Book Title: Jain Gyan Gajal Guccha Author(s): Khubchandji Maharaj Publisher: Fulchand Dhanraj Picholiya View full book textPage 5
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विहारी कथा, निरवद्य सुनाते हैं। ऐसे गुरूके० ॥ ३ ॥ प्रतापना और भुख प्यास, सीत. उष्णका | सहते परिसा आप, न चितको चलाते हैं, । ऐसे गुरुको ॥ ४ ॥ मेरेगुरु नन्दलालजी, कहते सही सही,। वोही मुनि भवसिंधुसे, तिरते तिराते हैं, ॥ ऐसे गुरुके० ॥ ५ ॥ सम्पूर्णम् ॥ गजल नं. ३ ( सतशिक्षा.) तर्ज० पूर्वोक्त. पायाहै तू अनमोल, एसी जिन्दगी अएनर । इस लोककी परवा नहीं, परलोकसे तोडर ॥ टेर ।। संतोंका कहा मानले, जुल्मोंको छोडदे । नहीं तो जीया आगे तुझे, पडजायगी खबर । इसलोक्की० ॥ १ ॥ दिन चारका महमान है, तू विचारतो सही । तेने क्या किया शुभकाम, यहां दुनियामें आनकर | इस० ॥ २ ॥ चौरासीलक्ष योनमें, टकराता तू फिरा । निकल गई अधियारी, अबतो होगया फजा ॥ इसलोक० ॥३॥ मानके वस जात या, परजात धर्ममें । तैने डलाई फूट, खसी नर्क पे कमर ।। इसलोककी० ॥४॥ मेरेगुरु नन्दलालजी, देते हित उपदेश । मंजूर करलें फिरतो है, सुरलोककी सफर ॥ इसलोककी० ॥ ५ ॥ सम्पूर्णम्. गजल नं. ४ ( कर्तव्य मातपिता का ) तजे पूर्वोक्त. बचपनसे ही मा बाप, शुभ आचार सिखाते । मगदूर क्या जो पूत्रवो, कुपुत्र कहलाते ॥ टेर ॥ अपना अदब गुरुका For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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