Book Title: Jain Dharm me Achelkatva aur Sachelkatva ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf

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Page 19
________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न ९५ ई० पू० तृतीय-चतर्थ शती में निर्ग्रन्थों में एक वस्त्र का प्रयोग होता था, अन्यथा उन्हें एकशाटक कभी नहीं कहा जाता। जहाँ आजीवक सर्वथा नग्न रहते थे, वहाँ निम्रन्थ एक वस्त्र रखते थे। इससे यही सूचित होता है कि वस्त्र ग्रहण की परम्परा अति प्राचीन है। पुन: निर्ग्रन्थ के एकशाटक होने का यह उल्लेख पालित्रिपिटक में ज्ञातृपुत्र महावीर की चर्चा के प्रसंग में हुआ है। अत: सामान्य रूप से इसे पार्श्व की परम्परा कह देना भी ठीक नहीं होगा। फिर भी यदि इसमें चातुर्याम की अवधारणा के उल्लेख के आधार पर इसे पार्श्व की परम्परा से सम्बन्धित मानें तो भी इतना अवश्य है कि महावीर के संघ में पापित्यों के प्रवेश के साथ-साथ वस्त्र का प्रवेश हो गया था। चाहे निम्रन्थ परम्परा पार्श्व की रही हो या महावीर की, यह निर्विवाद है कि निर्ग्रन्थ संघ में प्राचीनकाल से ही वस्त्र के सम्बन्ध में वैकल्पिक व्यवस्था मान्य रही है, फिर चाहे वह अपवाद मार्ग के रूप में या स्थविर कल्प के रूप में ही क्यों न हो। ____ पालित्रिपिटक के एक अन्य प्रसंग में महावीर के स्वर्गवास के पश्चात् निर्ग्रन्थ संघ के पारस्परिक कलह और उसके दो भागों में विभाजित होने का निम्न उल्लेख मिलता है। वे एक-दूसरे की आलोचना करते हुए कहते थे -- "तू इस धर्म विनय को नहीं जानता। मैं इस धर्म विनय को जानता हूँ। तू क्या इस धर्म विनय को जानेगा ? आदि-आदि।" इस विवाद के सम्बन्ध में विद्वानों में दो प्रकार के मत हैं। मुनि कल्याणविजयजी आदि कुछ विद्वानों के अनुसार यह विवरण महावीर के जीवन-काल में ही उनके और गोशालक के बीच हुए उस विवाद का सूचक है, जिसके कारण महावीर के निर्वाण का प्रवाद भी प्रचलित हो गया था। भगवतीसूत्र में हमें इस विवाद का विस्तृत उल्लेख मिलता है। इसमें वस्त्रादि के सन्दर्भ में कोई चर्चा नहीं है। मात्र महावीर पर यह आरोप है कि वे पहले अकेले वन में निवास करते थे, अब संध सहित नगर या गाँव के उपान्त में निवास करते हैं और तीर्थङ्कर न होकर भी अपने को तीर्थङ्कर कहते हैं। किन्तु इस विवाद के प्रसंग में, जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, वह यह कि पालित्रिपिटक में इसका सम्बन्ध धर्म-विनय से जोड़ा गया है और औदात्त अर्थात् श्रेष्ठ वस्त्र धारण करने वाले निर्ग्रन्थ श्रावकों को इस विवाद से उदासीन बताया गया है।" इससे इतना तो अवश्य प्रतिफलित होता है कि विवाद का मूलभूत विषय धर्म विनय अर्थात् श्रमणाचार से ही सम्बन्धित रहा होगा। अत: उसका एक पक्ष वस्त्रपात्र रखने या न रखने से सम्बन्धित हो सकता है। इन समस्त चर्चाओं से यह प्रतिफलित होता है कि सचेलता और अचेलता की समस्या निम्रन्थ संघ की एक पुरानी समस्या है और इसका Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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