Book Title: Jain Dharm me Bhakti ki Avdharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 7
________________ प्रो. सागरमल जैन 25 एक परवर्ती विकास है और उसके प्रकारों के वर्गीकरण के परिणाम स्वरूप अस्तित्व में आया है। जैन धर्म में सम्यक् दर्शन के मुख्यतः दो प्रकार माने गये हैं-- निसर्गतः और अधिगमज । सम्यक् दर्शन का एक रूप वह होता है, जहां साधक अपनी अनुभूति से सत्य का साक्षात्कार करता है । 'सत्य का साक्षात्कार यही सम्यक् दर्शन का मूल अर्थ है किन्तु यह तब तक सम्भव नहीं है जब तक व्यक्ति अपने को राग द्वेष के पंजों से मुक्त नहीं कर लेता। जब तक व्यक्ति साधक अवस्था में है राग-द्वेष का अतिक्रमण कर लेना सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में यह माना गया है कि जब तक व्यक्ति स्वयं सत्य का साक्षात्कार न कर लें, उसे वीतराग परमात्मा, जिन्होंने स्वयं सत्य का साक्षात्कार किया है, उनके कथनों पर विश्वास करना चाहिए। जैन साहित्य में सम्यक्-दर्शन के जिन पांच अंगों की चर्चा मिलती है, उनमें श्रद्धा भी एक है। लगभग उत्तराध्ययन ( ई. पू. 3- 2री शती) के काल तक जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन का श्रद्धा परक अर्थ स्वीकार हो चुका था । किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि उत्तराध्ययन एवं तत्वार्थसूत्र (ई. सन् 3री शती) के काल तक जैनधर्म में श्रद्धा तत्त्वश्रद्धा थी। वह जिन या परमात्मा के प्रति श्रद्धा के रूप में सुस्थापित नहीं हुई थी। प्राचीन स्तर के ग्रन्थों में श्रद्धा को तत्त्व श्रद्धा या सिद्धान्त के प्रति निष्ठा के रूप में ही देखा गया । किन्तु जब श्रद्धा के क्षेत्र में तत्त्व या सिद्धान्त के स्थान पर व्यक्ति को प्रमुखता दी गयी, तो जिन और जिन-वचन के प्रति श्रद्धा ही सम्यक् दर्शन का प्रतीक मानी गयी। आगे चलकर जिन वचन के प्रस्तोता गुरु के प्रति भी श्रद्धा को स्थान मिला। इस प्रकार श्रद्धा का अर्थ हुआ • देव, गुरु एवं धर्म के प्रति श्रद्धा । —— जैनसाधना के क्षेत्र में सामान्यतया दर्शन (श्रद्धा) को प्राथमिकता दी गई है। कहा गया है धर्म दर्शन (श्रद्धा) मूलक हैं। जब तक दर्शन शब्द अनुभूति या दृष्टिकोण का सूचक रहा तब तक दर्शन को ज्ञान की अपेक्षा प्रधानता मिली किन्तु जब दर्शन का अर्थ तत्त्व - श्रद्धा मान लिया गया तो उसका स्थान ज्ञान के बाद निर्धारित हुआ। उत्तराध्ययन सूत्र में जहाँ दर्शन का श्रद्धा परक अर्थ किया गया है वहां स्पष्ट रूप से कहा है कि ज्ञान से तत्त्व के स्वरूप को जाने और दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करे (२८/३५ )। यह सत्य है कि ज्ञान के अभाव में जो श्रद्धा होगी उसमें संशय की सम्भावना होगी ऐसी श्रद्धा अंधश्रद्धा होगी। यह सत्य हे कि जैनों ने श्रद्धा को अपने साधना में स्थान दिया किन्तु वे इस सन्दर्भ में सर्तक रहे कि श्रद्धा को ज्ञानाधिष्ठित होना चाहिए। श्रद्धा प्रज्ञा और तर्क से समीक्षित होकर ही सम्यक् श्रद्धा बन सकती है (उत्तराध्ययन २३ / २५, ३१) । इस प्रकार जैन चिन्तन में भक्ति के मूल आधार श्रद्धा के तत्त्व को स्थान तो मिला, किन्तु उसे अनुभूति या ज्ञान से समन्वित किया गया, ताकि श्रद्धा अन्ध-श्रद्धा न बन सके। जैनधर्म में श्रद्धा मूलतः तत्त्व- श्रद्धा या सिद्धान्त के प्रति आस्था रही । उसमें जो वैयक्तिकता का तत्त्व प्रविष्ट हुआ और वह देव तथा गुरु के प्रति श्रद्धा बनी है, उसके मूल में रहे हुए हिन्दू परम्परा के प्रभाव को विस्मृत नहीं किया जा सकता है। हिन्दू परम्परा में जो ईश्वर के प्रति अथवा उसके वचन के रूप में वेदादि के प्रति जो आस्था की बात कही गई थी, उसे जैन आचार्यों ने जिन व जिन-वाणी के प्रति श्रद्धा के रूप में ग्रहीत करके अपनी परम्परा में स्थान दिया। फिर भी यह स्मरण रखना होगा भक्ति की अवधारणा का विकास जिस रूप में हिन्दूधर्म में हुआ, उस रूप में जैनधर्म में नहीं हुआ है। जैनाचार्यों ने अपनी तात्त्विक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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