Book Title: Jain Gyan Gajal Guccha
Author(s): Khubchandji Maharaj
Publisher: Fulchand Dhanraj Picholiya

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Page 10
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तोष कर ॥ १ ॥ लोभ से माता पिता, और पुत्र के अनबन रहै । हित मित सगपण ना गिणे, तू लोभ तज संतोष कर ।२। लोभ वस जिनपाल जिनरख, जहाज में चढकर गए । समुद्र में जिनरख मरा, तू लोभ तज संतोष कर ॥ ३ ॥ लोभ जहां इन्साफ नहीं, तू देखले अच्छि तरह । सब पापकी जड लोभ है, तू लोभ तज संतोष कर ॥ ४ ॥ मेरे गुरु नन्दलालजीका, येही नित्य उपदेश है । निर्लोभसे मुक्तिहुवे, तू लोभ तज संतोष कर ॥ ५ ॥ सम्पूर्णम् ॥ गजल नं० ११ ( हिंसा निषेधपर०) तर्ज० ।। पूर्ववत् ॥ नाहक सतावे और को, यह तेरे हकमें हे बूरा | मान या मत मान अए नर, तेरे हक में हे बुरा । टेर ।। अपने २ कम से जिस जोन में पैदा हुए । तू बे गुन्हा मारे उसे, यह तेरे हक में है बूग ॥ नाहक सतावे० ॥ १ ॥ पिछे जो बच्चा रहे, कौन पालना उनकी करे । परवरिश बिन वोभी मरे, यह तेरे हकमें हे बूरा ॥ नाहक० ॥ २ ॥ सुखके लिये पंखी पशु, फिरते छपाते जानको । रहिमके बदले सताना, तेरे हक में हे बुरा । नाहक० ॥ ३ ॥ तेरे जब कांटा लगे, जब दुःख तुझे मालूम हुवे । इस तरह सब पे समझ, यह तेरे हक में है बूरा । नाहक० ॥ ४ ॥ मेरे गुरु नन्दलालजीका, येहीनित्य उपदेशहै, रहम जबतक दिल नहीं, यह तेरे हकमें हे बूरा । नाहक०५ For Private and Personal Use Only

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