Book Title: Jain Dharmshastro aur Adhunik Vigyan ke Alok me Pruthvi
Author(s): Damodar Shastri
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 20
________________ सभी महाद्वीप कम या अधिक गति से निरन्तर खिसकते रहे हैं। उसकी अधिकतम गति प्रतिवर्ष चार इंच या लगभग दस सेन्टीमीटर है। आज से करोडों वर्ष बाद की स्थिति के बारे में सहज अनुमान लगाया जा सकता है । तब उत्तरी अफ्रीका उत्तर में खिसकता हमा भमध्य सागर को रौंदता हआ युरोप से जा मिलेगा और भूमध्यसागर भी एक झील मात्र बनकर रह जाएगा। दूसरी तरफ, आस्ट्रेलिया, इडोनेशिया और फिलस्तीन एक-दूसरे से जुड़ जाएंगें, और हिन्दचीन से एशिया का भाग जुड़ कर एक नया भूभाग प्रकट होगा। तीसरी ओर, अमेरिका के पश्चिमी तट के समस्त नगर व राज्य एक दूसरे के निकट आ जाएंगे और उत्तरी अमेरिका अत्यन्त नपरे आकार का हो जाएगा। कुछ वर्ष पर्व, एण्टार्कटिका महाद्वीप के विस्तृत बर्फीले मैदान पर मिले एक विलुप्त जन्तु के साक्ष्य पर वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि किसी प्रागैतिहासिक युग में आस्ट्रेिलिया, दक्षिण एशिया, अफ्रीका व दक्षिण अमरीका महाद्वीप एक दूसरे से जडे हए थे । अब अमरीका के दो वैज्ञानिकों-डा० राबर्ट एस० दिएज और डा० जान सी० होल्डेन ने भी उक्त निष्कर्ष पर सहमति व्यक्त की है और उन्होंने महाद्वीपों के तैरने (फिसलने) की गति, उनकी दिशा, सीमा-रेखाएं, समुद्रगर्भीय पर्वत-श्रेणियों का विस्तार, चम्बकीय जल-क्षेत्रों की प्राचीन दिशाए', भूगर्भीय संरचना आदि विषयों पर गहरा अनुसन्धान किया है। उक्त वैज्ञानिकों ने आज से २२ करोड़ पचास लाख वर्ष पूर्व के भूमण्डल की कल्पना की है। उनके अनुसार तब सभी महाद्वीप एक दूसरे से जुड़े हुए थे और पृथ्वी पर केवल एक विशाल महाद्वीप था। महासागर भी एक ही था। दक्षिणी अमरीका अफ्रीका दोनों परस्पर सटे हए थे, और अमरीका का पूर्वी समुद्री तट उत्तरी अफ्रीका के भूखण्ड से चिपका हुआ था। भारत दक्षिण अफ्रीका व एण्टार्कटिका के बीच में कहीं दुबका था। आस्ट्रेलिया एण्टार्कटिका का ही एक भाग था। लगभग ५० लाख वर्ष में इस सबमें विभाजन की रेखा प्रारम्भ हो गई । सबसे पहले दो भाग हुए। उत्तरी भाग में अमरीका व एशिया थे, दक्षिणी भाग में दक्षिणी अमरीका तथा एण्टार्कटिका । अबसे १३ करोड ५० लाख वर्ष पूर्व इनके और भी टुकड़े हो गए। वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि हमारी पृथ्वी के महाद्वीप व महासागर लगभग ८० किलोमीटर या उससे भी अधिक मोरोक ठोस पदार्थ की पर्त पर अवस्थित थे । ठोस पदार्थ को यह पर्त लाखों वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई हैं। ये विशालकाय पते पथ्वी के गर्भ-कोड़ पर तैरती अथवा फिसलती रहती हैं। यही कारण है कि महाद्वीप व महासागर फिसलते रहते हैं। डा० जान एम० वर्ड और डा. जान एफ० डेवी नामक अमरीकी वैज्ञानिकों का मत है कि प्राचीन काल में फिसलते हुए जब भारत उपमहाद्वीप का भूखण्ड एशिया महाद्वीप के भूखण्ड से टकराया तो एक गहरी खाई बन गई। दोनों भखण्ड एक दसरे को दबाते रहे और उनके किनारे नीचे-नीचे धंसते चले गए। ऊपर का पदार्थ नीचे गर्म क्रोड की तरफ बढता गया । अन्त में जब दोनों भखण्ड एक दसरे से जा टकराये, तब उनका अपेक्षाकृत हलका पदार्थ मुख्य भू-भाग से अलग होकर ऊपर उठ गया और बाद में आज के हिमालय पर्वत का आकार ग्रहण कर सका । कहीं-कहीं ऐसा भी हुआ कि महासागर वाली तह खिसक कर महाद्वीप वाली तह के बोले जा पहची. जिससे पथ्वी की सतह ऊपर उठ आई जिसका परिणाम एडीज पर्वत श्रेणी के रूप में प्रकट हआ। (पर्वत श्रेणियों के निर्माण के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों में प्रायः एकमत नहीं है । पर्वत-श्रेणियों के निर्माण के विविध मत विज्ञान-जगत में प्रचलित हैं। भारतवर्ष की स्थिति आज जैसी सदा से नहीं है। मारवाड़ में जहां 'ओसिया' है, वहां पहले कभी समुद्र था। इसका प्रमाण यह है कि आज भी ओसिया के आसपास स्थित पहाड़ी में १७ फीट ऊंची, २६ फीट चौड़ी व ३७ फीट लम्बी आकार की काली लकड़ी की विशाल नौकाओं के अवशेष मिले हैं जिससे यह प्रतीत होता है कि सम्भवत: वहां कोई बन्दरगाह था। इस बन्दरगाह के नष्ट हो जाने से यहां के व्यापारी देश के विभिन्न भागों में फैल गये । ये व्यापारी 'ओसवाल' नाम से प्रसिद्ध हैं। भूगर्भ-शास्त्रियों को हिमाचल पर्वत की चोटी पर सीप, शंख, मछलियों के अस्थि-पंजर प्राप्त हुए हैं जिनसे हिमालय पर्वत की लाखों वर्ष पूर्व समुद्र में स्थित होने की पुष्टि होती है। जिओलोजिकल सर्वे आफ इंडिया के भूतपूर्व डाइरेक्टर डा० वी० एन० चोपड़ा को भारतवर्ष में वाराणसी (उ० प्र०) के एक कूए से एक ऐसा कीड़ा प्राप्त हुआ जिसका अस्तित्व आज से दस करोड़ वर्ष पूर्व भी था। उक्त प्रकार का कीड़ा पाज भी आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड व दक्षिणी अफ्रीका में प्राप्त होता है। वाराणसी में इस कीड़े की प्राप्ति से भारतवर्ष का भी अत्यन्त प्राचीन काल में प्रास्ट्रेलिया आदि की तरह किसी प्रखण्ड व अविभक्त प्रदेश से सम्बद्ध होना पुष्ट हो जाता है । १४८ आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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