Book Title: Jain Dharm me Achelkatva aur Sachelkatva ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf

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Page 14
________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न मान्यता प्रदान कर दी गयी। श्वेताम्बर मान्य आगमों और दिगम्बरों द्वारा मान्य यापनीय ग्रन्थों में उन आपवादिक स्थितियों का भी उल्लेख है, जिनमें मुनि वस्त्र-ग्रहण कर सकता था। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य स्थानांगसूत्र ( ३/३/३४७ ) में वस्त्रग्रहण के निम्नलिखित तीन कारणों का उल्लेख उपलब्ध होता है --- १. लज्जा के निवारण के लिये ( लिंगोत्थान होने पर लज्जित न होना पड़े, इस हेतु )। २. जुगुप्सा ( घृणा ) के निवारण के लिये ( लिंग या अण्डकोष विद्रूप होने पर लोग घृणा न करें, इस हेतु )। ३. परीषह ( शीत-परीषह ) के निवारण के लिये। स्थानांगसूत्र में वर्णित उपर्युक्त तीन कारणों में प्रथम दो का समावेश लोक-लज्जा में हो जाता है, क्योंकि जुगुप्सा का निवारण भी एक प्रकार से लोकलज्जा का निवारण ही है। दोनों में अन्तर यह है कि लज्जा का भाव स्वत: में निहित होता है और घृष्णा दूसरों के द्वारा की जाती है, किन्तु दोनों का उद्देश्य लोकापवाद से बचना है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में मान्य, किन्तु मूलत: यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना ( ७६ ) की टीका में निम्नलिखित तीन आपवादिक स्थितियों में वस्त्र-ग्रहण की स्वीकृति प्रदान की गयी है - १. जिसका लिंग ( पुरुष-चिह्न ) एवं अण्डकोष विद्रप हो, २. जो महान् सम्पत्तिशाली अथवा लज्जालु है, ३. जिसके स्वजन मिथ्यादृष्टि हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में निर्ग्रन्थ संघ में मुनि के लिये वस्त्रग्रहण एक आपवादिक व्यवस्था ही थी। उत्सर्ग या श्रेष्ठ मार्ग तो अचेलता को ही माना गया था। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आचारांग, स्थानांग और उत्तराध्ययन में न केवल मुनि की अचेलता के प्रतिपादक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं अपितु अचेलता की प्रशंसा भी उपलब्ध होती है। उनमें भी वस्त्र-ग्रहण की अनुमति मात्र लोक-लज्जा के निवारण और शीत-निवारण के लिये ही है। आचारांग में चार प्रकार के मुनियों के उल्लेख हैं - १. अचेल, २. एक वस्त्रधारी, ३. दो वस्त्रधारी और ४. तीन वस्त्रधारी। १. इनमें अचेल तो सर्वथा नग्न रहते थे। ये जिनकल्पी कहलाते थे। २. एक वस्त्रधारी भी दो प्रकार के होते थे - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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