Book Title: Jain Dharm me Achelkatva aur Sachelkatva ka Prashna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf View full book textPage 6
________________ ८२ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न उत्तराध्ययन की टीका में नेमिचन्द्र लिखते हैं - सान्तर अर्थात् वर्धमान स्वामी की अपेक्षा परिमाण और वर्ण में विशिष्ट तथा उत्तर अर्थात् महामुल्यवान होने से प्रधान, ऐसे वस्त्र जिस परम्परा में धारण किये जायें वह धर्म सान्तरोत्तर है। किन्तु सान्तरोत्तर ( संतरुत्तर ) शब्द का यह अर्थ समुचित नहीं है। वस्तुतः जब श्वेताम्बर आचार्य अचेल का अर्थ कुत्सितचेल या अल्पचेल करने लगे, तो यह स्वाभाविक था कि सान्तरोत्तर का अर्थ विशिष्ट, महामूल्यवान रंगीन वस्त्र किया जाय, ताकि अचेल के परवर्ती अर्थ में और संतरुत्तर के अर्थ में किसी प्रकार से संगति स्थापित की जा सके। किन्तु संतरुत्तर का यह अर्थ शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से उचित नहीं है। इससे इन टीकाकारों की अपनी साम्प्रदायिक मानसिकता ही प्रकट होती है। संतरुत्तर के वास्तविक अर्थ को आचार्य शीलांक ने अपनी आचारांग टीका में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। ज्ञातव्य है कि संतरुत्तर शब्द उत्तराध्ययन के अतिरिक्त आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में भी आया है।1८ आचारांग में इस शब्द का प्रयोग उन निर्ग्रन्थ मुनियों के सन्दर्भ में हुआ है, जो दो वस्त्र रखते थे। उसमें तीन वस्त्र रखने वाले मुनियों के लिये कहा गया है कि हेमन्त के बीत जाने पर एवं ग्रीष्म ऋतु के आ जाने पर यदि किसी भिक्षु के वस्त्र जीर्ण हो गये हों तो वह उन्हें स्थापित कर दे अर्थात् छोड़ दे और सांतरोत्तर अथवा अल्पचेल ( ओमचेल ) अथवा एकशाटक अथवा अचेलक हो जाये।" यहाँ संतरुत्तर की टीका करते हुए शीलांक कहते हैं कि अन्तर सहित है उत्तरीय ( ओढ़ना ) जिसका, अर्थात् जो वस्त्र को आवश्यकता होने पर कभी ओढ़ लेता है और कभी पास में रख लेता है। २० पं० कैलाशचन्द्रजी ने संतरुत्तर की शीलांक की उपरोक्त व्याख्या से यह प्रतिफलित करना चाहा है कि पार्श्व के परम्परा के साधु रहते तो नग्न ही थे, किन्तु पास में वस्त्र रखते थे, जिसे आवश्यकता होने पर ओढ़ लेते थे। किन्तु पण्डितजी की यह व्याख्या युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि संतरुत्तर से नग्नता किसी भी प्रकार फलित नहीं होती है। वस्तुत: संतरुत्तर शब्द का प्रयोग आचारांग में तीन वस्त्र रखने वाले साधुओं के सन्दर्भ में हुआ है और उन्हें यह निर्देश दिया गया है कि ग्रीष्म ऋतु के आने पर वे एक जीर्ण-वस्त्र को छोड़कर संतरुत्तर अर्थात् दो वस्त्र धारण करने वाले हो जायें। अत: संतरुत्तर होने का अर्थ अन्तरवासक और उत्तरीय ऐसे दो वस्त्र रखना है। अन्तरवस्त्र आजकल का Underwear अर्थात् गुह्यांग को ढकने वाला वस्त्र है। उत्तरीय शरीर के ऊपर के भाग को ढकने वाला वस्त्र है। 'संतरुत्तर' की शीलांक की यह व्याख्या भी हमें यही बताती है कि उत्तरीय कभी ओढ़ लिया जाता था और कभी पास में रख लिया जाता था, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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