Book Title: Jain Gyan Gajal Guccha
Author(s): Khubchandji Maharaj
Publisher: Fulchand Dhanraj Picholiya

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Page 4
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२) गजल नं० १ (शुद्ध देव पहिचान ) तर्ज:--पहलु में मेरे यार है, उस्की खबर नहीं ।। यह ॥ मेरे तो वाही देव है, अरिहंत सिद्ध वर । करता हुं उसे वन्दना, मैं सर झुकाय कर ।। टेर । गुण अनन्त ज्ञानादि, सर्व द्रब्य के ज्ञाता । सुरेन्द्र और नरेन्द्र; भक्ति करते आनकर ॥ करता हुं. ॥ १ ॥ विषय कषाय जीतके, कहलाते वीतराग । खडगादि शस्त्र ना रखे, वो धैर्य लायकर | करता. २॥ महिमा अपार सार जिनकी, त्रिहुं लोक में । फिर पाते हैं शिव धाम, सब दुखको मिटाय कर ॥ करता हुं० ॥ ३ ॥ सिद्धोंके सुखकी ओपमा, न कोई बता सके । नहिं आते मुड़ के फिर, अचल गति को पायकर ॥ करता हुं० ॥ ४ ॥ मेरे गुरु नंदलालजी, मुझपे करी मया । शुद्ध देवकी पहिचान, दी सागे बताय कर ॥ करता हुं० ॥ ५ ॥ संपूर्ण गजल नं० २ (सुगुरु पहिचान ) तर्ज:-. पूर्वोक्त जो साधु संयम के गुणों में, दिल रमाते हैं। ऐसे गुरु के चरनमें हम सिर झुकाते हैं । टेर ॥ जो हिंसा झूठ चौरी, मैथुन परिग्रह है । पांचोहिं आश्रव टालके, त्यागी कहाते हैं ॥ ऐसे गुरूके० ॥ १ ॥ मान या अपमान, लाभ या अलाभ हो । सुख दुःख निन्दा स्तुतिमें, समभाव लाते हैं। ऐसे गुरूके ॥२!! गृहस्थ या कोई क्षेत्रसे, न ममत्व भाव है । नव कल्प For Private and Personal Use Only

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