Book Title: Jain Dharm ke  Prabhavak Acharya
Author(s): Sanghmitrashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ (वारह) प्रसन्नता जैनाचार्यों की धृति मदराचल की तरह अचल थी। उदार-चेता जैनाचार्य उदात्त विचारो के धनी थे। उन्होने अपने सघ व सम्प्रदाय की ही सीमा को सब कुछ न मानकर अत्यन्त व्यापक दृष्टिकोण से ही चिन्तन किया। जन-जन के हित की बात कही। शास्त्रार्थ प्रधान युग में भी समन्वयात्मक भावभूमि को परिपुष्ट किया। समग्र धर्मों के प्रति उनका सद्भाव, स्याद्वाद-सिद्धान्त से अनुस्यूत माध्यस्थ दृष्टिकोण एव अनाग्रहपूर्ण प्रतिपादन जैनाचार्यों की सफलता का मूल मन था। दायित्व का निर्वाह श्रमण परम्परा मे अनेक जैनाचार्य लघुवय मे दीक्षित होकर सघ के शास्ता बने । पर उन्होने आचार्य पद से अलकृत हो जाने मे ही जीवन और कर्तव्य की इतिश्री नही मान ली थी। अपने दायित्व का वहन उन्होने प्रतिक्षण जागरूक रहकर किया। "सुत्ता अमुणिणो मुणिणो सया जागरन्ति" भगवान महावीर का यह आगम वाक्य उनका अभिन्न महचर था। जैनाचार्यो की ज्ञानाराधना सद्धर्म धुरीण जैनाचार्यों की ज्ञानाराधना विलक्षण थी। मदिर और उपाश्रय ही उनके (ज्ञानकेन्द्र) विद्यापीठ थे। श्रुतदेवी के वे स्वय कर्मनिष्ठ उपासक बने । "सज्झाय-सज्झाण रयस्म तायिणो" इस आगम वाणी को उन्होने जीवन-सून बनाकर ज्ञान-विज्ञान का गम्भीर अध्ययन किया। दर्शन के महासागर मे उन्होने गहरी डुबकिया लगाईं। फलत जैनाचार्य दिग्गज विद्वान् बने। ससार का विरल विषय ही होगा जो उनकी प्रतिभा से अछूता रहा । ज्ञान, विज्ञान, धर्म, दर्शन, साहित्य, संगीत, इतिहास, गणित, रसायन शास्त्र, आयुर्वेद शास्त्र, ज्योतिषशास्त्र आदि विभिन्न विषयो के ज्ञाता, अन्वेण्टा एव अनुसधाता जैनाचार्य थे। भारतीय ग्रन्थ राशि के जैनाचार्य पाठक ही नही स्वय निर्माता थे। उनकी लेखनी अविरल गति से चली । विशाल साहित्य का निर्माण कर उन्होने सरस्वती के भडार को भरा । उनका साहित्य स्तवन प्रधान एव गीत प्रधान ही नहीं था। काव्य एव महाकाव्य का निर्माण, विशाल काय पुराणो की सरचना, व्याकरण एव कोश की सृष्टि भी उन्होने की। दर्शन क्षेत्र मे जैनाचार्यों ने गभीर दार्शनिक दृष्टिया प्रदान की एव योग के सम्बन्ध मे नवीन व्याख्याए भी प्रस्तुत की, न्यायशास्त्र के स्वय प्रस्थापक बने । जैन शासन का महान् साहित्य जैनाचार्यों की मौलिक सूझ-बूझ एव उनके अनवरत

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