Book Title: Jain Dharm ke  Prabhavak Acharya
Author(s): Sanghmitrashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ (चौदह) अनजाना रहने के कारण अनकहा भी रह गया है। सुविज्ञ पाठक एव इतिहासप्रेमी इस पुस्तक के सम्बन्ध में मुझे अपनी प्रतिक्रियाओ से अवगत कराएगे तो यथासम्भव द्वितीय सस्करण में उनका उपयोग कर सक इस बात की भोर पूरा प्रयत्न रहेगा। युगप्रधान आचार्यश्री तुलमी ने मुझे जैन परपरा मे दीक्षित कर मेरा अनल्प उपकार किया है। उन्होने मेरी ज्ञान की आराधना, दर्शन की आराधना और चरित्न की आराधना को सद्धित करने का सदा प्रयत्न किया है। मैं उनकी प्रभुता और कर्तव्य परायणता के प्रति समर्पित रही है । मैंने उनकी दृष्टि की आराधना की है और उससे बहुत कुछ पाया है । उनके द्वारा प्राप्त के प्रति मैं कृतज्ञ हू और प्राप्य के प्रति आशान्वित है । उन्होने आशीर्वचन लिखकर मुझे अनुगृहीत किया है । मैं उनके इस अनुग्रह के प्रति प्रणत है। __ युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ की प्रज्ञा ने मुझे सदा सचेत रखा है और दर्शन चेतना को जागृत रखने का सदुपाय बताया है। कृपाकाक्षी नही आत्माकाक्षी बनोइस सूत्र ने मुझे सदा उवारा है। मैं महाप्रज्ञ की ज्ञानाराधना से और चारित्रिक निष्ठा से बहुत लाभान्वित हुई है। उनके अध्यात्म से ओत-प्रोत सरक्षण मे तेरापथ का माध्वी समाज त्रिरत्न की आराधना मे प्रगति करेगा-यह आशादीप सदा प्रज्वलित रहे । प्रस्तुत ग्रथ के लेखन में उनका मार्ग-दर्शन मेरे लिए प्रकाश-स्तभ रहा है। उन्होने भूमिका लिखकर मेरे उत्साह को बढाया है । शतशत वन्दन। ___ महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा से प्राप्त स्नेह और सद्भाव के प्रति भी मैं प्रणत हू और आशा करती है कि उनकी देखरेख मे साध्वी-समाज विशेष प्रगति करेगा। प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखन मे पार्श्ववर्तिनी साध्वियो (स्वयप्रभा जी, ललितप्रभा जी, शीलप्रभा जी, सोमलता जी)का सहयोग अत्यन्त मूल्यवान रहा है । विशेष सस्मरणीय बने है जवेरचद जी डागल्या जो व्यापार कार्य में व्यस्त रहते हुए भी इस कृति की सम्पूर्ण प्रतिलिपि मे उत्साह पूर्वक श्रम और समय का यथेप्सित अनुदान कर सके है। यह सम्पूर्ण कृति पाठको के हाथ में है। उनके द्वारा इस कृति का समीक्षात्मक एव समालोचनात्मक अध्ययन मेरी प्रसन्नता मे सहयोगी बनेगा। साध्वी सघमिना उदयपुर, राजस्थान १ मई, १९७९

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