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________________ Jain Education International ४०२ +++ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड ज्योतिष सम्बन्धी जैन ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार उमास्यामि (ई० प्रथम व द्वितीय शती) – इनके तत्वार्थसूत्र' ग्रन्थ में ज्योतिष सम्बन्धी सिद्धान्तों का निरूपण है । चौथे अध्याय में ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक और तारों का वर्णन है । कालकाचार्य ( ई० तीसरी शती) जैन परम्परा में आचार्य कालक का महत्वपूर्ण स्थान है। ये ज्योतिष और निमित्त के ज्ञाता थे । प्राकृत में इनके द्वारा विरचित 'कालकसंहिता' नामक ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ बताया जाता है । यह अनुपलब्ध है । वराहमिहिर के 'वृहज्जातक' (१६।१ ) की 'उत्पल टीका' में इसके दो प्राकृत पद्य उद्धृत हैं । कालकसूरि का निमित्त ग्रन्थ भी था । ऋषिपुत्र ( ई० ६५० ) – ये गर्म नामक आचार्य के पुत्र थे - वराहमिहिर के पूर्ववर्ती थे। इनका लिखा निमितशास्त्र' नामक ज्योतिष का ज्ञान इन्हें पिता से मिला था। ये गन्ध है। यह संहिता सम्बन्धी है। हरिभद्रसूरि (८वीं शती) - मुनि जिनविजयजी ने इनका काल सं० ७५८ से ८२७ प्रमाणित किया है (जैन साहित्य संशोधक, वर्ष १, अंक १) राजस्थान के जैन विद्वानों में इनका नाम अग्रणी है ये चित्रकूट (चितौड़) के निवासी थे। जन्म से ये ब्राह्मण जाति के थे, बाद में साध्वी वाकिनी महत्तरा से प्रतिबोधित होकर आचार्य जिनदत्तसूरि के पास दीक्षा ली। ये संस्कृत और प्राकृत के प्रकाण्ड पण्डित हुए । आगम साहित्य के प्रथम टीकाकार के रूप में इनकी प्रसिद्धि है । इनके 'समराइच्चकहा' और 'धूर्त्ताख्यान' प्राकृत के श्रेष्ठ कथा- ग्रन्थ हैं । इनका साहित्य बहुविध और विशाल है । ज्योतिष पर इन्होंने लग्गसुद्धि (लग्नशुद्धि) ग्रन्थ लिखा है। यह प्राकृत में है। इसे लग्नकुण्डलिका भी कहते हैं। इसमें १३३ गाथाएँ हैं यह जातक या होरा सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें लग्न के फल, गोचर शुद्धि आदि का विवरण है। महावीराचा (८५०० के यह दक्षिण में कर्नाटक प्रदेश के निवासी दिगम्बर जैन विद्वान थे। इनको मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम ( ७९३ - ८१४ ई०) का राज्यश्रय प्राप्त था । इस राजा के काल में जैन धर्म की उन्नति हुई । साहित्य, कला और विज्ञान के क्षेत्र में भी पर्याप्त प्रोत्साहन मिला । महावीराचार्य गणित और ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। इसके लिए उनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। महावीराचार्य की ज्योतिष पर ज्योतिषपटल तथा गणित पर गणितसारसंग्रह और बत्रिशिका नामक कृतियाँ मिलती हैं । गणित और ज्योतिष का घनिष्ठ सम्बन्ध है । १. ज्योतिषपटल - इसमें ग्रह, नक्षत्र और तारों के संस्थान, गति, स्थिति संख्या के विषय में वर्णन है । यह कृति अपूर्ण मिलती है। सम्भवतः यह गणितसारसंग्रह पर आधारित है। २. गणितसारसंग्रह — इसमें 8 प्रकरण हैं— संज्ञाधिकार, परिकर्मव्यवहार, कला-सवर्ण व्यवहार, प्रकीर्णव्यवहार, शिकव्यवहार, मिश्रव्यवहार, क्षेत्र- गणितव्यवहार, खातव्यवहार और छायाव्यवहार आरम्भ में 'संज्ञाधिकार' में गणित को सब शास्त्रों में महत्वपूर्ण और उपयोगी बताया गया है। इसमें २४ अंक तक संख्याओं का उल्लेख है । लघुसमावर्तक का आविष्कार महावीराचार्य की महान् देन है । ३. त्रिशिका -- यह लघु कृति है । इसमें बीजगणित के व्यवहार दिये हैं । श्रीधर (१०वीं शती) - यह कर्नाटक का निवासी था । प्रारम्भ में शैव ब्राह्मण था, परन्तु बाद में जैन धम अंगीकार कर लिया था । यह ज्योतिष और गणित का प्रकाण्ड पण्डित था । इसने संस्कृत में गणितसार और ज्योतिज्ञनिनिधि तथा कन्नड़ में जातकतिलक ग्रन्थों की रचना की थी। १. गणितसार - यह गणित का उत्तम ग्रन्थ है। इसमें अभिन्नगुणक, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, समच्छेद आदि के साथ राशि व्यवहार, छायाव्यवहार आदि गणितों का वर्णन है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.210645
Book TitleJain Jyotish Pragati aur Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprasad Bhatnagar
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jyotish
File Size768 KB
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