Book Title: Jain Dharmshastro aur Adhunik Vigyan ke Alok me Pruthvi
Author(s): Damodar Shastri
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 22
________________ जैन मतानुसार काल-क्रम के साथ प्रत्येक भौतिक पदार्थ में वर्ण-रसादिगत परिवर्तन स्वभावसिद्ध हैं।' (ग) शाश्वती वस्तु में भी परिवर्तन होते हैं, इसके समर्थन में आ० आत्मारामजी कृत 'सम्यक्त्व शल्योद्धार' का कथन यहां मननीय है-"शाश्वती वस्तु घटती-बढती नहीं, सो भी झूठ है। क्योंकि गंगा-सिन्धु का प्रवाह, भरतखण्ड की भूमिका, गंगा-सिन्ध की वेदिका, लवण-समुद्र का जल वगैरह घटते-बढ़ते रहते हैं ।" २ . (घ) आ० विनयविजयगणि कृत लोकप्रकाश' ग्रन्थ में,' तथा उत्तर पुराण, पद्मपुराण, तिलोयपण्णत्ति.. चन्द्रप्रभचरित आदि ग्रन्थों में स्पष्टतः क्षेत्र को ही हानिवृद्धि गत निरूपित किया गया है। अगर क्षेत्रीय परिवर्तन स्वीकार न किया जाए तो भोगभूमिकाल के अंत में, चौदहवें कुलकर नाभिराय के समय कल्पवक्षों का नष्ट होना, उन्हीं के समय बिना बोये धान्य पैदा होना, बारहवें कुलकर के समय अदृष्टपूर्व कुनदियों व कूपर्वतों का उत्पन्न हो जाना." प्रलयकाल (अवसर्पिणी के अंतकाल में) ग्राम-नगरादि का नाश," गंगा व सिन्ध नदियों को छोड कर सभी नदियों की समाप्ति.१२ गंगा-सिन्ध नदियों का विस्तार रथ या बैलगाडी जितना संकुचित होना," तीर्थकर के केवल ज्ञान-लाभ के समय तीनों लोकों में प्रक्षोभ होना," तथा उत्सपिणी के प्रारम्भ में पुनः नगरादिकों, पर्वतों, नदियों आदि का पुनः निर्माण हो जाना५ आदि परिवर्तनों की संगति कैसे हो सकेगी? (च) अनुयोगद्वार-सूत्र में उल्कापात, चन्द्र-ग्रहण, इन्द्र-धनुष, एवं ग्राम, नगर भवन आदि की श्रेणी में ही भरत आदि क्षेत्रों, हिमवत आदि पर्वतों तथा रत्नप्रभा आदि पृथिवियों को सादि-पारिणामिक बताया गया है ।" यहां टीकाकार पृ० आ० घासीलाल जी महाराज ने शंका उठाई है कि वर्षधर पर्वतादि तो शाश्वत हैं, फिर वे सादिपारिणामिक कैसे ? इस शंका का समाधान १. अनुयोगद्वार सूत्र, ८६, स्थानांग-३/४/४६८ २. सम्यक्त्व शल्योद्धार, पृ. ४५ ३. नानावस्थं कालचर्भारतं क्षेत्रमीरितम् (लोकप्रकाश-१६/१); तथा वहीं, १६/१०१-१०३ ४. ऐरावतं समं वृद्धिहानिभ्यां परिवर्तनात् (उत्तर पुराण-६२/१६)। ५. षष्ठकालक्षये सर्व क्षीयते भारतं जगत् । धराधरा विशीर्यन्ते मयंकाये तु का कथा (पद्म पुराण-जैन, ११७/२६) । ६. अवसेसवण्णणाओ सुसमस्स व होति तस्स खेत्तस्स । णवरि य संठितरूवं परिहीणं हाणिवड्ढीहि (तिलोयप०-४/१७४४) ॥ ७. भरतरावते वृद्धिहासिनी कालभेदतः (चन्द्रप्रभचरित, १८/३५) । ८. कल्पवृक्षविनाशे क्षुधितानां युगलानां सस्यादिभक्षगोपायं दर्शयति (त. सू. ३/२७ पर श्रु तसा. वृत्ति ), तथा तिलोयप०-४/४६७, ९. अकृष्टपच्यानि सस्यादीनि चोत्पद्यन्ते (त. सू. ३/२७ पर श्रुतसा. वृत्ति), तथा तिलोयप. ४/४६७ १०. कुनद्यः कुपर्वताश्चोत्पद्यन्ते (त. सू. ३/२७ पर श्रुतसा. वृत्ति), कद्दमपवहणदीओ अदिट्ठपुवाओ (तिलोय प. ४/४८५) । ११. पन्वयगिरिडोंगरुत्थलभट्टिमादीए य वेयड् ढगिरिवज्जे विरावेहिति (भगवती सू. ७/६/३१), जंबूदीव प. (श्वेता.) २/३७, १२. सलिलविलगदुग्गविसमनिण्णुन्नताई गंगासिंधूवज्जाइं समीकरेहिंति (भगवती सू. ७/६/३१), तथा जंबूदीव प. (श्वेता.) २/३६, १३. गंगासिंधूओ महानदीओ रहपहवित्थाराओ (भगवती सू. ७/६/३४)। १४. तिलोय प. ३/७०६ १५. भरहे वासे भविस्सइ परूढरक्खगुच्छगुम्मलयवल्लितण-पव्वयगरियगमो सहिए, उवचियतयपत्तवालंकुरपुप्फफलसमुइए सुहोवभोगे यावि भविस्सइ (जंबूदीव प.-श्वेता. २/३८)। १६. साइपारिणामिए अणेगविहे पण्णत्ते । तं जहा......चंदोषरागा सूरोवरागा......इंदधण......वासधरा गामा णगरा धरा पव्वया पायाला भवणा निरया रयणप्पहा......परमाणुपोग्गले दुपएसिए बाव अणंतपएसिए (अनुयोग द्वार सूत्र, १५६)। १५० बाचायरल भी वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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