Book Title: Jain Dharm me Achelkatva aur Sachelkatva ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf
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जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
की जिन चौदह उपधियों का उल्लेख किया गया है उनमें मात्रक और चूलपट्टक ये दो उपधि जिनकल्पी नहीं रखते हैं।
यापनीयों की दूसरी विशेषता यह है कि वे श्वेताम्बरों के समान जिनकल्प का विच्छेद नहीं मानते। उनके अनुसार समर्थ साधक सभी कालों में जिनकल्प को धारण कर सकते हैं, जबकि श्वेताम्बरों के अनुसार जिनकल्पी केवल तीर्थङ्कर की उपस्थिति में ही होता है। यद्यपि यापनीयों की इस मान्यता में उनकी ही व्याख्यानुसार एक अन्तर्विरोध आता है, क्योंकि उन्होंने अपनी जिनकल्पी की व्याख्या में यह माना है कि जिनकल्पी नौ-दस पूर्वधारी और प्रथम संहनन के धारक होते हैं। चूँकि उनके अनुसार भी वर्तमान में पूर्व ज्ञान और प्रथम संहनन ( वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन ) का अभाव है, अत: जिनकल्प सर्वकालों में कैसे सम्भव होगा। इन दो-तीन बातों को छोड़कर यापनीय और श्वेताम्बर परम्परा में जिनकल्प के सम्बन्ध में विशेष अन्तर नहीं है। विशेष जानकारी के लिये भगवती-आराधना की टीका और बृहत्कल्पभाष्य के तत्सम्बन्धी विवरणों को देखा जा सकता है। । ज्ञातव्य है कि दिगंम्बर-ग्रन्थ गोम्मटसार और यापनीय ग्रन्थ भगवतीआराधना की टीका में जिनकल्प को लेकर एक महत्त्वपूर्ण अन्तर परिलक्षित होता है, वह यह कि जहाँ गोम्मटसार में जिनकल्पी मुनि को मात्र सामायिक चारित्र माना गया है, वहाँ भगवतीआराधना में उनमें सामायिक और छेदोपस्थापनीय ऐसे दो चारित्र माने गए हैं। वस्तुत: यह अन्तर इसलिये आया कि जब दिगम्बर परम्परा में छेदोपस्थापनीय चारित्र का अर्थ महाव्रतारोपण से भित्र होकर प्रायश्चित्त रूप पूर्व दीक्षा पर्याय के छेद के अर्थ में लिया गया, तो जिनकल्पी में प्रायश्चित्त रूप छेदोपस्थापनीय चारित्र का निषेध मानना आवश्यक हो गया, क्योंकि जिनकल्पी की साधना निरपवाद होती है। हमें जिनकल्प और स्थविरकल्प का उल्लेख प्राय: श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्परा में ही देखने को मिला है। दिगम्बर परम्परा में यापनीय प्रभावित ग्रन्थों को छोड़कर प्राय: इस चर्चा का अभाव ही है।
सन्दर्भ १. णिच्चेलपाणिपत्तं उवइलैं परमजिण वरिंदेहि ।।
एक्को वि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे ।। सूत्रप्राभृत, १० २. एगयाएचेलए होइ सचेले यावि एगया । उत्तराध्ययन, २/१३ ३. उस्सग्गियलिंगकदस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव ।।
अववादियलिंगस्स वि पसत्थमुवसग्गियं लिंगं ।। भगवतीआराधना, ७६
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