Book Title: Jain Dharm me Bhakti ki Avdharna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf View full book textPage 1
________________ जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा - प्रो. सागरमल जैन जैनधर्म में भक्ति की अवधारणा का विवेचन करने के पूर्व यह विचार करना आवश्यक है। कि 'भक्ति' शब्द का तात्पर्य या अर्थ क्या है और वह जैनधर्म में किस अर्थ में स्वीकृत है। भक्ति शब्द भज् धातु में क्तिन् प्रत्यय लगकर बना है । भज् धातु का अर्थ है-- सेवा करना । किन्तु यथार्थ में भक्ति शब्द का अर्थ इससे कहीं अधिक व्यापक है। सामान्यतया आराध्य या उसके विग्रह की गुणसंकीर्तन, स्तुति, वन्दन, प्रार्थना, पूजा और अर्धा के रूप में जो सेवा की जाती है, उसे हम भक्ति नाम देते हैं। यद्यपि यह स्मरण रखना है कि ये सब क्रियायें भी तब तक भक्ति नहीं कही जा सकती हैं, जब तक इनके मूल में आराध्य के प्रति पूज्यबुद्धि, श्रद्धा, अनुराग और समर्पण का भाव नहीं हो। जैनाचार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने भक्ति की व्याख्या निम्न रूप में की है- अर्हदाचार्य बहुश्रुतप्रवचनेषु भाव विशुद्धि युक्तोऽनुरागो भक्ति सर्वार्थसिद्धि अर्थात् अर्हतु, आचार्य, बहुश्रुत एवं आगम के प्रति भावविशुद्धि पूर्वक जो अनुराग है, वह भक्ति है। प्रो. रामचन्द्र शुक्ल ने प्रेमपूर्ण श्रद्धा को भक्ति कहा है। कुछ विद्वानों ने इसे आराध्य और आराधक के मध्य एक रागात्मक सम्बन्ध माना है। किन्तु मेरी दृष्टि में भक्ति शब्द का तात्पर्य इन सबसे अधिक है। -- यह सत्य है कि भक्ति का उदय उपास्य और उपासक या भक्त और भगवान के बीच एक दूरी या द्वैत में ही होता है, किन्तु इसकी चरम निष्पत्ति इस द्वैत को समाप्त करने में ही है। जैसे-जैसे भक्त और भगवान् या आराध्य और आराधक के मध्य की यह दूरी सिमटती जाती है और एक ऐसा समय आता है जब व्यक्ति उस द्वैत को समाप्त कर स्वयं में भगवत्ता की अनुभूति कर लेता है। यही भक्ति का परिपाक है, यहाँ ही वह पूर्णता को प्राप्त होती है। जैन धर्म की विशेषता यही है कि उसमें भक्ति का प्रयोजन इस द्वैत या दूरी को समाप्त करना ही माना गया है। Jain Education International जैनों के अनुसार यह द्वैत तब ही समाप्त होता है, जब भक्त स्वयं भगवान बन जाता है। यद्यपि हमें स्मरण रखना होगा कि अनीश्वरवादी एवं प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता मानने - प्रो. कल्याणमल लोढ़ा के निर्देश से भारतीय भाषा परिषद् कलकत्ता द्वारा प्रकाश्य 'भारतीय भक्ति : तत्व, दर्शन एवं साहित्य के हेतु लिखित आलेखु, साभार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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