Book Title: Jain Dharmshastro aur Adhunik Vigyan ke Alok me Pruthvi Author(s): Damodar Shastri Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 2
________________ समुद्र वसन देवि ! पर्वतस्तनमंडिते। विष्णु-पत्नि ! नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे ।। (ख) पृथ्वी के स्वरूप को जिज्ञासा पृथ्वी के प्रति श्रद्धालु मानव के मन में यह भी जिज्ञासा पैदा हुई कि आखिर यह पृथ्वी कितनी बड़ी है, कैसी है, कहाँ, कब, और कैसे इसकी उत्पत्ति हुई ? वैदिक ऋषि दीर्घतमा इस पृथ्वी की सीमा को जानने की उत्सुकता व्यक्त करता हुआ दृष्टिगोचर होता है।' श्वेताश्वतर उपनिषद् का ऋषि भी यह जिज्ञासा लिए हुए हैं कि हम कहां से पैदा हुए हैं ? और हम सब का अवस्थान किम पर आधारित है ? उपयुक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि भारतीय चिन्तक इस पृथ्वी व सृष्टि के विषय में सतत जिज्ञास थे, और उन्होंने अपने तपोमय अध्यात्मसाधना के द्वारा, जिस सत्य का साक्षात्कार किया, वह हमारे धर्म-ग्रन्थों में निबद्ध है। (आ) जैन साहित्य में पृथ्वी । जैन साहित्यकारों ने भी इस पृथ्वी को एक सुन्दर नारी के रूप में देखा । आर्यावर्त उस पृथ्वी का मुख है, समुद्र जिसकी करधनी है, वन-उपवन जिसके सुन्दर केश हैं, विन्ध्य और हिमाचल पर्वत जिसके दो स्तन हैं, ऐसी पृथ्वी (माता) एक सती साध्वी नारी की तरह शोभित हो रही है। किन्तु, जैन दर्शन एक निवृत्तिप्रधान धर्म है, इसलिए साधक का अन्तिम लक्ष्य यही होता है कि सिद्धि-रूपी कान्ता का वरण करता हुआ, इस मर्त्य पथिवी की अपेक्षा, सिद्ध-लोक की 'ईषत्प्रारभार' पृथिवी (माता) की छत्रछाया में पहुंचे। (१) पृथ्वी-सम्बन्धी जिज्ञासा : जैन दृष्टि से जैन दष्टि से इस पथिवी-तल पर अधिकार करने की अपेक्षा इसके स्वरूपादि का ज्ञान प्राप्त करना आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक श्रेयस्कर है। इसके पूर्ण व वास्तविक रूप को जानकर साधक के मन में यह विचार स्वत: उठ खड़ा होगा कि इस पृथ्वी के प्रत्येक प्रदेश १. पृच्छामि त्वां परमन्तं पृथिव्याः (ऋग्वेद-१/१६४/३४) । यजुर्वेद-२३/६१, २ कि कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाताः, जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठाः (श्वेता० उप० १/१)। ३. श्वेता० उप० (वहीं) । कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टि: (ऋ० १०/१२६/६-नासदीय सूक्त)। तैत्ति० ब्राह्मण-२/८/९ (क) उद्वहन्तीं स्तनौ तुंगो, विन्ध्यप्रालेयपर्वतौ। आर्य देशमुखीं रम्पां नगरीवलयर्युताम् । अब्धिकाञ्चीगुणां नीलसत्काननशिरोरुहाम । नानारत्नकृतच्छायाम्, अत्यन्तप्रवणां सतीम् (रविषेणकृत पद्मपुराण-११/२८६-८७) । विन्ध्यकैलाशवक्षोजां पारावारोमिमेखलाम् (जैन पद्मपु० ११४/२२)। (ख) जैन आचार्यों की दृष्टि में पृथ्वी एक सहनशील व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करती है। इसीलिए मुनि की परीषहजयता को बताने के लिए पृथ्वी से उपमा शास्त्रों में दी गई है-खिदि-उरगंबरसरिसा''साहू (धवला, १/१/१, पृ० ५२), वसुन्धरा इव सव्वफासविसहा (औपपातिक सूत्र-सू०१६) । वसुंधरा चेव सुहुयहुए (स्थानांग-६/६६३ गा० २)। निवत्ति भावयेद् (आत्मानुशासन-२३६)। संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कमँव मोक्षार्थिना (समयसार-कलश, १०६)। आस्रवो भवहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम् (वीतरागस्तोत्र- १६/६) । से णं भंते, अकिरिया किंफला, सिद्धिपज्जवसाणफला (भगवती सू० २/५/२६) । एतं सकम्मविरिय बालाणं तु पवेदितं । एत्तोअकम्मविरियं पंडियाण सुणेह मे (सूत्रकृतांग-१/८/8)। ये निर्वाणवधुटिकास्तनभराश्लेषोत्थसौख्याकराः..... तान् सिद्धानभिनौम्यहं (नियमसार-कलश, २२४)। धर्मः किं न करोति मक्तिललनासम्भोगयोग्यं जनम् (ज्ञानार्णव-४/२२) । सिद्धिश्रियालिगितः (उत्तरपुराण, ५०/६८)। ७. (क) यः परित्यज्य भूभार्यां मुमुक्षुर्भवसंकटम् (पद्म पु० ११/२८८) । यावत्तस्थौ महीं त्यक्त्वा गृहीत्वा सिद्धियोषिताम् (पद्म पु० ११४/२२)। (ख) तन्वी मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परमभास्वरा । प्राग्भारा नाम वसुधा, लोकमूनि व्यवस्थिता। ऊध्वं यस्याः क्षिते: सिद्धा: लोकान्ते समवस्थिताः (तत्त्वार्थसू० भाष्य, अ० १०, उपसंहार, श्लो० १६-२०) । आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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