Book Title: Jain Dharm me Bhakti ki Avdharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 16
________________ समाप्त हो जाता है। फिर भी साधक दशा में परमात्मा के प्रति पूज्य बुद्धि जैन परम्परा में भी मान्य रही और उस रूप में जैन साधक अपने को परमात्मा का सेक्क भी सूचित करता है। जैन भक्ति गीतों में अनेक स्थानों पर भक्त अपने को परमात्मा के सेवक के रूप में प्रस्तुत भी करता है। जैन संत आनन्दघन जी लिखते हैं 34 -- एक अरज सेवक तणीरे, अवधारो जिनदेव । कृपा करी मुझ दीजिए रे, आनन्दघन पद सेव 11 विमल जिन स्तवन - -- जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा फिर भी वैष्णव भक्ति परम्परा में जो सदैव ही परमात्मा का सेवक बने रहने की उत्कट भावना है, वह जैन परम्परा में नहीं पायी जाती। उसका आदर्श तो स्वयं परमात्म पद को प्राप्त कर लेना है। उस सर्वोच्च स्थिति में स्वामी और सेवक का भेद नहीं रह जाता। भक्त सदैव ही यह प्रार्थना करता है कि भक्त और भगवान के बीच का यह अन्तर कैसे समाप्त हो ? सन्त आनन्दघन जी लिखते हैं कि - पद्यप्रभ जिन तुझ मुज आंतरूं रे, किम भांजे भगवंत । कर्म विपाक कारण जोड़नेरे कोई कहे मतिमंत ।। Jain Education International अन्त में उस अन्तर को समाप्त होने की पूर्ण आस्था रखते हुए भक्त कहता है कि - तुझ मुझ अन्तर अन्त भांजसे बाजस्ये मंगलतूर- आनन्दघन ग्रन्थावली, पद्मप्रभ जिनस्तवन । इसी प्रकार सहजानन्द जी प्रभु की स्तुति करते हुए कहते हैं कि सुपारस प्रभु सेवथी, सेवक सेव्य समानः अनुभव गम्य करी लहो, सहजानन्दघन यान... —— जैन भक्ति का आदर्श वाक्य है. वन्दे तद् गुणलब्धये-तत्त्वार्थसूत्र - मंगलाचरण | इस प्रकार जैन धर्म में भक्ति का प्रयोजन परमात्म दशा को प्राप्त कर स्वामी सेवक भाव समाप्त करना ही रहा है। इसी प्रकार सख्य भाव से भक्ति के उल्लेख भी जैन परम्परा में मिल जाते हैं। फिर भी दोनों परम्परा में जो मौलिक अन्तर है उसे लक्ष्य में रखना ही होगा। जैन परम्परा में परमात्मा कोई एक व्यक्ति विशेष नहीं है जिससे सख्य भाव से जुड़ा जा सके। अपितु प्रत्येक आत्मा का अपना शुद्ध स्वरूप ही उसका सखा या मित्र हैं । इसी प्रकार वैष्णव परम्परा में परमात्मा को पति मानकर भक्ति की परम्परा भी पायी जाती है। प्रेम और विरह के रूप में भक्ति गीतों का परम्परा अति प्राचीन है । यद्यपि जैन परम्परा की साधना का मुख्य उद्देश्य तो राग-भाव से ऊपर उठना ही रहा है फिर भी परमात्मा के प्रति अनन्य प्रेम का प्रकटन उसमें भी हुआ है। यद्यपि मेरी दृष्टि में यह सब वैष्णव भक्तिमार्गी परम्परा का ही प्रभाव रहा है। समयसुन्दर, आनन्दघन, यशोविजय, देवचन्द्र आदि जैन कवियों ने परमात्मा को पति मानकर अनेक भक्ति गीतों की रचना की । आनन्दघन ने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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