Book Title: Jain Dharm ka Swaroop
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 11
________________ परलोक के अपाय दुःखों से डरता हुआ निःशंक अधर्म में न प्रवर्त्ते ६ । अशठ, निश्चद्माचारनिष्ठ किसी के साथ ठगी न करे ७ । सदाक्षिण्य, अपना काम छोड़के भी पर काम कर देवे ८ । लज्जालु, अकार्य करने की बात सुन के लज्जावान् होता है; और अपना अंगीकारकरा हुआ धर्म सदनुष्ठान कदापि नहीं त्याग सकता है ९ । दयालु, दयावान्, दुःखी जंतुओं की रक्षा करने का अभिलाषुक होता है, क्योंकि धर्म का मूल ही दया है १० । मध्यस्थ, राग द्वेष विमुक्तबुद्धि पक्षपात रहित ११, सौम्यदृष्टि, किसी को भी उद्वेग करने वाला न होवे १२ । गुणरागी, गुणों का पक्षपात करे १३, सत्कथा, सपक्ष युक्त सत्कथा सदाचार धारणे से शोभनिक प्रवृत्ति के कथन करने वाले जिस के सहायक कुटुम्बीजन होवें, अर्थात् धर्म करते को परिवार के लोक निषेध न करें १४ । सुदीर्घ दर्शी, अच्छी तरह विचार के परिणाम में जिससे अच्छा काम होवे, सो कार्य करे १५ । विशेषज्ञ, सार असार वस्तु के स्वरूप को जाने १६ । वृद्धानुग, परिणत मतिज्ञान वृद्ध सदाचारी पुरुषों के अनुसार चले १७ । विनीत, गुरुजन का गौरव करे १८ । कृतज्ञ, थोड़ा सा भी उपकार इस लोक परलोक संबंधी किसी पुरुष ने करा होवे, तो तिसके उपकार को भूले नहीं, अर्थात् कृतघ्न न होवे १९ । परहितार्थकारी, अन्यों के उभयलोक हितकारी कार्य करे २० । लब्धलक्ष, जो कुछ सीखे, श्रवण करे, तिसके परमार्थ को तत्काल समझे २१ ॥ तथा षट्कर्म नित्य करे । वह यह है : - देव पूजा १ । गुरु उपास्तिर । स्वाध्याय३ । संयम४ । तप५ । दान६ । तथा षडावश्यक करे, तिनके नाम । सामायिक‍ | चतुर्विंशतिस्तव २ | वंदनक३ । प्रतिक्रमण४ । कायोत्सर्ग५ । और प्रत्याख्यान ६ । तथा बारह व्रत धारण करे, तिन का स्वरूप नीचे लिखते हैं ॥ संकल्प करके निरपराधी त्रस जीव की हिंसा का त्याग। यह प्रथम स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत ॥ १ ॥ द्विपद १, चतुष्पदर, अपद अर्थात् भूमि आदि स्थावर वस्तु संबंधी ३, इन की बाबत मृषा (झूठ बोलने का त्याग । कोई पुरुष मातबर जानके अपनी धन आदि वस्तु रख जावे, जब वह मांगे, तब ऐसा नहीं कहना कि तूं मेरे पास अमुक वस्तु नहीं रख गया है । ऐसा झूठ नहीं बोले४, कूड़ीसाक्षी अर्थात् झूठी गवाही न देवे५ । यह पांच प्रकार का झूठ न बोले । यह दूसरा स्थूल मृषावाद विरमण व्रत ॥२ ॥ सचित्त द्विपद चतुष्पदादि १; अचित्त सुवर्ण रुप्यादि २; मिश्र अलंकृत स्त्री आदि ३; ति विषयक चोरी का त्याग । तथा कोई धन आदि स्थापन कर गया होवे अथवा किसी का दबा हुआ धन वा किसी का पड़ा हुआ धन; इनको ग्रहण न करे। यह तीसरा स्थूल अदत्तादान विरमण जैन धर्म का स्वरूप ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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