Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 21
________________ प्रस्तावना होते हैं। महाराष्ट्री और शौरसैनी । इन दोनों भाषाओं में विपुल साहित्य रचा हुआ उपलब्ध होता है। यद्यपि अपभ्रंश भाषा का कोई प्रामाणिक इतिहास अभी तक नहीं लिखा गया । अतएव उसका पूरा इतिवृत्त लिखना तो यहाँ सम्भव नहीं प्रतीत होता; किन्तु उनके सम्बन्ध में यहाँ कुछ विचार जरूर किया जायगा। ___ अपभ्रंश भाषा का जो भी पुरातन साहित्य वर्तमान में उपलब्ध होता है यद्यपि राज्यविप्लवादि के कारण बहुमूल्य पुरातन साहित्य विनष्ट हो चुका है, फिर भी जो किसी तरह अवशिष्ट रह गया है, वह अपनी महत्ता का स्पष्ट द्योतक है । उसका उद्गम कब और कहां पर हुआ, और कैसे वह साहित्यिक क्षेत्र में प्रगति पा सका, उसमें क्या कुछ विशेषतायें थीं, कैसे वह आम लोगों के लिए बोलचाल की भाषा में परिगत होता हुआ साहित्यिक भाषा बनने का श्रेय प्राप्त कर सका, गह सब अभी विचारणीय है। भापा विज्ञान की दृष्टि से भी अपभ्रंश भाषा के साहित्य का अध्ययन बड़ा महत्व रखता है । भारतीय आर्य भाषाओं के साहित्य का अध्ययन तब तक सुसम्पन्न नहीं कहा जा सकता, जब तक अपभ्रंश भाषा के साहित्य का विधिवत् पारायण न कर लिया जाय । इतना ही नहीं; किन्तु विविध प्रादेशिक भाषाओं एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी के वर्तमान स्वरूप को समझने के लिए अपभ्रंश भाषा का मौलिक अध्ययन करने की जरूरत है। साथ ही तुलनात्मक दृष्टि से यह जानना भी अत्यन्त आवश्यक है कि प्रादेशिक भाषाओं और हिन्दी भाषा के विकास में अपभ्रंश भाषा ने क्या कुछ योगदान दिया है। अपभ्रश भाषा ने केवल हिन्दी के विकास में ही सहयोग नहीं दिया किन्तु उसे प्रभावित और प्रतिष्ठित भी किया है। अतः भाषा विज्ञान की दृष्टि से अपभ्रश का साहित्य प्रत्येक विद्यार्थी के लिए अध्ययनीय है।। अपभ्रंश भाषा का कोई प्रामाणिक इतिहास न लिखा जाने से उसके साहित्य के पठन-पाठन का प्रचार नहीं हो सका है, उसमें साहित्य का अभी तक अप्रकाशित रहना भी एक कारण है। अपभ्रंश भाषा के साहित्य की जब हम विपुलता देखते हैं और उसकी रचनाओं का ध्यान से समीक्षण करते हैं तब हमें उसकी विशेषता और महत्ता का यथेष्ट परिज्ञान होता है। वर्तमान में अपभ्रंश भाषा का समुपलब्ध साहित्य ८वीं शताब्दी से लेकर १७वीं शताब्दी तक का रचा हा अवलोकन करने में आया है। यद्यपि हवीं से १६वीं शताब्दी तक के साहित्य में जो प्रौढ़ता देखी जाती है, वह आगे के साहित्य में नहीं पाई जाती; क्योंकि उसमें देशी भाषा के तत्सम शब्दों का बहुलता से समावेश पाया जाता है, अतः उसमें उत्तरोत्तर हिन्दी भाषा के विकास का औचित्य उपलब्ध होता है। __ अपभ्रंश भाषा का सबसे पुरातन उल्लेख हमें पतञ्जलि के महाभाष्य' में मिलता है। उसमें उन्होंने लिखा है :-"अपशब्दों का उपदेश बहुत विस्तृत या व्यापक है; क्योंकि एक-एक शब्द के अनेक अपभ्रंश हैं। जैसे एक ही गौ शब्द के गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका आदि बहुत से अपभ्रंश होते हैं।" दूसरा उल्लेख 'वाक्यपदीय' ग्रन्थ के कर्ता भर्तृहरि ने संग्रहकार 'व्याडि' नामक प्राचार्य के मत का उल्लेख करते हुए किया है : ''शब्दसंस्कारहीनो यो गौरिति प्रयुयुक्षते । ___ तमपभ्रशमिच्छन्ति विशिष्टार्थनिवेशिनम् ॥" वार्तिक-शब्द प्रकृतिरपभ्रंशः इति संग्रहकारो नाप्रकृतिरपभ्रंशः स्वतन्त्रः कश्चिद्विद्यते । सर्वस्यैव हि साधुरेवापभ्रंशस्य प्रकृतिः । प्रसिद्ध स्तु रूढतामापद्यमानास्वातन्त्र्यमेव केचिदपभ्रंशा लभन्ते । तत्र १. "गरीयानपशब्दोपदेशः । एककस्य शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः । तद्यथा गौरित्यस्य शब्दस्य गावी, गौणी, गोता, गोपोतलिका इत्येवमादयो ऽपभ्रंशाः ॥" -पतंजलि महाभाष्य १, १, १।

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