Book Title: Jain Dharm me Bhakti ki Avdharna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 12
________________ 30 जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा प्रार्थनाएँ भी हैं। परवर्ती काल में तो मरु-गुर्जर, पुरानी हिन्दी आदि में बहुत सी स्तुतियाँ लिखी गईं, जिनमें आध्यात्मिक कल्याण के साथ-साथ लौकिक कल्याण की प्रार्थना की गई । यद्यपि आनन्दघन और देवचन्द जैसे कवियों की चौबीसियों भक्तिरस से ओत-प्रोत है। मध्यकाल में विष्णुसहस्त्रनाम के समान जैन परम्परा में भी जिनसहस्त्रनाम जैसे ग्रन्थ लिखे गए। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में स्तुतियों एव स्तुतिपरक साहित्य की रचना अति प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान युग तक जीवित रही है और हजारों की संख्या में भक्ति गीत लिखे गये जिनका सम्पूर्ण विवरण प्रस्तुत करना इस लेख में सम्भव नहीं है। यद्यपि जैनधर्म में सकाम स्तुतियों या प्रार्थनाओं के रूप यत्र-तत्र परिलक्षित होते हैं, किन्तु वीतरागता और मुक्ति की आकांक्षी जैन परम्परा में फलाकांक्षा से युक्त सकाम भक्ति का कोई स्थान नहीं हो सकता है, यह हमें स्मरण रहना चाहिए। क्योंकि जैन परम्परा में फलाकांक्षा को शल्य (कांटा ) कहा गया है । फलाकांक्षा सहित भक्ति को निदान - शल्य कहा गया है। जैन परम्परा में भक्ति का यथार्थ आदर्श क्या रहा है ? इसे जैन कवि धनन्जय ने निम्न शब्दों में अभिव्यक्त किया है इति स्तुतिं देव विधाय दैन्याद्, वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि । छाया तरुं संयतः स्वतः स्यात् करायया याचितयाऽऽत्मलाभः । अथास्ति दित्सा यदिवोपरोधः त्वय्येव सक्तां दिश भक्ति बुद्धिं । करिष्यते देव तथा कुपां मे, को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरीः । हे प्रभु! इस प्रकार आपकी स्तुति करके मैं आपसे कोई वरदान नहीं मांगना चाहता हूँ, क्योंकि कुछ मांगना तो एक प्रकार की दीनता है, पुनः आप राग-द्वेष से रहित हैं, बिना राग के कौन किस की आकांक्षा पूरी करता है, पुनः छायावाले वृक्ष के नीचे बैठकर छाया की याचना करना तो व्यर्थ ही है । वह तो स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार जैन धर्म में भक्ति का उत्स तो निष्कामता ही है। उसमें सकामता जो तत्त्व प्रविष्ट हुआ है, वह हिन्दू परम्परा और सम-सामयिक परिस्थितियों का प्रभाव है । जैन परम्परा में स्तुति या स्तवन का महत्त्व तो इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाता है, उसमें मुनि अथवा गृहस्थ के जो दैनिक षट् आवश्यक कर्तव्य बताये गए हैं, उसमें दूसरे क्रम पर स्तुति का निरूपण है। अतः हम कह सकते हैं कि श्रद्धा के साथ-साथ जैन धर्म में भक्ति का दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष स्तुति भी स्वीकृत रहा है। Jain Education International स्तुति वस्तुतः उपास्य के गुणों का ही संकीर्तन है। जैन परम्परा में जो स्तुतियां उपलब्ध हैं, उनमें अरहंत, सिद्ध या तीर्थकर के गुणों का संकीर्तन किया जाता है, किन्तु इसका मुख्य उद्देश्य तो आत्मा की शुद्ध स्वभाव दशा की उपलब्धि ही है। संत आनन्दघन जी लिखते है--- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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