Book Title: Jain Dharm me Bhakti ki Avdharna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf View full book textPage 8
________________ 26 जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा मान्यताओं के आधार पर ही अपनी परम्परा में भक्ति के स्वरूप को निर्धारित किया है। उन्होंने अपनी सहवर्ती हिन्दू परम्परा से बहुत कुछ ग्रहण किया, किन्तु उसे अपनी तत्त्व योजना के चौखटे में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, यद्यपि कहीं-कहीं इसमें स्खलना भी हुई है। जैनधर्म में स्तुति, गुणसंकीर्तन एवं प्रार्थना का प्रयोजन : जैनधर्म में भक्ति के जो दूसरे स्प स्तुति, गुण-संकीर्तन, प्रार्थना आदि है, उनका स्वरूप वर्तमान में तो बहुत कुछ हिन्दू परम्परा के समान ही हो गया और जैन भक्त भी अपने प्रभु से सब कुछ मांगने लगा है। किन्तु अपने प्राथमिक रूप में जैन स्तुतियों का हिन्दू परम्परा की स्तुतियों से एक अन्तर रहा है। हिन्दू परम्परा अपने प्राचीन काल से ही इस तथ्य में विश्वास करती रही है कि स्तुति या भक्ति के माध्यम से हम जिस प्रभु की आराधना करते हैं, वह प्रसन्न होकर हमारे कष्टों को मिटा देता है। उसमें ईश्वरीय या दैवीकृपा का तत्त्व सदैव ही स्वीकृत रहा है। गीता में भक्त और भक्ति के चार रूपों की चर्चा है -- १. अर्थार्थी, २. आर्त, ३. जिज्ञासु एवं ४. ज्ञानी । यद्यपि गीता ने जिज्ञासु या ज्ञानी को ही सच्चा भक्त निरूपित किया है, किन्तु भक्ति का जो रूप हिन्दू धर्म में प्रचलित रहा है, उसमें ईश्वरीय या दैवीय कृपा की प्राप्ति का प्रयोजन तो सदैव ही प्रमुख रहता है, किन्तु जैनधर्म में उसको कोई खास स्थान नहीं है। क्योंकि जैनों का परमात्मा किसी का कल्याण या अकल्याण करने में समर्थ नहीं है। सामान्यतया व्यक्ति दुःख या पीड़ा की स्थिति में उससे त्राण-पाने के लिए प्रभु की भक्ति करता है। वह भक्ति के नाम पर भगवान से भी कोई सौदा ही करता है। वह कहता है कि यदि मेरी अमुक मनोकामना पूर्ण होगी तो मैं आपकी विशिष्ट रूप से पूजा करूगा या विशिष्ट प्रसाद समर्पित करुगा। जैनधर्म में चूँकि प्रारम्भ से ही तीर्थंकर को वीतराग माना गया है। अतः वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता है और न दुष्टों का संहार । जहाँ गीता तथा अन्य ग्रन्थों में प्रभु के अवतरण का मुख्य प्रयोजन दुष्टों का संहार एवं धर्म-मार्ग की स्थापना माना गया है, वहां जैन परम्परा में तीर्थकर का उद्देश्य मात्र धर्म-मार्ग की संस्थापना करना है। जैनों का परमात्मा गीता के परमात्मा के समान इस प्रकार का कोई आश्वासन नहीं दे पाता है कि तुम मेरे प्रति पूर्णतः समर्पित हो जाओ, मैं तुम्हें सब पापों से मुक्ति दूंगा। जैनधर्म में प्राचीन काल में स्तुति का प्रयोजन प्रभु से कुछ पाना नहीं रहा है। स्तुति के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए आचार्य समन्तभद्र अपने ग्रन्थ देवागम स्तोत्र में कहते हैं कि -- हे प्रभु ! न तो मैं आपको प्रसन्न करने के लिए आपकी भक्ति या पूजा करता हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि आप वीतराग है अतः मेरी पूजा से प्रसन्न होने वाले नहीं हैं। इसी प्रकार आप निन्दा करने पर कुपित भी नहीं होंगे कि आप विवान्त-वैर है, मैं तो आप की भक्ति केवल इसलिए करता हूँ कि आपके पुण्य गुणों की स्मृति से मेरा चित्त पाप रूपी मल से रहित होगा। स्मरण रखना चाहिए कि जैन-विचारधारा के अनुसार साधना के आदर्श के रूप में जिसकी स्तुति की जाती है, उन आदर्श पुरुषों से किसी प्रकार की उपलब्धि की अपेक्षा नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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