Book Title: Jain Dharmshastro aur Adhunik Vigyan ke Alok me Pruthvi
Author(s): Damodar Shastri
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ जम्बूद्वीप में प्रतिदिन सूर्य के उदयान्तर का कारण उसके 'चार' क्षेत्र की गलियों की दो-दो योजन की चौड़ाई और उसका ४८ अपना विस्तार (- योजन) है ६१ चन्द्रमा के १५ ही मार्ग (गलियां ) हैं । चन्द्रमा को पूरी प्रदक्षिणा करने में दो दिन-रात से कुछ अधिक समय लगता है, इसलिए चन्द्रोदय के समय में अन्तर पड़ता है । सूर्य अपने (जम्बूद्वीप में विचरण क्षेत्र की १८४ गलियों में विचरता हुआ जब भीतरी गली में पहुंचता है, तब दिन का प्रमाण बढ़ जाता है, और प्रभात शीघ्र हो जाता है। किन्तु जब वह ५१० योजन परे बाहरी गली में पहुंचता है, तब भरत क्षेत्र में दिन का प्रमाण छोटा होता है जब वह मध्यवर्ती मण्डल में पहुँचता है, तब समान दिन-रात (१५-१५ मुहतों के होते हैं। जम्बूद्वीप में सूर्य की सबसे प्रथम गली चार ( Orbit) की प्रथम आभ्यन्तर परिधि ( कर्क राशि ) है । लवण समुद्र में ३०३ योजन की दूरी पर स्थित गली की अंत की बाह्य परिधि मकर राशि है। आषाढ़ में सूर्य प्रथम गली में या कर्क राशि पर रहते हैं, उस समय १८ मुहूर्त का दिन तथा १२ मुहूर्त की रात्रि होती है । जब सूर्य इस गली से ज्यों-ज्यों बाह्य गलियों में (दक्षिणायन में ) चलते हैं, तो गलियों की लम्बाई बढ़ते जाने से, सूर्य की गति तेज होती है। उस समय रात बढ़ती है, और दिन घटता जाता है । माघ के महीने में जब सूर्य मकर राशि- अंतिम गली में पहुंचता है तो दिन १२ मुहूर्त का तथा रात १० मुहूर्त की होती है। यहां से सूर्य पुनः उत्तरायण को चलते हैं । प्रथम व अंतिम गलियों में सूर्य एक वर्ष में एक बार ही गमन करते हैं, और शेष गलियों में आने-जाने की दृष्टि से एक वर्ष में दो बार गमन करते हैं। अतः एक वर्ष में १८२x२+२-३६६ दिन होते हैं। (८) स्वर्गीय पं० गोपालप्रसाद जी बरैया जी ने अपनी पुस्तक 'जैन ज्याग्राफी' पुस्तक में लिखा है "चतुर्थ काल के आदि में इस आर्यखण्ड में उपसागर की उत्पत्ति होती है । ये क्रम से चारों तरफ फैलकर आर्य खण्ड के बहुभाग को रोक लेता है। वर्तमान के एशिया, यूरोप, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया - ये पांचों महाद्वीप इसी आर्यंखण्ड में हैं । उपसागर मे चारों ओर फैलकर ही इनको द्वीपाकार बना दिया है।" (E) इसके अतिरिक्त, भूकम्प आदि कारणों से भी, प्राकृतिक परिवर्तन होते हैं, जिनसे नदियां अपनी धारा की दिशा बदल देती है, और पर्वतों की ऊंचाई भी बढ़ जाती है। 'भूगोल' एक पौगलिक घटना है। उन उन क्षेत्रों के जीवों के पाप कर्म से भी निसर्गतः भूकम्प होता है। पृथ्वी के नीचे घनवात की व्याकुलता, तथा पृथ्वी के नीचे बाहर पुद्गलों के परस्पर-संघात ( टक्कर ) से टूटकर अलग होने आदि कारणों से भूकम्प होने का निरूपण 'स्थानांग' आदि शास्त्रों में उपलब्ध है । बौद्धग्रन्थ 'पंगुत्तरनिकाय से भी ज्ञात होता है कि पृथ्वी के नीचे महावायु के प्रकम्पन से (तथा अन्य कारणों से) भूकम्प होता है।" (ग) पृथ्बी में परिवर्तनः विज्ञान सम्मत आज के भूगर्भ वैज्ञानिक इस पृथ्वी के अतीत को जानने की जो चेष्टा कर रहे हैं, वह अतीत की सही जानकारी प्राप्त करने में कितनी सफल होगी, वह तो ज्ञात नहीं। किन्तु इतना तो अवश्य है कि पृथ्वी के महाद्वीप और महासागर आजकल जिस आकाय प्रकार के हैं, उनका वही आकार-प्रकार सुदूर अतीत में नहीं था और भविष्य में भी नहीं रहेगा। वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है कि यंत्र व आश्विन मास में (१५-१५ हतों के दिन-रात की यह स्थिति है (इ. समवायांग, सु. १५०१०५) सबसे छोटा दिन या रात १२ मुहूर्त का होता है ( द्र. समवायांग — सू. १२ / ८१, लोक प्रकाश - २००७५-१०३, चंदपण्णत्ति - १।१।१) । - २. द्र० लोक प्रकाश, २०यां सर्ग, सूर्य प्रज्ञप्ति व चन्द्रप्रज्ञप्ति, १०८ प्राभूत, जम्बूद्दीवपण्णत्ति (श्वेता. ) ७११२६-१५०, भगवती सूत्र ५१४-२७, १. ३. ४. स्थानांग - ३ | ४ | १६८, भूकम्प के पांच प्रकार होते हैं (द्र. भगवती सू. १७१३२) । ड. अंतर निकाय, ७० जैन धर्म एवं माचार Jain Education International For Private & Personal Use Only १४७ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24