य थे। इनका जन्म-नाम केशव और दीक्षा का नाम कीर्तिवर्धन था। यह मारवाड़ क्षेत्र के निवासी थे । इनका काल १७वीं शती है। इनका जन्मप्रकाशिका नामक ज्योतिषग्रन्थ मिलता है। रत्नधौर (१७४६ ई०)-यह खरतरगच्छीय मुनि थे। इन्होंने भुवनदीपक पर बालावबोध की रचना सं०१८०६ (१७४६ ई.) में की। ___ लाभवर्धन (१८वीं शती)—यह खरतरगच्छीय जिनहर्ष के गुरुभ्राता थे। इनका काल १८वीं शती है। इन्होंने ज्योतिष पर राजस्थानी में लीलावतीगणित और शकुनदीपिका ग्रन्थ लिखे । शीघ्रबोधचन्द्रिका-इसका रचना काल सं० १६१६ है । 'शीघ्रबोध' ज्योतिषग्रन्थ की भाषा-टीका है। रचनाकार अज्ञात है। . Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ......................................................................... पं० भगवानदास (२०वीं शती)-इनका जन्म सं 1945 (1888 ई०) में पालीताणा (गुजरात) में हुआ था। इन्होंने ज्योतिष पर ज्योतिषसार नामक ग्रन्थ लिखा है। दक्षिण-भाषाओं में रचित ज्योतिष-गणित के ग्रन्थ तमिल भाषा में जैनों द्वारा गणित, ज्योतिष और फलित सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे गये हैं। ऐचडि नामक गणित सम्बन्धी और जिनेन्द्रमौलि नामक ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ बहुत प्रचलित हैं। ऐंचूवडि का व्यवहार व्यापारिक परम्परा में अधिकतर होता है। कन्नड भाषा में गणित पर राजादित्य के व्यवहारगणित, क्षेत्रगणित, लीलावती, व्यवहाररत्न, जैनगणितसूत्रटोकोदाहरण तथा अन्य ग्रन्थ मिलते हैं / यह कर्नाटक क्षेत्र के निवासी थे। यह विष्णुवर्धन राजा के मुख्य सभापंडित थे / इनका काल सं० 1120 के लगभग है। कर्णाटककविचरित में इनको कन्नड साहित्य में गणित का ग्रन्थ लिखने वाला प्रथम विद्वान् बताया है। चन्द्रसेम-कर्नाटक के दिगम्बर जैन मुनि थे। इन्होंने ज्योतिष पर केवलज्ञानहोरा नामक विशाल ग्रन्थ लिखा है। इसमें लगभग चार हजार श्लोक हैं / इस पर कर्णाटक के ज्योतिष का प्रभाव है। कहीं-कहीं विषय के स्पष्टीकरणार्थ कन्नड भाषा भी प्रयुक्त हुई है / इनका काल कल्याण वर्मा के बाद का है, इसके प्रकरण उनकी 'सारावली' से मेल खाते हैं। __भद्रबाहु-इनके नाम से संस्कृत में भद्रबाहुसंहिता नामक ज्योतिष ग्रन्थ मिलता है। यह आचार्य भद्रबाहुकृत प्राकृत के ग्रन्थ का उद्धाररूप माना जाता है। संस्कृत कृति में 27 प्रकरण हैं, इसमें निमित्त और संहिता का प्रतिपादन है / डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने श्रुतकेवली भद्रबाहु से इस भद्रबाहु को भिन्न माना है और इनका काल १२वीं, १३वीं शती बताया है। उपसंहार जैन विद्वानों ने ज्योतिष पर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं / इनमें से अधिकांश अब तक प्रकाशित नहीं हो पाये हैं। केवल कुछ ही प्रमुख ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं / अधिकांश ग्रन्थ हस्तलिखित रूप में विभिन्न स्थानों पर पुस्तकालयों, भट्टारकों के पाठों और व्यक्तिगत संग्रहों में मौजूद हैं / इनके विस्तृत केटलाग बनाने की आवश्यकता है / इन ग्रन्थों के प्रकाशन की भी व्यवस्था होनी चाहिए। यहाँ जैन-ज्योतिष-साहित्य पर संक्षेप में कालक्रमानुसार प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। यह केवल परिचय मात्र है। इस पर विस्तार से विश्लेषण की आवश्यकता है। ज्योतिष के शोधार्थियों की इसमें प्रवृत्त होना चाहिए।