Book Title: Jain Dharmshastro aur Adhunik Vigyan ke Alok me Pruthvi
Author(s): Damodar Shastri
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 9
________________ हमारी यह धरती, नीचे की छ: धरतियों के मुकाबले, में आकार (लम्बाई-चौड़ाई) में सबसे छोटी (कम पृथुतर) है। किन्तु मोटाई में यह अधिक है। जहां रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। वहां द्वितीय पृथ्वी एक लाख बत्तीस हजार, तृतीय एक लाख अठाईस हजार, चतुर्थ एक लाख बीस हजार, पंचम एक लाख अठारह हजार, षष्ठ एक लाख सोलह हजार, तथा सप्तम एक लाख आठ हजार योजन मोटी है।' (क) पृथ्वी में रत्नों को खाने प्रथम पृथ्वी के खर भाग (१६ हजार योजन) के १६ पटलों (विभागों) में ऊपरी पटल का नाम 'चित्रा' है, जिसकी मोटाई एक हजार योजन है।' चित्रा पटल के नीचे पन्द्रह अन्य पटलों के नाम इस प्रकार हैं-(१) वैड्र्य, (२) लोहितांक. (३) असारगल्ल, (6) गोमेदक, (५) प्रवाल, (६) ज्योतिरस, (७) अंजन, (८) अंजनमूल, (६) अंक, (१०) स्फटिक, (११) चन्दन, (१२) वर्चगत, (१३) बहुल, (१४) शैल, (१५) पाषाण । इन पटलों में विविध रत्नों की खाने हैं। (ख) पृथ्वी का आकार-गोल व चौरस (सपाट) दर्पण की तरह इस धरती का आकार जैनागमों में 'झल्लरी' (झालर या चूड़ी) के समान वत्त माना गया है। कुछ स्थलों में इसे स्थाली के समान आकार वाली भी बताया गया है।" पथ्वी की परिधि वत्ताकार है, तभी इसे परिवेष्टित करने वाले धनोदधि आदि वातों की वलयाकारता भी संगत होती है।" १. विशष्टि० २/३.४८८, जीवाजीवाभिगम सू० ३/२/६२, भगवती सू० १३/४/१०, २. जीवाजीवाभिगम सू० ३/१/८०, भगवती सू० १३/४/१०, ३. लोकप्रकाश १२/१६८, ति. प० २/९, हरिवंश पु० ४/४७-४६, जीवाजीवा० ३/१/६८, जंबूद्दीव प० (दिग०)११/११४, ४, त्रिशष्टि० २/३/४८७, त० सू० भाष्य-३/१, जीवाजीवा०स०३/२/६८, ३/२/८१, प्रज्ञापना सू० २/६७-१०३, दिगम्बर-परम्परा में पबियों की मोटाई द्वितीय पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक इस प्रकार है-शर्करात्रभा-३२०००, बालुकाप्रभा-२८०००, पंकप्रभा२४०००, धूमप्रभा-२००००, तम:प्रभा-१६०००, महातम:प्रभा-८००० योजन (द्र० तिलोय प० २/२२, १/२८२ १० ४६-४६, त्रिलोकसार-१४६)। तिलोयपण्णत्ति में श्वेताम्बर-सम्मत परिमाण को 'पाठान्तर' (मतभेद) के रूप में निर्दिष्ट किया हैं (ति०१० २/२३)। ५. तिलोयपण्णत्ति २/१०, त्रिलोकसार-१४७, राजवार्तिक ३/१/८, जंबूढीव पण्णत्ती (दिग०) ११/११७, ६. ति०प० २/१५, हरिवंश पु० ४/५५.. ७. ति० प० २/१५-१८, हरिवंश पुराण (४/५२-५४) में नाम इस प्रकार हैं--चित्रा, वज्रा, वैडूर्य, लोहितांक, मसारकल्प, गोमेद, प्रवाल, ज्योति, रस, अंजन, अंजनमूल, अंग, स्फटिक, चन्द्राभ, वर्चस्क, बहुशिलामय। त्रिलोकसार (१४७-१४८) तथा जंबूद्दीव पण्णत्ति (दिग०) (११/११७-१२०) में सामान्य अन्तर के साथ नामों का निर्देश है । लोकप्रकाश (१२/१७२-१७५) में नाम इस प्रकार हैं-रत्न, वज्र, वैडूर्य, लोहित, अंक, रिष्ट । जीवाजीवाभिगम सूत्र (३/१/६६) में भी कुछ इसी तरह के नाम दिए गए हैं। ८. ति० प० २/११-१४, लोकप्रकाश १२/१७५ ६. मध्ये स्याउझल्लरीनिभः (ज्ञानार्णव २३/८) । मध्यतो झल्लरीनिभः (त्रिषष्टि० २/३/४७६)। एतावान्मध्यलोक: स्यादाकृत्या झल्लरीनिभ: (लोकप्रकाश १२/४५)। खरकांडे किसंठिए पण्णत्त । गोयमा । झल्लरीसंठिए पण्णत्ते (जीवाजीवा० सू० ३/१/७४) । भगवती सू० ११/१०/८, हैम-योग शास्त्र-४/१०५, आदि पुराण-४/४१, आराधनासमुच्चय-५८, जंबूद्दीव प० (दिग०) १०. (क) स्थालमिव तिर्यग्लोकम् (प्रशमरति, २११)। (ख) भगवतीसूत्र में एक स्थल पर मध्यलोक को 'वरवच' की तरह की बताया गया है-'मज्झे वरवइरविग्गहियंसि' ५/९/२२५ (१४)। ११. जीवाजीवाभिगम ३/१/७६ (घनोदहिवलए---वट्ट बलयागारसंठाणसंठिए)। जैन धर्म एवं आचार १३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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