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________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ४०१ ...... ................ .............. .... ................ .. .......... . ..... उल्लेख किया है। सिंहसूरि के संस्कृत अनुवादित ग्रन्थ में २२३० गाथाएँ और ११ विभाग हैं, इसमें से एक ज्योतिर्लोक सम्बन्धी है। शेष भूगोल एवं खगोल सम्बन्धी हैं। इसमें तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि का उल्लेख होने से इसका रचनकाल ११वीं शती के बाद का है। त्रिलोकप्रज्ञप्ति (तिलोयपण्णत्ति)-प्राकृत गाथाओं में यतिवृषभाचार्य द्वारा विरचित । इसमें ५६७७ गाथाएँ और ६ महाधिकार हैं—सामान्यलोक, नरकलोक, भवनवासीलोक, मनुष्यलोक, तिर्यक्लोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, देवलोक और सिद्धलोक । वीरसेनकृत धवलाटीका में इस ग्रन्थ का अनेकशः उल्लेख मिलता है। अतः इसका रचनाकाल ५०० से ८०० ई० के बीच प्रमाणित होता है। ज्योतिर्लोक में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारों की स्थिति, गति आदि का वर्णन है। त्रिलोकसार-नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तिकृत । इसमें १०१८ प्राकृत गाथाएँ हैं । यह अध्यायों में विभक्त नहीं है, परन्तु इसमें विषयों सम्बन्धी की गयी प्रारम्भिक प्रतिज्ञा के अनुसार विषयों का विवेचन है, जिसमें लोक-सामान्य, भवन, व्यन्तर, ज्योतिष, वैमानिक और नर-तिर्यक लोक का वर्णन है। वर्णन संक्षिप्त है। यह ११वीं शती की रचना है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-पद्मनन्दिकृत रचना है । इसमें २३८६ गाथाएँ हैं । इसमें १३ उद्देश्य हैं, जिनमें एक ज्योतिलोक है। शेष द्वीपों, खगोल, भूगोल सम्बन्धी हैं। इसकी रचना पारियात्रदेशान्तर्गत वारा नगर में राजा संति या सत्ति के काल में हुई थी। पद्मनन्दि के गुरु बलिनंदि थे जो वीरनंदि के शिष्य थे। श्वेताम्बर परम्परा में इस विषय पर सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अतिरिक्त क्षेत्र समास' और 'संग्रहणी' नामक कृतियाँ मिलती हैं। इन दोनों के लेखक जिनभद्रगणी थे। परवर्ती विद्वानों और टीकाकारों ने इन दोनों ग्रन्थों के कई छोटे-बड़े संस्करण बना डाले हैं, इनमें जम्बूद्वीप, कालगणना आदि का वर्णन है। धवला और जयधवला टीकाएँ-दक्षिण में आचार्य वीरसेन ई० ८वीं-6वीं शती के महान् दिगम्बर आचार्य हुए। उन्होंने धरसेनाचार्यकृत शौरसैनी प्राकृत के 'षट्खण्डागम' (कर्मप्राभृत) पर 'धवला' टीका (रचना काल वि० सं० ८७३, ई० सन् ८१६) पाँच खण्डों में लिखी, इसमें ७२ हजार श्लोक हैं। इसके अतिरिक्त वीरसेन ने 'कषायपाहुड' पर २० हजार श्लोकों में व्याख्या लिखी किन्तु उनका स्वर्गवास हो जाने से यह अपूर्ण रह गयी। इसे उनके ही शिष्य आचार्य जिनसेन ने ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका और लिखकर पूर्ण किया। 'कषायपाहुड' की रचना २३३ गाथाओं में आचार्य धरसेन के प्रायः समकालिक आचार्य गुणधर ने की थी। आचार्य वीरसेन के गुरु आर्यनन्दि थे। वीरसेन के शिष्य आचार्य जिनसेन हुए और जिनसेन के शिष्य आचार्य गुणभद्र हुए। गुणभद्र ने उत्तरपुराण की रचना की। वीरसेन का जन्म वि० सं० ७६५ (शक सं० ६६०) और स्वर्गवास वि० सं०८८० (शक सं० ७४५) में हुआ था। वीरसेनाचार्य अच्छे गणितज्ञ थे। उन्होंने अपनी टीकाओं में गणित के अनेक नियमों को स्पष्ट किया है। धवला टीका में गणित सम्बन्धी विवेचन में परिकर्म का उल्लेख किया है। अनेक सूत्रों का अर्थ और प्रयोजन गणित से स्पष्ट किया है । वीरसेनाचार्य का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और गणितीय सिद्धान्तों पर आधारित था। ज्योतिष के भी इन टीकाओं में बड़ी संख्याओं का उपयोग वर्णन, शलाका गणन, विरलन देय गुणन, अनन्तराशियों का कलन, राशियों के विश्लेषण हेतु अनेक विधियाँ आदि विषय दिये हैं। इनमें ज्योतिष सम्बन्धी विचार भी स्पष्ट किये गये हैं। 'धवला' टीका में १५ मुहूर्त बताये हैं-रौद्र, श्वेत , मैत्र, सारगट, दैत्य, वैरोचन, वैश्वदेव, अभिजित्, रोहण, बल, विजय, नैऋत्य, वरुण, अर्यमन् और भागन। आचार्य वीरसेन के प्रायः समकालीन प्रसिद्ध गणित-ज्योतिषाचार्य महावीर हुए, जो राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष 'नृपतुग' के सभासद थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210645
Book TitleJain Jyotish Pragati aur Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprasad Bhatnagar
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jyotish
File Size768 KB
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