Book Title: Jain Dharmshastro aur Adhunik Vigyan ke Alok me Pruthvi
Author(s): Damodar Shastri
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 24
________________ है कि आगमों में उक्त परिवर्तन के मौलिक सिद्धान्तों का निरूपण यत्र-तत्र-सर्वत्र हुआ है। दूसरी बात, अनन्त, पदार्थों के अनन्त धर्मों में से कुछ का ही कथन सम्भव होता है। प्रज्ञापनीय पदार्थों में से भी अनन्तवां भाग 'श्रुत' आगमों में निबद्ध हो पाता है। समस्त श्रुत का बहुत थोड़ा सा भाग अब सुरक्षित रह गया है। कई विषयों के उपदेश भी विच्छिन्न हो गए हैं जिसका संकेत भी जैन शास्त्रकारों ने यत्रतत्र दिया है। सम्भव है, दृष्टिवाद (द्वादशांग) के लुप्त भाग में वे सब बातें हों जो अब उपलब्ध होती तो वैज्ञानिक जगत् उपकृत होता, साथ ही विज्ञान से तथाकथित विरोध की स्थिति भी पैदा नहीं होती। जैन आगमों व शास्त्रों में अनेक सिद्धान्त ऐसे हैं जो परवर्तीकाल में वैज्ञानिक जगत् में आविष्कृत व समर्थित हुए। अनेक वैज्ञानिकों ने जैन आचार्यों की सूक्ष्मदशिता को स्वीकारा है। आज आवश्यकता है जैन आगमों व शास्त्रों के गम्भीर अध्ययन की, और अपैक्षा है कुतर्क छोड़ कर श्रद्धा-भावना की', तभी इस शास्त्रों से अमूल्य विचार-रत्नों को हम ग्रहण कर सकते हैं। 1. (क) पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं / पण्णवणिज्आणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो।। (गोम्मटसार, जीवकाण्ड, 334) शब्दाश्च सर्वे संख्येया एव, द्रव्यपर्यायाः पुनः संख्येयासंख्येयानन्तभेदाः (राजवार्तिक, 1/26/4) / अवाच्यानामनन्तांशो भावा प्रज्ञाप्यमानकाः / प्रज्ञाप्यमानभावानाम्, अनन्तांश: श्रुतोदितः / / (गोम्मट जी. का० 334 पर कर्णाटवृत्ति, प० 569) (ख) जिनवाणी एक समुद्र है, शास्त्र तो उसमें से गृहीत जल-बिन्दु के समान हैं जिणवयणमिवोवही सुहयो (षट्खण्डागमधवला (1/1/1, गाथा-५०, पृ०६०)। कथितं तत्समुद्रस्य कणमेकं वदाम्यहम् (पपपुराण 105/107) / (ग) सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव के मुख से भव्य-जनकल्याणार्थ ज्ञान-पुष्पों की वृष्टि होती है, जिसे कुशल गणधर अपने बुद्धि रूपी वस्त्र में ग्रहण करते हैंतवनियमनाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी / तो मुयइ नाणवुद्धि भवियजणविबोहणट्ठाए / तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गेन्हिउँ निरवसेसं / तित्थयर-भासियाई गंथंति तओ पवयणट्ठा / / (विशेषावश्यक भाष्य-१०९४-१०६५)। 2. (क) उवएसो अम्ह उच्छिण्णो (ति० प०४/१४७१) / अम्हाण णत्थि उबदेसो (यि०प० 4/1572) / उवदेसो संपइ पणटो (ति० प० 4/2366) / 3. (ख) श्वेताम्बर परम्परा में १२वां अंग दृष्टिबाद पूर्णत: नष्ट हो गया है सव्वत्थ विणं वोच्छिन्ने दिट्ठिवाए (भगवती सूत्र, 20/8/6) / एतच्च सर्व समूलोत्तरभेदं सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नम (समवायांग सूत्र टीका)। दिगम्बर-परम्परा में दृष्टिवाद का कुछ अंश (षट्खण्डागम व कषायपाहुड ग्रन्थों के रूप में) अवशिष्ट हैंतदो सब्बेसिमंगपुव्वाणमेगदेसो आइरिय-परम्पराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं संपत्तो'"महाकम्मपयडिपाहुडस्स वोच्छेदो होहदित्ति समुप्पण्णबुद्धिणा पुणो दवपमाणाणुगमादि काऊण गंथरचणा कदा (षट्खण्डागम-धवला 1/1/1 पृ० 68, 72) / आगमस्य अतकंगोचरत्वात् (धवला 1/1/25, पृ० 207) / प्रत्यक्षागमबाधितस्य तर्कस्य अप्रमाणत्वात् (गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 196 पर कर्णाटवृत्ति -जीव प्र० टीका)। सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्नेव हन्यते। आज्ञासिद्ध त तद ग्राहा नान्यथावादिनो जिना: (आलापपद्धति, 5) / प्रत्यक्षं तद् भगवतामहतां तैश्च भाषितम् / गृह्यतेऽस्तीत्यतः प्राज्ञनं छद्यस्थ-परीक्षया (राजवार्तिक, १०/8/श्लोक-३२) // तुलना-श्रद्धावांल्लभते ज्ञानम् (गीता 4/36) / तकस्याप्रतिष्ठानात् (ब्रह्मसूत्र-२/१/१) / तर्कोऽप्रतिष्ठः (महाभारत, वनपर्व, 313/117) / कुतर्क के कारण जो संशय-ग्रस्त हैं, उनके अन्तःकरण में ईश्वर का वास असम्भव है-ससंशयान् हेतबलान, नाध्यावसति माधवः (महाभा० शांति पर्व, 346/71) / भाचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य 152 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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