Book Title: Jain Dharm ka Swaroop Author(s): Vijayanandsuri Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 8
________________ ११-ईश्वर का जगत् में अवतार होना नहीं मानते हैं ॥ १२-मोक्ष पद को अनादि अनंत मानते हैं । १३-मोक्षपद में अनंत आत्मा मानते हैं । १४-मोक्षपद आत्मित्वजाति करके एक ही मानते हैं । १५-मोक्षात्मा सर्व परस्पर जहां एकात्मा है, तहां अनंत आत्मा हैं । दीपकों के प्रकाश की तरह स्थानांतर की जरूरत नहीं ॥ १६-जगद्वासी जीव और मोक्षात्मा दोनों स्वरूप में एक समान हैं, परं बंधाबंध से भेद है ॥ १७-जगद्वासी आत्मा शरीर मात्र व्यापक है, सर्व व्यापक नहीं ॥ १८-जगद्वासी आत्मा अपने करे शुभाशुभ कर्मों से अनेक तरह की योनियों में उत्पन्न होता है । १९-जगद्वासी आत्मा अपने २ निमित्तों से कर्म फल भोक्ता है, अन्य कोई फलदाता नहीं ॥ २०-जगत् में जड़ चैतन्य द्रव्य अनादि हैं; किसी के रचे हुए नहीं हैं। २१-जगत् में जीव अनंतानंत हैं इससे मोक्ष जाने से जीव रहित कदापि संसार नहीं होता २२-जीव के स्वरूप, और ईश्वर के स्वरूप में एक सदृशता है ॥ २३-कर्मों के संबंध से जीव समल है, और कर्म रहित होने से ईश्वर निर्मल है । २४-अठारह दूषणों से रहित होवे, तिसको देव, अर्थात् परमेश्वर मानते हैं ॥ २५-पंचमहाव्रतधारी, सम्यक्त्व ज्ञान सहित शुद्ध प्ररूपक को गुरु मानते हैं । २६-पूर्वोक्त अठारह दूषण रहित देवने जो मुक्ति का मार्ग कहा है, तिसको धर्म मानते २७-द्रव्य छै ६ मानते हैं । २८-तत्व ९ मानते हैं। २९-कायाषट् ६ मानते हैं। ३०-गति चार ४ मानते हैं । श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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